तैत्तिरीयोपनिषद शिक्षावल्ली अनुवाक-11: Difference between revisions
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Revision as of 14:46, 11 September 2011
- तैत्तिरीयोपनिषद के शिक्षावल्ली का यह ग्यारहवाँ अनुवाक है।
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- इस अनुवाक में गुरु अपने शिष्य और सामाजिक गृहस्थ को सद आचरणों पर चलने की प्रेरणा देता है। वह कहता है-
- 'सत्यं वद। धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमद:।' अर्थात सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय में आलस्य मत करो।
- अपने श्रेष्ठ कर्मों से साधक को कभी मन नहीं चुराना चाहिए। आचार्य के लिए अभीष्ट धन की व्यवस्था करने का सदा प्रयत्न करना चाहिए और सृष्टि के विकास में सदा सहयोगी बनाना चाहिए। आचार्य कहते हैं-
'मातृ देवो भव। पितृ देवो भव। आचार्य देवो भव। अतिथि देवों भव।' अर्थात माता को, पिता को, आचार्य को और अतिथि को देवता के समान मानकर उनके साथ व्यवहार करो।
- यह भारतीय संस्कृति की उच्चता है कि यहाँ माता-पिता और गुरु तथा अतिथि को भी देवता के समान सम्मान दिया जाता है।
- यहाँ 'दान' की विशिष्ट परम्परा है। दान सदैव मैत्री-भाव से ही देना चाहिए तथा कर्म, आचरण और दोष आदि में लांछित होने का भय, यदि उत्पन्न हो जाये, तो सदैव विचारशील, परामर्शशील, आचारणनिष्ठ, निर्मल बुद्धि वाले किसी धर्मनिष्ठ व्यक्ति से परामर्श लेना चाहिए।
- जिसने लोक-व्यवहार और धर्माचरण को अपने जीवन में उतार लिया, वही व्यक्ति मोह और भय से मुक्त होकर उचित परामर्श दे सकता है। श्रेष्ठ जीवन के ये श्रेष्ठ सिद्धान्त ही उपासना के योग्य हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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