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(पुस्तक ‘हिन्दू धर्मकोश’) पृष्ठ संख्या-688
(पुस्तक ‘हिन्दू धर्मकोश’) पृष्ठ संख्या-688

Revision as of 10:59, 21 March 2011

हिन्दू परिवार के पितृसत्तात्मक होने के कारण धर्मशास्त्र के अनुसार पुरुष कुलपति के मरने पर उत्तराधिकार परिवार के पुरुष सदस्यों को प्राप्त होता था। उनके अभाव में ही स्त्री उत्तराधिकारिणी होती थी। इस अवस्था में भी उसका उत्तराधिकार बाधित था। वह सम्पत्ति का केवल उपयोग कर सकती थी; वह उसे बेच अथवा परिवार से अलग नहीं कर सकती थी। उसके मरने पर पुन: पुरुष को अधिकार मिल जाता था। वह एक प्रकार से सम्पत्ति के उत्तराधिकार का माध्यम मात्र थी। परन्तु पारिवारिक सम्पत्ति को छोड़कर उसके पास एक अन्य प्रकार की सम्पत्ति होती थी, जिस पर उसका पूरा अधिकार था। वह परिवार की पैतृक सम्पत्ति से भिन्न थी। उसे स्त्रीधन कहते थे।

स्त्रीधन के प्रकार

नारद के अनुसार स्त्रीधन छ: प्रकार का होता है-

अध्यग्न्यभ्यावाहनिकं भर्तुदायं तथैव च।
भातृदत्तं पितृभ्यांच षड्विधं स्त्रीधनं स्मृतम्।।

(विवाह के समय प्राप्त, विदाई के समय प्राप्त, पति से प्राप्त, भाई द्वारा दिया हुआ, माता और पिता से दिया हुआ, यह छ: प्रकार का स्त्रीधन कहलाता है)

दूसरे स्रोतों से धनसंग्रह करने में स्त्री के ऊपर प्रतिबन्ध लगा हुआ है। कात्यायन का कथन है-

प्राप्तं स्वाभ्यं यद्वित्तं प्रीत्या चैव यदन्यत:।
भर्तु: स्वाभ्यं भवेत्तत्र शेषंतु स्त्रीधनं स्तृतम्।।

(जो धन शिल्प से प्राप्त होता है अथवा दूसरे प्रेमोपहार में प्राप्त होता है, उसके ऊपर पति का अधिकार होता है; शेष को स्त्रीधन कहते हैं)

काम करके कमाया हुआ धन परिवार के अन्य सदस्यों की कमाई की भाँति परिवार की सम्पत्ति होता है, जिसका प्रबन्धक पति है। स्त्रियों को अपने सम्बन्धियों के अतिरिक्त अन्य से प्रेमोपहार ग्रहण करने में प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है। कारण स्पष्ट है।

मिताक्षरा (अध्याय-2) ने स्त्रीधन का प्रयोग सामान्य अर्थ में किया है और सभी प्रकार के स्त्रीधन पर स्त्री का अधिकार स्वीकार किया है। दायभाग (अध्याय-4) में स्त्रीधन उसी को माना गया है, जिस पर स्त्री को दान देने, बेचने का और पूर्णरूप से उपयोग (पति से स्वतंत्र) करने का अधिकार हो। परन्तु सौदायिक (सम्बन्धियों से प्रेमपूर्वक प्राप्त) पर स्त्री का पूरा अधिकार माना गया है। कात्यायन का कथन है-

ऊढया कन्यया वापि पत्यु: पितृगृहेऽथवा।
भर्तु: सकाशात् पित्रोर्वा लब्धं सौदायिकं स्तृतम्।।
सौदायिकं धनं प्राप्य स्त्रीणां स्वातन्त्रमिष्यते।
यस्मात्तदानृशंस्यार्थ तैर्दत्तं तत् प्रजीवनम्।।
सौदायके सदा स्त्रीणां स्वातन्त्रयं परिकीर्तितम्।
विक्रये चैव दाने च यथेष्टं स्थावरेष्वपि।।

  किन्तु नारद ने स्थावर पर प्रतिबन्ध लगाया है-

भर्त्रा प्रीतेन यद्दत्तं स्त्रियै तस्मिन् मृतेऽपि तत्।
सा यथा काममश्नीयाद्दद्याद्वा स्थावरादृते।।

(जो धन प्रीतिपूर्वक पति द्वारा स्त्री को दिया जाता है, उस धन को पति के मरने पर भी स्त्री इच्छानुसार उपयोग में ला सकती है, अचल सम्पत्ति को छोड़कर)

कात्यायन के अनुसार किन्हीं परिस्थितियों में, स्त्री, स्त्रीधन से वंचित की जा सकती है-

अपकारक्रियायुक्ता निर्लज्जा चार्थनाशिनी।
व्यभिचाररता या च स्त्रीधनं न च सार्हति।।

(अपकार क्रिया में रत, निर्लज्जा, अर्थ का नाश करने वाली, व्यभिचारिणी स्त्री, स्त्रीधन की अधिकारिणी नहीं होती) सामान्य स्थिति में पति आदि सम्बन्धियों का स्त्रीधन के उपयोग में अधिकार नहीं होता। विपत्ति आदि में उपयोग हो सकता है-

न भर्ता नैव च सुतो पिता भ्रातरो न च।
आदाने वा विसर्गे वा स्त्रीधनं प्रभविष्णव:।। (कात्यायन)
दुर्भिक्षे धर्मकार्य वा व्याधौ संप्रतिरोधके।
गृहीतं स्त्रीधनं भर्ता नाकामी दातुमर्हति।। (याज्ञवल्क्य)

  मृत स्त्री के स्त्रीधन पर किसका अधिकार होगा, इस पर भी धर्मशास्त्र में विचार हुआ है-

सामान्यं पुत्रकन्यानां मृतायां स्त्रीधनं विदु:।
अप्रजायां हरेभदर्ता माता भ्राता पितापि वा।। (देवल)

पुत्र के अभाव में दुहिता और दुहिता के अभाव में दौहित्र को स्त्रीधन प्राप्त होता है:

पुत्राभावे तु दुहिता तुल्यसन्तानदर्शनात्। (नारद)
दौहित्रोऽपि ह्यमुत्रैनं संतारयति पौत्रवत्। (मनु)

गौतम के अनुसार स्त्रीधन अदत्ता (जिसका वाग्दान न हुआ हो), अप्रतिष्ठिता (जिसका वाग्दान हुआ हो, परन्तु विवाह न हुआ हो) अथवा विवाहिता कन्या को मिलना चाहिए। माता का यौतुक (विवाह के समय प्राप्त धन) तो निश्चित रूप से कुमारी (कन्या) को मिलना चाहिए (मनु)।

नि:संतान स्त्री के मरने पर उसके स्त्रीधन का उत्तराधिकार उसके विवाह के प्रकार के आधार पर निश्चित होता था। प्रथम चार प्रकार के प्रशस्त विवाहों-ब्राह्म, दैव, आर्ष तथा प्राजापत्य-में स्त्रीधन पति अथवा पतिकुल को प्राप्त होता था। अन्तिम चार अप्रशस्त-असुर, गान्धर्व, राक्षस एवं पैशाच में पिता अथवा पितृकुल को स्त्रीधन लौट जाता था।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

(पुस्तक ‘हिन्दू धर्मकोश’) पृष्ठ संख्या-688