रामकृष्ण परमहंस: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "गरीब" to "ग़रीब")
No edit summary
Line 1: Line 1:
[[चित्र:Ramkrishna Paramhans.jpg|रामकृष्ण परमहंस<br />Ramkrishna Paramhans|thumb|200px|right]]
[[चित्र:Ramkrishna Paramhans.jpg|रामकृष्ण परमहंस<br />Ramkrishna Paramhans|thumb|200px|right]]
'''रामकृष्ण परमहंस / Ramkrishna Paramhans'''<br />
==परिचय==
 
यह भारत के एक महान संत एवं विचारक थे। इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया था। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। अतः, ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।
यह भारत के एक महान संत एवं विचारक थे। इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया था। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। अतः, ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।



Revision as of 05:32, 18 May 2010

रामकृष्ण परमहंस
Ramkrishna Paramhans|thumb|200px|right

परिचय

यह भारत के एक महान संत एवं विचारक थे। इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया था। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। अतः, ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।

जन्म

  • बंगाल के हुगली ज़िले में एक ग्राम है कामारपुकुर।
  • यहीं 18 फरवरी सन 1836 को बालक गदाधर का जन्म हुआ।
  • गदाधर के पिता खुदीराम चट्टोपाध्याय निष्ठावान ग़रीब ब्राह्मण थे।
  • गदाधर की शिक्षा तो साधारण ही हुई, किंतु पिता की सादगी और धर्मनिष्ठा का उन पर पूरा प्रभाव पड़ा। सात वर्ष की अवस्था में ही पिता परलोक वासी हुए।
  • सत्रह वर्ष की अवस्था में बड़े भाई रामकुमार के बुलाने पर गदाधर कलकत्ता आये और कुछ दिनों बाद भाई के स्थान पर रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर-मन्दिर में पूजा के लिये नियुक्त हुए। यहीं उन्होंने माँ महाकाली के चरणों में अपने को उत्सर्ग कर दिया। वे भाव में इतने तन्मय रहने लगे कि लोग उन्हें पागल समझते। वे घंटों ध्यान करते और माँ के दर्शनों के लिये तड़पते। एक दिन अर्धरात्रि को जब व्याकुलता सीमा पर पहुँची, उन जगदम्बा ने प्रत्यक्ष होकर कृतार्थ कर दिया। गदाधर अब परमहंस रामकृष्ण ठाकुर हो गये।
  • बंगाल में बाल-विवाह की प्रथा है। गदाधर का भी विवाह बाल्यकाल में हो गया था; उनकी बालिका पत्नी जब दक्षिणेश्वर आयी, गदाधर वीतराग परमंहस हो चुके थे। माँ शारदामणि का कहना है- 'ठाकुर के दर्शन एक बार पा जाती हूँ, यही क्या मेरा कम सौभाग्य है?' परमहंस जी कहा करते थे- 'जो माँ जगत का पालन करती हैं, जो मन्दिर में पीठ पर प्रतिष्ठित हैं, वही तो यह हैं।' ये उद्गार थे उनके अपनी पत्नी, माँ शारदामणि के प्रति।
  • अधिकारी के पास मार्ग निर्देशक स्वयं चले आते हैं। उसे शिक्षा-दाता की खोज में भटकना नहीं पड़ता। एक दिन सन्ध्या को सहसा एक वृद्धा संन्यासिनी स्वयं दक्षिणेश्वर पधारीं। परमहंस रामकृष्ण को पुत्र की भाँति उनका स्नेह प्राप्त हुआ और उन्होंने परमहंस जी से अनेक तान्त्रिक साधनाएँ करायीं।
  • उनके अतिरिक्त तोतापुरी नामक एक वेदान्ती महात्मा का भी परमहंस जी पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। उनसे परमहंस जी ने अद्वैत-ज्ञान का सूत्र प्राप्त करके उसे अपनी साधना से अपरोक्ष किया।
  • परमहंस जी का जीवन विभिन्न साधनाओं तथा सिद्धियों के चमत्कारों से पूर्ण है; किंतु चमत्कार महापुरुष की महत्ता नहीं बढ़ाते।
  • परमहंस जी की महत्ता उनके त्याग, वैराग्य, पराभक्ति और उस अमृतोपदेश में है, जिससे सहस्त्रों प्राणी कृतार्थ हुए, जिसके प्रभाव से ब्रह्मसमाज के अध्यक्ष केशवचन्द्र सेन जैसे विद्वान भी प्रभावित थे, जिस प्रभाव एवं आध्यात्मिक शक्ति ने नरेन्द्र -जैसे नास्तिक, तर्कशील युवक को परम आस्तिक, भारत के गौरव का प्रसारक स्वामी विवेकानन्द बना दिया।
  • स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी का अधिकांश जीवन प्राय: समाधि की स्थिति में ही व्यतीत हुआ।
  • जीवन के अन्तिम तीस वर्षों में उन्होंने काशी, वृन्दावन, प्रयाग आदि तीर्थों की यात्रा की।
  • उनकी उपदेश-शैली बड़ी सरल और भावग्राही थी। वे एक छोटे दृष्टान्त में पूरी बात कह जाते थे। स्नेह, दया और सेवा के द्वारा ही उन्होंने लोक सुधार की सदा शिक्षा दी।
  • 15 अगस्त सन 1886 को उन्होंने महाप्रस्थान किया।
  • सेवाग्राम के संत के शब्दों में 'उनका जीवन धर्म को व्यवहार क्षेत्र में उतारकर मूर्तस्वरूप देने के प्रयास की एक अमरगाथा है।'