सरदार पटेल: Difference between revisions
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[[1945]]-[[1946]] में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए पटेल एक प्रमुख उम्मीदवार थे। लेकिन गांधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप करके नेहरू को अध्यक्ष बनवा दिया। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेहरू को ब्रिटिश वाइसरॉय ने अंतरिम सरकार के गठन के लिए आमंत्रित किया। इस प्रकार, यदि घटनाक्रम सामान्य रहता, तो पटेल भारत के पहले [[प्रधानमंत्री]] होते। स्वतंत्र भारत के पहले तीन वर्ष पटेल उप-प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, सूचना मंत्री और राज्य मंत्री रहे। इस सबसे भी बढ़कर उनकी ख्याति भारत के रजवाड़ों को शान्तिपूर्ण तरीक़े से भारतीय संघ में शामिल करने तथा भारत के राजनीतिक एकीकरण के कारण है। | [[1945]]-[[1946]] में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए पटेल एक प्रमुख उम्मीदवार थे। लेकिन गांधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप करके नेहरू को अध्यक्ष बनवा दिया। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेहरू को ब्रिटिश वाइसरॉय ने अंतरिम सरकार के गठन के लिए आमंत्रित किया। इस प्रकार, यदि घटनाक्रम सामान्य रहता, तो पटेल भारत के पहले [[प्रधानमंत्री]] होते। स्वतंत्र भारत के पहले तीन वर्ष पटेल उप-प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, सूचना मंत्री और राज्य मंत्री रहे। इस सबसे भी बढ़कर उनकी ख्याति भारत के रजवाड़ों को शान्तिपूर्ण तरीक़े से भारतीय संघ में शामिल करने तथा भारत के राजनीतिक एकीकरण के कारण है। | ||
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सरदार वल्लभ भाई पटेल का उपनाम सरदार पटेल है। सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875, नाडियाड गुजरात, भारत में हुआ था। सरदार पटेल भारतीय बैरिस्टर और राजनेता थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं में से एक थे। 1947 में भारत की आज़ादी के बाद पहले तीन वर्ष वह उप प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, सूचना मंत्री और राज्य मंत्री रहे। उन्हें मरणोपरांत 1991 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' दिया गया। सरदार पटेल को भारत का लौह पुरूष भी कहा जाता है।
आरंभिक जीवन
सरदार पटेल का जन्म लेवा पट्टीदार जाति के एक समृद्ध ज़मींदार परिवार में हुआ था। वे झवेरभाई पटेल एवं लदबा की चौथी संतान थे। सोमभाई, नरसीभाई और विट्टलभाई उनके अग्रज थे। पारम्परिक हिंदू माहौल में पले-बढ़े पटेल ने करमसद में प्राथमिक विद्यालय और पेटलाद स्थित उच्च विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की, लेकिन उन्होंने अधिकांश ज्ञान स्वाध्याय से अर्जित किया। 16 वर्ष की आयु में उनका विवाह हो गया, 22 साल की उम्र में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की और ज़िला अधिवक्ता की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, जिससे उन्हें वकालत करने की अनुमति मिली। 1900 में उन्होंने गोधरा में स्वतंत्र ज़िला अधिवक्ता कार्यालय की स्थापना की और दो साल बाद खेड़ा ज़िले के बोरसद नामक स्थान पर चले गए।
वक़ालत
