विद्यानंद जी महाराज: Difference between revisions

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==व्यक्तित्व==
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'मां' का  दायित्व सन 1954 [[अक्षय तृतीया]] को एवं सम्पूर्ण आश्रम का दायित्व जब इनको सौंप दिया गया ये दत्तचित्त होकर मां की पूजा अर्चना करते रहे। स्वभाव से अत्यन्त सरल और कर्मशील माने जाते हैं। बालकों के साथ बालक हो जाना, यह उनका स्वभाव है। पण्डितों और विद्वानों का आदर करना एवं सम्माननीय लोगों का सम्मान करना इनका स्वभाव है। कैसा भी व्यक्ति क्यों ना आये वह इनके स्वभाव से नतमस्तक होकर जाता है। आखिर क्यों ना हो जिस पर गुरु कृपा एवं 'मां' की कृपा सदा विद्यमान है। आपके सरल स्वभाव को देखकर सभी लोग मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं। आपके सम्पर्क में जो भी व्यक्ति आता है वह उनके वात्सल्यमय व्यवहार को पाकर गदगद हो जाता है। यही अलौकिक स्थान का महत्व, गुरु महाराज की कृपा तथा 'मां' की कृपा का फल है। [[कात्यायनी पीठ|श्री श्री कात्यायनी पीठ]] का नाम सम्पूर्ण देश विदेश में व्याप्त हो रहा है। जो व्यक्ति एक बार 'मां' के दर्शन कर महाराज जी से आशीर्वाद ग्रहण करता है उसकी सभी मनोकामनाएं निश्चित ही पूर्ण होती हैं।
'मां' का  दायित्व सन 1954 [[अक्षय तृतीया]] को एवं सम्पूर्ण आश्रम का दायित्व जब इनको सौंप दिया गया ये दत्तचित्त होकर मां की पूजा अर्चना करते रहे। स्वभाव से अत्यन्त सरल और कर्मशील माने जाते हैं। बालकों के साथ बालक हो जाना, यह उनका स्वभाव है। पण्डितों और विद्वानों का आदर करना एवं सम्माननीय लोगों का सम्मान करना इनका स्वभाव है। कैसा भी व्यक्ति क्यों ना आये वह इनके स्वभाव से नतमस्तक होकर जाता है। आखिर क्यों ना हो जिस पर गुरु कृपा एवं 'मां' की कृपा सदा विद्यमान है। आपके सरल स्वभाव को देखकर सभी लोग मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं। आपके सम्पर्क में जो भी व्यक्ति आता है वह उनके वात्सल्यमय व्यवहार को पाकर गदगद हो जाता है। यही अलौकिक स्थान का महत्व, गुरु महाराज की कृपा तथा 'मां' की कृपा का फल है। [[कात्यायनी पीठ|श्री श्री कात्यायनी पीठ]] का नाम सम्पूर्ण देश विदेश में व्याप्त हो रहा है। जो व्यक्ति एक बार 'मां' के दर्शन कर महाराज जी से आशीर्वाद ग्रहण करता है उसकी सभी मनोकामनाएं निश्चित ही पूर्ण होती हैं।
 
