परशुराम: Difference between revisions
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*[[दुर्वासा]] की भाँति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात है। एक बार कार्त्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था, जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्त्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] को क्षत्रिय-विहीन कर दिया (हर बार हताहत क्षत्रियों की पत्नियाँ जीवित रहीं और नई पीढ़ी को जन्म दिया) और पाँच झीलों को रक्त से भर दिया। | *[[दुर्वासा]] की भाँति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात है। एक बार कार्त्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था, जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्त्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] को क्षत्रिय-विहीन कर दिया (हर बार हताहत क्षत्रियों की पत्नियाँ जीवित रहीं और नई पीढ़ी को जन्म दिया) और पाँच झीलों को रक्त से भर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया। | ||
*रामावतार में [[राम|रामचन्द्र]] द्वारा शिव का धनुष तोड़ने पर ये क्रुद्ध होकर आये थे। इन्होंने परीक्षा के लिए उनका धनुष रामचन्द्र को दिया। जब राम ने धनुष चढ़ा दिया तो परशुराम समझ गये कि रामचन्द्र [[विष्णु]] के अवतार हैं। इसलिए उनकी वन्दना करके वे तपस्या करने चले गये। 'कहि जय जय रघुकुल केतू। भुगुपति गए बनहि तप हेतु॥' यह वर्णन 'राम चरितमानस', प्रथम सोपान में 267 से 284 दोहे तक मिलता है। | *रामावतार में [[राम|रामचन्द्र]] द्वारा शिव का धनुष तोड़ने पर ये क्रुद्ध होकर आये थे। इन्होंने परीक्षा के लिए उनका धनुष रामचन्द्र को दिया। जब राम ने धनुष चढ़ा दिया तो परशुराम समझ गये कि रामचन्द्र [[विष्णु]] के अवतार हैं। इसलिए उनकी वन्दना करके वे तपस्या करने चले गये। 'कहि जय जय रघुकुल केतू। भुगुपति गए बनहि तप हेतु॥' यह वर्णन 'राम चरितमानस', प्रथम सोपान में 267 से 284 दोहे तक मिलता है। | ||
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Revision as of 10:00, 12 May 2010
परशुराम / Parshuram
राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र, विष्णु के अवतार परशुराम शिव के परम भक्त थे। इन्हें शिव से विशेष परशु प्राप्त हुआ था। इनका नाम तो राम था, किन्तु शंकर द्वारा प्रदत्त अमोघ परशु को सदैव धारण किये रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिने जाता है। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य भी कहे जाते हैं। इनका जन्म अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ल तृतीया) को हुआ था। अत: इस दिन व्रत करने और उत्सव मनाने की प्रथा है। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था।
पिता से प्राप्त वरदान
एक बार सद्यस्नाता रेणुका राजा चित्ररथ पर मुग्ध हो गयी। उसके आश्रम पहुँचने पर मुनि को दिव्य ज्ञान से समस्त घटना ज्ञात हो गयी। उन्होंने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चार बेटों को माँ की हत्या करने का आदेश दिया। परशुराम के अतिरिक्त कोई भी तैयार न हुआ। अत: जमदग्नि ने सबको संज्ञाहीन कर दिया। परशुराम ने पिता की आज्ञा मानकर माता का शीश काट डाला। पिता ने प्रसन्न होकर वर माँगने को कहा तो उन्होंने चार वरदान माँगे-
- माँ पुनर्जीवित हो जायँ,
- उन्हें मरने की स्मृति न रहे,
- भाई चेतना-युक्त हो जायँ और
- मैं परमायु होऊँ।
जमदग्नि ने उन्हें चारों वरदान दे दिये।
क्रोधी स्वभाव
- दुर्वासा की भाँति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात है। एक बार कार्त्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था, जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्त्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया (हर बार हताहत क्षत्रियों की पत्नियाँ जीवित रहीं और नई पीढ़ी को जन्म दिया) और पाँच झीलों को रक्त से भर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया।
- रामावतार में रामचन्द्र द्वारा शिव का धनुष तोड़ने पर ये क्रुद्ध होकर आये थे। इन्होंने परीक्षा के लिए उनका धनुष रामचन्द्र को दिया। जब राम ने धनुष चढ़ा दिया तो परशुराम समझ गये कि रामचन्द्र विष्णु के अवतार हैं। इसलिए उनकी वन्दना करके वे तपस्या करने चले गये। 'कहि जय जय रघुकुल केतू। भुगुपति गए बनहि तप हेतु॥' यह वर्णन 'राम चरितमानस', प्रथम सोपान में 267 से 284 दोहे तक मिलता है।
संस्थापक
परशुराम मालाबार के पारंपरिक संस्थापक माने जाते हैं।
यज्ञ
परशुराम ने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ किए। यज्ञ करने के लिए उन्होंने बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवायी थी। महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा फिर परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। परशुराम ने समुद्र पीछे हटाकर गिरिश्रेष्ठ महेंद्र पर निवास किया।
राम के पराक्रम की परीक्षा
दशरथी राम का पराक्रम सुनकर वे अयोध्या गये। दशरथ ने उनके स्वागतार्थ रामचन्द्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रियसंहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। राम ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किये। परशुराम एक वर्ष तक लज्जित, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तदनंतर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज पुनः प्राप्त किया।