पिता: Difference between revisions

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परिवार में माता व पिता में पिता का स्थान प्रथम था। दोनों को युक्त कर '''पितरौं''' अर्थात् पिता और माता [[यौगिक]] शब्द का प्रयोग होता था।  
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Revision as of 12:47, 10 January 2011

ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में "पिता" शब्द (उत्पन्न करने वाला) की अपेक्षा शिशु के रक्षक के अर्थ में अधिक व्यवहृत हुआ है। ऋग्वेद में यह दयालु एवं भले अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। अतएव अग्नि की तुलना पिता से[1] की गई है। पिता अपनी गोद में ले जाता है[2] तथा अग्नि की गोद में रखता है[3]। शिशु पिता के वस्त्रों को खींचकर उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है, उसका आनन्दपूर्वक स्वागत करता है।[4]

अधीनता में पुत्र

यह कहना कठिन है कि किस सीमा तक पुत्र पिता की अधीनता में रहता था एवं यह अधीनता कब तक रहती थी। ऋग्वेद (2.29,5) में आया है कि एक पुत्र को उसके पिता ने जुआ खेलने के कारण बहुत तिरस्कृत किया तथा ऋज्त्राश्व को[5] उसके पिता ने अंधा कर दिया। पुत्र के ऊपर पिता के अनियंत्रित अधिकार का यह द्योतक है। परन्तु ऐसी घटनाएँ क्रोधावेश में अपवाद रूप से ही होती थी।

आध्यात्मिक ज्ञान

  • इस बात का भी पर्याप्त प्रमाण नहीं है कि पुत्र बड़ा होकर पिता के साथ में रहता था अथवा नहीं।
  • उसकी पुत्री उसके पिता के घर की सदस्यता प्राप्त करती थी अथवा नहीं।
  • वह पिता के साथ में रहता था या अपना अलग घर बनाता था।
  • वृद्धावस्था में पिता प्राय: पुत्रों को सम्पत्ति का विभाजन कर देता था तथा श्वसुर पुत्रवधु के अधीन हो जाता था।
  • शतपथब्राह्मण में शुन:शेप की कथा से पिता की निष्ठुरता का उदाहरण भी प्राप्त होता है।
  • उपनिषदों में पिता से पुत्र को आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने पर ज़ोर डाला गया है।

गोद लेने की प्रथा

प्रकृत पुत्रों के अभाव में दत्तक पुत्रों को गोद लेने की प्रथा थी। स्वाभाविक पुत्रों के रहते हुए भी अच्छे व्यक्तित्व वाले बालकों को गोद लेने की प्रथा थी। विश्वामित्र द्वारा शुन:शेप का ग्रहण किया जाना इसका उदाहरण है। साथ ही इस उदाहरण से इस बात पर भी प्रकाश पड़ता है कि एक वर्ण के लोग अन्य वर्णों के बालकों को भी ग्रहण कर लेते थे। इस उदाहरण में विश्वामित्र का क्षत्रि तथा शुन:शेप का ब्राह्मण होना इसे प्रकट करता है। गोद लिये हुए पुत्र को साधारणत: ऊँचा सम्मानित स्थान प्राप्त नहीं था। पुत्र के अभाव में पुत्री के पुत्र को भी गोद लिया जाता था तथा उस पुत्री को पुत्रिका कहते थे। अतएव ऐसी लड़कियों के विवाह में कठिनाई होती थी, जिसका भाई नहीं होता था, क्योंकि ऐसा बालक अपने पिता के कुल का न होकर नाना के कुल का हो जाता था।

परिवार में माता व पिता में पिता का स्थान प्रथम था। दोनों को युक्त कर पितरौं अर्थात् पिता और माता यौगिक शब्द का प्रयोग होता था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋवेद. 10.7,3
  2. ऋवेद.1.38,1
  3. ऋवेद. 5.4-3,7
  4. ऋग्वेद. 7.103.3
  5. ऋग्वेद.1.116,16;117,17