गेंदालाल दीक्षित: Difference between revisions

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==परिचय==
==परिचय==

Revision as of 10:52, 22 July 2018

गेंदालाल दीक्षित
पूरा नाम पंडित गेंदालाल दीक्षित
जन्म 30 नवम्बर, 1888
जन्म भूमि बाह, आगरा, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 21 दिसम्बर, 1920
अभिभावक पिता- पंडित भोलानाथ दीक्षित
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि स्वतंत्रता सेनानी
धर्म हिन्दू
विशेष गेंदालाल दीक्षित जी "उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों के द्रोणाचार्य" कहे जाते थे।
अन्य जानकारी गेंदालाल दीक्षित भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम योद्धा, महान क्रान्तिकारी व उत्कट राष्ट्रभक्त थे, जिन्होंने आम आदमी की बात तो दूर, डाकुओं तक को संगठित करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खड़ा करने का दुस्साहस किया।

गेंदालाल दीक्षित (अंग्रेज़ी: Gendalal Dixit, जन्म- 30 नवम्बर, 1888, आगरा; मृत्यु- 21 दिसम्बर, 1920) भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे। वह 'बंगाल विभाजन' के विरोध में चल रहे जन आंदोलन से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने क्रांति के लिए 'शिवाजी समिति' की स्थापना की थी। इसके बाद शिक्षित लोगों का एक संगठन बनाया और उन्हें अस्त्रों-शस्त्रों की शिक्षा प्रदान की।

परिचय

पंडित गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवम्बर सन् 1888 को ज़िला आगरा, उत्तर प्रदेश की तहसील बाह के मई नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित भोलानाथ दीक्षित था। गेंदालाल दीक्षित की आयु मुश्किल से 3 वर्ष की रही होगी कि माता का निधन हो गया। बिना माँ के बच्चे का जो हाल होता है, वही इनका भी हुआ। हमउम्र बच्चों के साथ निरंकुश खेलते-कूदते कब बचपन बीत गया, पता ही न चला; परन्तु एक बात अवश्य हुई कि बालक के अन्दर प्राकृतिक रूप से अप्रतिम वीरता का भाव प्रगाढ़ होता चला गया। गाँव के विद्यालय से हिन्दी में प्राइमरी परीक्षा पास कर इटावा से मिडिल और आगरा से मैट्रीकुलेशन किया। आगे पढ़ने की इच्छा तो थी, परन्तु परिस्थितिवश उत्तर प्रदेश में औरैया ज़िले की डीएवी पाठशाला में अध्यापक हो गये।

गिरफ़्तारी

सन 1905 में बंगाल विभाजन के बाद जो देशव्यापी 'स्वदेशी आन्दोलन' चला, उससे वे अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने 'शिवाजी समिति' के नाम से डाकुओं का एक संगठन बनाया और शिवाजी की भांति छापामार युद्ध करके अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध उत्तर प्रदेश में एक अभियान प्रारम्भ किया; किन्तु दल के ही एक सदस्य दलपतसिंह की मुखबिरी के कारण गिरफ्तार करके गेंदालाल दीक्षित को पहले ग्वालियर लाया गया, फिर वहाँ से आगरा के क़िले में कैद करके सेना की निगरानी में रख दिया गया। आगरा क़िले में रामप्रसाद बिस्मिल ने आकर गुप्त रूप से मुलाकात की और संस्कृत में सारा वार्तालाप किया, जिसे अंग्रेज़ पहरेदार बिलकुल न समझ पाये। अगले दिन गेंदालाल दीक्षित ने योजनानुसार पुलिस गुप्तचरों से कुछ रहस्य की बातें बतलाने की इच्छा जाहिर की। अधिकारियों की अनुमति लेकर उन्हें आगरा से मैनपुरी भेज दिया गया, जहाँ बिस्मिल की संस्था 'मातृवेदी' के कुछ साथी नवयुवक पहले से ही हवालात में बन्द थे।

