महादान: Difference between revisions
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- महादान संख्या में दस या सोलह हैं।
- इनमें स्वर्णदान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इसके पश्चात भूमि, आवास, ग्राम-कर के दान आदि का क्रमश: स्थान है। स्वर्णदान सबसे मूल्यवान होने के कारण उत्तम माना गया है।
- इसके अंतर्गत 'तुलादान' अथवा 'तुलापुरुषदान' है। सर्वाधिक दान देने वाला तुला के पहले पलड़े पर बैठकर दूसरे पलड़े पर समान भार का स्वर्ण रखकर उसे ब्राह्मणों को दान करता था। बारहवीं शताब्दी में कन्नौज में कन्नौज के एक राजा इस प्रकार का तुलादान एक सौ बार तथा 14 शताब्दी के आरम्भ में मिथिला के एक मंत्री ने एक बार किया था।
- चीनी यात्री ह्वेनसांग हर्षवर्धन शीलादित्य के प्रत्येक पाँचवें वर्ष किये जाने वाले प्रयाग के महादान का वर्णन करता है।
- यज्ञोपवीत के अवसर पर या महायज्ञों के अवसर पर धनिक पुरुष स्वर्ण निर्मित गौ, कमल के फूल, आभूषण, भूमि आदि यज्ञान्त में ब्राह्मणों को दान कर देते हैं। *आज भी महादानों का देश में जहाँ नित्य ब्राह्मणों, संन्यासियों एवं पंगु, लुंज व्यक्तियों को भोजन दिया जाता है। ग्राम-ग्राम में प्रत्येक हिन्दू परिवार से ऐसे ब्राह्मणभोज नाना अवसरों पर कराये जाते हैं।
- प्रथम शताब्दी के उषवदात्त के गुहाभिलेख से ज्ञात है कि वह एक लाख ब्राह्मणों को प्रतिवर्ष 1 लाख गौ, 16 ग्राम, विहार भूमि, तालाब आदि दान करता था। सैकड़ों राजाओं ने असंख्य ब्राह्मणों का वर्षों तक और कभी-कभी आजीवन पालन-पोषण किया।
- आज भी मठों, देवालयों के अधीन देवस्थ अथवा देवस्थान की करहीन भूमि पड़ी है, जिससे उनके स्वामी मठाधीश लोग बड़े धनवानों में गिने जाते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