वकील के रूप में पटेल ने कमज़ोर मुक़दमे को सटीकता से प्रस्तुत करके और पुलिस के गवाहों तथा अग्रेज़ न्यायाधीशों को चुनौती देकर विशेष स्थान अर्जित किया। 1908 में पटेल की पत्नी की मृत्यु हो गई। उस समय उनके एक पुत्र और एक पुत्री थी। इसके बाद उन्होंने विधुर जीवन व्यतीत किया। वक़ालत के पेशे में तरक़्क़ी करने के लिए कृतसंकल्प पटेल ने मिड्ल टेंपल के अध्ययन करने के लिए अगस्त 1910 में लंदन की यात्रा की। वहाँ उन्होंने मनोयोग से अध्ययन किया और अंतिम परीक्षा में उच्च प्रतिष्ठा के साथ उत्तीर्ण हुए।
अग्रणी बैरिस्टर
फ़रवरी 1913 में भारत लौटकर वह अहमदाबाद में बस गए और तेज़ी से उन्नति करते हुए अहमदाबाद अधिवक्ता बार में अपराध क़ानून के अग्रणी बैरिस्टर बन गए। गम्भीर और शालीन पटेल अपने उच्चस्तरीय तौर-तरीक़ों और चुस्त, अंग्रेज़ी पहनावे के लिए जाने जाते थे। वह अहमदाबाद के फ़ैशनपरस्त गुजरात क्लब में ब्रिज के चैंपियन होने के कारण भी विख्यात थे। 1917 तक वह भारत की राजनीतिक गतिविधियों के प्रति उदासीन रहे।
सार्वभौमिक रूप
1917 में मोहनदास करमचन्द गांधी से प्रभावित होने के बाद पटेल ने पाया कि उनके जीवन की दिशा बदल गई है। पटेल गांधी के सत्याग्रह (अंहिसा की नीति) के साथ तब तक जुड़े रहे, जब तक वह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भारतीयों के संघर्ष में क़ारगर रहा। लेकिन उन्होंने कभी भी खुद को गांधी के नैतिक विश्वासों व आदर्शों के साथ नहीं जोड़ा और उनका मानना था कि उन्हें सार्वभौमिक रूप से लागू करने का गांधी का आग्रह, भारत के तत्कालीन राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अप्रासंगिक है। फिर भी गांधी के अनुसरण और समर्थन का संकल्प करने के बाद पटेल ने अपनी शैली और वेशभूषा में परिवर्तन कर लिया। उन्होंने गुजरात क्लब छोड़ दिया, भारतीय किसानों के समान सफ़ेद वस्त्र पहनने लगे और उन्होंने भारतीय खान-पान को अपना लिया।
भारतीय निगम आयुक्त के रूप में
1917 से 1924 तक पटेल ने अहमदनगर के पहले भारतीय निगम आयुक्त के रूप में सेवा प्रदान की और 1924 से 1928 तक वह इसके निर्वाचित नगरपालिका अध्यक्ष रहे। 1918 में पटेल ने अपनी पहली छाप छोड़ी, जब भारी वर्षा से फ़सल तबाह होने के बावजूद बम्बई सरकार द्वारा पूरा सालाना लगान वसूलने के फ़ैसले के विरुद्ध उन्होंने गुजरात के कैरा ज़िले में किसानों और काश्तकारों के जनांदोलन की रूपरेखा बनाई। 1928 में पटेल ने बढ़े हुए करों के ख़िलाफ़ बारदोली के भूमिपतियों के संघर्ष का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। बारदोली आन्दोलन के कुशल नेतृत्व के कारण उन्हें सरदार की उपाधि मिली और उसके बाद देश भर में राष्ट्रवादी नेता के रूप में उनकी पहचान बन गई। उन्हें व्यावहारिक, निर्णायक और यहाँ तक की कठोर भी माना जाता था तथा अंग्रेज़ उन्हें एक ख़तरनाक शत्रु मानते थे।
राजनीतिक दर्शन
पटेल क्रान्तिकारी नहीं थे, 1928 से 1931 के बीच इंडियन नेशनल कांग्रेस के उद्देश्यों पर हो रही महत्वपूर्ण बहस में पटेल का विचार था (गांधी और मोतीलाल नेहरू के समान, लेकिन जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस के विपरीत) कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लक्ष्य स्वाधीनता नहीं, बल्कि ब्रिटिश राष्ट्रकुल के भीतर अधिराज्य का दर्जा प्राप्त करने का होना चाहिए। जवाहर लाल नेहरू के विपरीत, जो स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में हिंसा की अनदेखी करने के पक्ष में थे, पटेल नैतिक नहीं, व्यावहारिक आधार पर सशस्त्र आन्दोलन को नकारते थे। पटेल का मानना था कि यह विफल रहेगा और इसका ज़बरदस्त दमन होगा। गांधी की भाँति पटेल भी भविष्य में ब्रिटिश राष्ट्रकुल में स्वतंत्र भारत की भागीदारी में लाभ देखते थे। बशर्ते भारत को एक बराबरी के सदस्य के रूप में शामिल किया जाए। वह भारत में आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास क़ायम करने पर ज़ोर देते थे, लेकिन गांधी के विपरीत, वह हिन्दू-मुस्लिम एकता को स्वतंत्रता की पूर्व शर्त नहीं मानते थे।