मुक़दामा तथा सज़ा

गेंदालाल दीक्षित भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम योद्धा, महान क्रान्तिकारी व उत्कट राष्ट्रभक्त थे, जिन्होंने आम आदमी की बात तो दूर, डाकुओं तक को संगठित करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खड़ा करने का दुस्साहस किया। दीक्षित जी "उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों के द्रोणाचार्य" कहे जाते थे। उन्हें 'मैनपुरी षड्यंत्र' का सूत्रधार समझ कर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और बाकायदा चार्जशीट तैयार की गयी और मैनपुरी के मैजिस्ट्रेट बी. एस. क्रिस की अदालत में गेंदालाल दीक्षित सहित सभी नवयुवकों पर सम्राट के विरुद्ध साजिश रचने का मुकदमा दायर करके मैनपुरी की जेल में डाल दिया गया। इस मुकदमे को भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में 'मैनपुरी षड्यंत्र केस' के नाम से जाना जाता है।

जेल से फरार

गेंदालाल दीक्षित अपनी सूझबूझ से जेल से निकल भागे। साथ में एक सरकारी गवाह को भी ले उड़े। सबसे मजे की बात यह कि पुलिस ने सारे हथकण्डे अपना लिये, परन्तु उन्हें अन्त तक खोज नहीं पायी। आखिर में कोर्ट को उन्हें फरार घोषित करके मुकदमे का फैसला सुनाना पड़ा। मुकदमे के दौरान गेंदालाल दीक्षित ने एक और चाल चली। जेलर से कहा कि "सरकारी गवाह से उनके दोस्ताना ताल्लुकात हैं, अत: यदि दोनों को एक ही बैरक में रख दिया जाये तो कुछ और षड्यन्त्रकारी गिरफ्त में आ सकते हैं।" जेलर ने दीक्षित जी की बात का विश्वास करके सीआईडी की देखरेख में सरकारी गवाहों के साथ हवालात में भेज दिया। थानेदार ने एहतियात के तौर पर दीक्षित जी का एक हाथ और सरकारी गवाह का एक हाथ आपस में एक ही हथकड़ी में कस दिया ताकि रात में हवालात से भाग न सकें। किन्तु गेंदालाल जी ने वहाँ भी सबको धता बता दी और रातों-रात हवालात से भाग निकले। केवल इतना ही नहीं, अपने साथ बन्द उस सरकारी गवाह रामनारायण को भी उड़ा ले गये, जिसका हाथ उनके हाथ के साथ हथकड़ी में कसकर जकड़ दिया गया था। सारे अधिकारी, सीआईडी और पुलिस वाले उनकी इस हरकत को देख हाथ मलते रह गये।

घरवालों की बेरुखी

जेल से भागकर पंडित गेंदालाल दीक्षित अपने एक संबंधी के पास कोटा पहुंचे; पर वहां भी उनकी तलाश जारी थी। इसके बाद वे किसी तरह अपने घर पहुंचे; पर वहां घरवालों ने साफ कह दिया कि या तो आप यहां से चले जाएं, अन्यथा हम पुलिस को बुलाते हैं। अतः उन्हें वहां से भी भागना पड़ा। तब तक वे इतने कमजोर हो चुके थे कि दस कदम चलने मात्र से मूर्छित हो जाते थे। किसी तरह वे दिल्ली आकर पेट भरने के लिए एक प्याऊ पर पानी पिलाने की नौकरी करने लगे। कुछ समय बाद उन्होंने अपने एक संबंधी को पत्र लिखा, जो उनकी पत्नी को लेकर दिल्ली आ गये। तब तक उनकी दशा और बिगड़ चुकी थी। पत्नी यह देखकर रोने लगी। वह बोली कि 'मेरा अब इस संसार में कौन है?' पंडित जी ने कहा- 'आज देश की लाखों विधवाओं, अनाथों, किसानों और दासता की बेड़ी में जकड़ी भारत माता का कौन है? जो इन सबका मालिक है, वह तुम्हारी भी रक्षा करेगा।'

मृत्यु

अहर्निश कार्य करने व एक क्षण को भी विश्राम न करने के कारण गेंदालाल दीक्षित को क्षय रोग हो गया। पैसे के अभाव में घरवालों ने उनको दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया, लेकिन बच नहीं सके और अस्पताल में ही 21 दिसम्बर, 1920 को दोपहर बाद दो बजे उनका देहांत हो गया। भारत की आज़ादी के लिए समर्पित एक महान क्रांतिकारी इस दुनिया से इस प्रकार उठ गया कि कोई यह जान नहीं सका की वह कौन था।


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