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| पर अगर लड़ो तो | | पर अगर लड़ो तो |
| निश्चय ही अंत में जीत | | निश्चय ही अंत में जीत |
− | तुम्हारे पक्ष में चली आती है | + | तुम्हारे पक्ष में चली आती है। |
− | '''(2)'''
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− | तुामने तो की थी प्रतिज्ञा
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− | कि लड़ोगे तुम
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− | अन्तिम कारण तक
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− | उन सबके लिए
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− | जो लड़ना और जीना भूल चुके हैं
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− | जो न परास्त हुए न मरे हैं
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− | अद्र्घ विक्षिप्त से रणभूमि के किनारे
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− | कनकौए की तरह खड़े हैं
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− | जिनके अधिकार और हथियार
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− | पहले ही छिन चुके हैं
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− | लोकतन्त्र के इस जंगल में
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− | जिन एकलव्यों के अंगूठे कट चुके हैं
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− | जिनका जीवित सर
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− | बीरबल की तरह युद्घभूमि के किनारे
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− | बांस के खम्भे पर टांग दिया गया है
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− | जिन्हें भाषा और धर्म
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− | रंग और जात के नाम पर
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− | अलग अलग बांट दिया गया है
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− | तुमने तो कहा था
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− | तुमने तो कहा था-
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− | हम लड़ेंगे अन्तिम सॉंस तक
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− | न्याय के लिए़
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− | तुमने तिरंगे तले की थी घोषणा
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− | कि तमाम खतरों के बावजूद
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− | जिन्दा रहेगा सच
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− | तुमने लिया था संकल्प
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− | कि अपनी आत्मा की अस्मिता
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− | रखोगे अक्षुण्ण
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− | रक्त की अन्तिम बूंद तक़
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− | पर तुम्हीं ने बांध ली
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− | आंखों पर पटृी
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− | और चुन लिया अपने लिए अंधेरा
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− | ताकि देखना न पड़े
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− | न्याय के लिए जूझते
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− | दम तोड़ते आदमी का चेहरा
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− | तुम्हें पता था
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− | न्याय और जीवन के लिए
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− | लड़ते आदमी का चेहरा देखना
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− | सचमुच मुष्किल होता है
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− | तब और भी ज्यादा
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− | जब तुम अन्धेरे में हो
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− | और चेहरा मशाल की तरह जल रहा हो़
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− | तब और भी ज्यादा
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− | जब तुम खड़े हो
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− | मूक दर्शकों की पंक्ति में
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− | तुम देखते हो और ओढ़ लेते हो मौन
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− | मक्कारी में डूबे पूछते हो
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− | आराम में खलल डालता यह आदमी
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− | आखिर है कौन
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− | उधर अदालत की चौखट पर
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− | सर पटकती है
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− | न्याय की उम्मीद
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− | भीतर बेसाख्ता झूठ बोलता है चश्मदीद़
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− | वहां हथौड़े की ठक ठक के नीचे
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− | कराहता है आहत सच
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− | और सहम कर वहीं दुबक जाता है
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− | असहाय सा कोने में
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− | काले कव्वे से नहीं डरता है झूठ
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− | काले कव्वे की षह पर
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− | इतराता है, गुर्राता है
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− | कानून की किसी उपधारा को
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− | ढाल बनाकर निकल जाता है
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− | प्रजातन्त्र के जंगल में
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− | नए तरीके के साथ नए शिकार पऱ
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− | क्या तुमने सुना है
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− | सिसक- सिसक कर रोता सच
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− | अदालत के उठ जाने के बाद
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− | वहीं किसी अंधेरे कोने में
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− | पत्थर पर सिर टिकाए
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− | दीवारों में तलाशता हुआ संवेदना ?
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− | जहाँ तुम जाते हो न्याय की उम्मीद में
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− | वहाँ धृतराष्टृ की बगल में
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− | सदियों से खड़ी है गांधारी
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− | अंधी मर्यादा में गर्वोन्नत
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− | देखती नहीं कुछ
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− | सुनती है बस
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− | पर फर्क नहीं कर सकती
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− | घायल की कराहट
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− | और अपराधी की गुर्राहट के बीच़
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− | रेवड़ियां बाँटती है खैरात में
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− | पर अपना ही कुनबा
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− | आ जाता है सामने हरबाऱ
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− | सदियों से खड़ी है गांधारी
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− | जिसकी आंखों पर पटृी
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− | हाथ में तराजू है
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− | और तोलने को कुछ भी नहीं
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− | संविधान की आड़ी तिरछी रेखाओं ने
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− | जिसे ऊँची कुर्सी पर टॉंग रखा है
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− | उसके एक हाथ में
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− | मरी हुई परिभाषाओं से भरी
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− | एक भारी किताब है
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− | दूसरे हाथ में लकड़ी का हथौड़ा है
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− | जिसे दिन दिहाड़े धर दबोचा चौक पर
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− | कानून उस पर बरसता संवैधानिक कोड़ा है
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− | यहां हर नागरिक लकड़ी का घोड़ा है़
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− | वह गूँगा नहीं है
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− | नक्कारखाने में उसका मौन
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− | एक लाचारी है
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− | जिस अपराधी के पक्ष में
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− | एक डरी हुई चुप्पी है
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− | डसके लिए हथौड़े की ठक- ठक कर
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− | ऑर्डर-ऑर्डर कहता जज
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− | महज़ डुगडुगी बजाता मदारी है़
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− | जिन्दा आदमी के जले गोष्त की
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− | गन्ध से घबराई ज़ाहिरा
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− | एक और बुर्का ओढ़ लेती है झूठ का
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− | जब मोदी पूछता है
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− | अलग अलग करके बताओ
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− | कितने हिन्दू हैं मरने वालों में
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− | कितने मुस्व्लमान ?
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− | संसद की दीर्घा में बैठा प्रहरी
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− | कुछ और पसर जाता है आराम से
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− | जब समवेत स्वर में कहते हैं सभी
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− | जैसिका को किसी ने नहीं मारा
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− | जैसिका कभी मरी ही नहीं
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− | उसे दफन किया गया है फाईलों में जिन्दा़
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− | गांधारी के शब्दकोष में आदमी
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− | न जिंदा है न मरा है
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− | अदालत का एक कटघरा है
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− | जहां उसका सच सलीब पर तुलता है
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− | गवाह और अपराधी के बीच
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− | एक अदालती रिश्ता है
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− | जो सच की कब्र पर
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− | फूल की तरह खिलता है़
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