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स्वामी विद्यानंद जी महाराज / Swami Vidyanand Ji Maharaj
स्वामी विद्यानंद जी महाराज
Swami Vidyanand Ji Maharaj|thumb|200px
'सन्त ह्रदय नवनीत समाना' गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामायण में संतों का वर्णन करते समय उनके ह्रदय एवं उनके स्वभाव का वर्णन किया है कि संतों का ह्रदय मक्खन के समान कोमल होता है। योगीराज श्री श्यामाचरण लाहिड़ी जी के सुयोग्य शिष्य श्री केशवानंद ब्रह्मचारी जी ने स्वामी रामतीर्थ जी महाराज से गेरूआ वस्त्र तथा ब्रह्मचर्य दीक्षा ग्रहण कर कठोर साधना को प्राप्त किया। लाहिड़ी जी द्वारा योग क्रिया का अभ्यास कर हिमालय में समाधि द्वारा साधना की प्राप्ति तथा विभिन्न क्रियायोगों का अभ्यास किया। हिमालय में उन्होंने अनेक साधु संतों के दर्शन किये। वहां पर उन्हें कात्यायनी मां ने आदेश दिया। वृन्दावन में आकर आपने योगशक्ति द्वारा उस अज्ञात स्थान को प्राप्त किया जहां आज कात्यायनी देवी विराजमान हैं। स्वामी केशवानन्द जी महाराज ने सत्यानंद जी अपना शिष्य बनाया, परन्तु वह अधिक दिनों तक नहीं रह पाये और मां के चरणों में लीन हो गये। उस समय स्वामी नित्यानंद जी महाराज विद्यमान थे उन्होंने भी स्वामी केशवानंद जी महाराज से दीक्षा ग्रहण की। स्वामी नित्यानंद जी महाराज मां की सेवा अनन्य भक्ति से किया करते थे। स्वामी श्री केशवाननद जी महाराज के परम भक्त श्री विश्म्भर दयाल जी और उनकी पत्नी श्री रामप्यारी देवी जी जो प्रतिदिन महाराज जी के दर्शन करने आया करते थे, 'मां' की भक्ति के साथ-साथ गुरु महाराज स्वामी श्री केशवानंद जी के भी कृपा पात्र हो गये। श्री विश्म्भर दयाल जी के छ्ह पुत्र थे, इन छ्ह पुत्रों पर महाराज का आशीर्वाद सदा विद्यमान रहा। परन्तु चतुर्थ पुत्र पर उनकी कृपा दृष्टि अत्यधिक रही और 'विधुभूषण' नामक यह बालक आज स्वामी विद्यानंद जी महाराज के नाम से जाने जाते हैं।

जन्म

स्वामी विद्यानंद जी महाराज का जन्म 26 दिसम्बर 1935 को वृन्दावन में हुआ। बाल्यकाल में शिक्षा दीक्षा से ओत-प्रोत होकर स्वामी नित्यानंद जी महाराज द्वारा यज्ञोपवीत संस्कार कराया गया। इसके अनंतर उन्हें शिक्षा ग्रहण कराकर 'मां' का पूर्ण अधिकार सौंप दिया गया।

व्यक्तित्व

'मां' का दायित्व सन 1954 अक्षय तृतीया को एवं सम्पूर्ण आश्रम का दायित्व जब इनको सौंप दिया गया ये दत्तचित्त होकर मां की पूजा अर्चना करते रहे। स्वभाव से अत्यन्त सरल और कर्मशील माने जाते हैं। बालकों के साथ बालक हो जाना, यह उनका स्वभाव है। पण्डितों और विद्वानों का आदर करना एवं सम्माननीय लोगों का सम्मान करना इनका स्वभाव है। कैसा भी व्यक्ति क्यों ना आये वह इनके स्वभाव से नतमस्तक होकर जाता है। आखिर क्यों ना हो जिस पर गुरु कृपा एवं 'मां' की कृपा सदा विद्यमान है। आपके सरल स्वभाव को देखकर सभी लोग मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं। आपके सम्पर्क में जो भी व्यक्ति आता है वह उनके वात्सल्यमय व्यवहार को पाकर गदगद हो जाता है। यही अलौकिक स्थान का महत्व, गुरु महाराज की कृपा तथा 'मां' की कृपा का फल है। श्री श्री कात्यायनी पीठ का नाम सम्पूर्ण देश विदेश में व्याप्त हो रहा है। जो व्यक्ति एक बार 'मां' के दर्शन कर महाराज जी से आशीर्वाद ग्रहण करता है उसकी सभी मनोकामनाएं निश्चित ही पूर्ण होती हैं।