सामाजिक बदलाव
बलपूर्वक आर्थिक और सामाजिक बदलाव लाने की आवश्यकता के बारे में पटेल जवाहरलाल नेहरू से असहमत थे। पारम्परिक हिन्दू मूल्यों से उपजे रूढ़िवादी पटेल ने भारत की सामाजिक और आर्थिक संरचना में समाजवादी विचारों को अपनाने की उपयोगिता का उपहास किया। वह मुक्त उद्यम में यक़ीन रखते थे। इस प्रकार, उन्हें रूढ़िवादी तत्वों का विश्वास प्राप्त हुआ तथा उनसे प्राप्त धन से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियाँ संचालित होती रहीं।
जेल
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन में पटेल, गांधी के बाद अध्यक्ष पद के दूसरे उम्मीदवार थे। गांधी ने स्वाधीनता के प्रस्ताव को स्वीकृत होने से रोकने के प्रयास में अध्यक्ष पद की दावेदारी छोड़ दी और पटेल पर भी नाम वापस लेने के लिए दबाव डाला। इसका प्रमुख कारण मुसलमानों के प्रति पटेल की हठधर्मिता थी। अंतत: जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष बने। 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान पटेल को तीन महीने की जेल हुई। मार्च 1931 में पटेल ने इंडियन नेशनल कांग्रेस के करांची अधिवेशन की अध्यक्षता की। जनवरी 1932 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। जुलाई 1934 में वह रिहा हुए और 1937 के चुनावों में उन्होंने कांग्रेज़ पार्टी के संगठन को व्यवस्थित किया। 1937-38 में वह कांग्रेस के अध्यक्ष पद के प्रमुख दावेदार थे। एक बार फिर गांधी के दबाव में पटेल को अपना नाम वापस लेना पड़ा और जवाहर लाल नेहरू निर्वाचित हुए। अक्टूबर 1940 में कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ पटेल भी गिरफ़्तार हुए और अगस्त 1941 में रिहा हुए। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब जापानी हमले की आशंका हुई, तो पटेल ने गांधी की अहिंसा की नीति को अव्यावहारिक बताकर ख़ारिज कर दिया। सत्ता के हस्तान्तरण के मुद्दे पर भी पटेल का गांधी से इस बात पर मतभेद था कि उपमहाद्वीप का हिन्दू भारत तथा मुस्लिम पाकिस्तान के रूप में विभाजन अपरिहार्य है। पटेल ने ज़ोर दिया कि पाकिस्तान दे देना भारत के हित में है।
राजनीतिक एकीकरण
1945-1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए पटेल एक प्रमुख उम्मीदवार थे। लेकिन गांधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप करके नेहरू को अध्यक्ष बनवा दिया। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेहरू को ब्रिटिश वाइसरॉय ने अंतरिम सरकार के गठन के लिए आमंत्रित किया। इस प्रकार, यदि घटनाक्रम सामान्य रहता, तो पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री होते। स्वतंत्र भारत के पहले तीन वर्ष पटेल उप-प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, सूचना मंत्री और राज्य मंत्री रहे। इस सबसे भी बढ़कर उनकी ख्याति भारत के रजवाड़ों को शान्तिपूर्ण तरीक़े से भारतीय संघ में शामिल करने तथा भारत के राजनीतिक एकीकरण के कारण है।
मृत्यु
सरदार पटेल जी का निधन 15 दिसंबर, 1950 को मुंबई महाराष्ट्र में हुआ था।
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