रमैनी: Difference between revisions
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यहाँ रमैनी का प्रयोग स्तुति वर्णन या रामधुन माना जा सकता है। 'रमैनी' के कुछ ऐसे प्रयोग उपलब्ध होते हैं, जिससे यह अनुमान किया गया है कि रमैनियों की रचना लोकोपचार की दृष्टि से भी की जाती थी। रमैनियों की रचना दोहा, चौपाइयों में की गयी है। इनकी शैली प्राय: वर्णनात्मक है। इसका सम्बन्ध [[अपभ्रंश]] में प्रचलित 'पद्धडियाबद्ध' कडवक परम्परा से जोड़ा गया है। | यहाँ रमैनी का प्रयोग स्तुति वर्णन या रामधुन माना जा सकता है। 'रमैनी' के कुछ ऐसे प्रयोग उपलब्ध होते हैं, जिससे यह अनुमान किया गया है कि रमैनियों की रचना लोकोपचार की दृष्टि से भी की जाती थी। रमैनियों की रचना दोहा, चौपाइयों में की गयी है। इनकी शैली प्राय: वर्णनात्मक है। इसका सम्बन्ध [[अपभ्रंश]] में प्रचलित 'पद्धडियाबद्ध' कडवक परम्परा से जोड़ा गया है।<ref>{{cite book | last =शर्मा | first =रामकिशोर| title =कबीर ग्रन्थावली| edition = | publisher = | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय| language =हिंदी| pages =100| chapter =}}</ref> | ||
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Revision as of 10:52, 30 November 2011
कबीर बीजक में 'रमैनी' की व्युत्पत्ति 'रामणी' से मानी गयी है। इसका विषय, 'जीवात्माओं की संसरणादि क्रीड़ाओं का सविस्तार वर्णन है।'
परशुराम चतुर्वेदी का कहना है कि 'रामायण' शब्द का क्रमश: रमैन बन जाना तथा उसे अल्पत्व बोध कराने के लिए 'रमैनी' रूप दिया जाना, उतना अस्वाभाविक नहीं है। रमैनी का अर्थ संसार में जीवों का रमण या वेदशास्त्र के विचारों में रमण भी अनुमानित किया गया है। इसका अर्थ यदि राम के चिन्तन मनन या राम के वृत्त में रमण करना लगाया जाए तो अधिक समीचीन है। वेदशास्त्र की बात सन्तों के सन्दर्भ में ग्रहणीय नहीं है। 'कबीर बीजक' में एक पंक्ति में 'रमैनी' शब्द आया है-
अदबुद रूप जात कै बानी, उपजी प्रीति रमैनी ठानी।
यहाँ रमैनी का प्रयोग स्तुति वर्णन या रामधुन माना जा सकता है। 'रमैनी' के कुछ ऐसे प्रयोग उपलब्ध होते हैं, जिससे यह अनुमान किया गया है कि रमैनियों की रचना लोकोपचार की दृष्टि से भी की जाती थी। रमैनियों की रचना दोहा, चौपाइयों में की गयी है। इनकी शैली प्राय: वर्णनात्मक है। इसका सम्बन्ध अपभ्रंश में प्रचलित 'पद्धडियाबद्ध' कडवक परम्परा से जोड़ा गया है।[1]
प्रकार
रमैनी निम्न प्रकार की पायी जाती हैं-
- बावनी (रमैनी)
- चौंतीसा (रमैनी)
- थिंती (रमैनी)
- वार (रमैनी)
- बसन्त (रमैनी)
- हिंडोला (रमैनी)
- चाँचर (रमैनी)
- कहरा (रमैनी)
- बेलि (रमैनी)
- विरहुल (रमैनी)
- विप्रमतीसी (रमैनी)
कबीर के द्वारा प्रयुक्त काव्यरूपों को देखने से ज्ञात होता है कि उनकी दृष्टि लोक परम्परा की ओर थी। उन्होंने आदिकाल में प्रचलित काव्यरूपों की लोकोन्मुखी परम्परा को आत्मसात करके अपनी अनुभूति और विचारों को सामान्य जनों में प्रचलित गीत माध्यमों से सम्प्रेषित किया है। विभिन्न लोक-काव्यरूपों का सफल और मौलिक प्रयोग, कबीर को कवि ही नहीं, बल्कि लोक कवि सिद्ध करता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शर्मा, रामकिशोर कबीर ग्रन्थावली (हिंदी), 100।
बाहरी कड़ियाँ
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