दु:ख -कुलदीप शर्मा: Difference between revisions

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जैसे पत्तों में उतरता है हरापन
जैसे पत्तों में उतरता है हरापन
मेरी रक्त कोशिकाओं में आ गए  
मेरी रक्त कोशिकाओं में आ गए  
जैसे फूलों में आती है खुष्बू
जैसे फूलों में आती है खुश्बू
मेरे अस्तित्व में  
मेरे अस्तित्व में  
मेरा ही हिस्सा बन कर  
मेरा ही हिस्सा बन कर  
रहने लगे तुम
रहने लगे तुम
अब कहीं भी जाऊॅं
अब कहीं भी जाहूँ
मुझसे पहले पहुंच जाते हो तुम
मुझसे पहले पहुंच जाते हो तुम
हटाना चाहूँ तुम्हें
हटाना चाहूँ तुम्हें

Revision as of 10:48, 2 January 2012

दु:ख -कुलदीप शर्मा
कवि कुलदीप शर्मा
जन्म स्थान (ऊना, हिमाचल प्रदेश)
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कुलदीप शर्मा की रचनाएँ

 
दु:ख ! मैं नहीं छू सकता तुम्हें
देख भी नहीं सकता
नहीं लिख सकता
तुम पर कोई कविता
बता भी नहीं सकता
कैसा है तुम्हारे चेहरे का रंग
कैसा है तुम्हारा वजूद
मेरी शक्ल से अलग
कैसे दिखते हो तुम
मुझमें कैसे दिख जाते हो
जबकि देखने के लिए भी
चाहिए एक दूरी
जो नहीं छोड़ी है तुमने
अपने और मेरे बीच

पहली बार जब देखा था तुम्हें
तुम मॉं की आंखों में
रहने लगे थे धुएं की तरह
पहली बार तुम्हारी पदचाप सुनी थी
पिता की आवाज़ में
उन्हे भूलते हुए
मैं बड़ा हो रहा था तब

फिर कई साल बाद
जब मैं ब्यास के किनारे खड़ा था एक दिन
और ब्यास का जल था
दर्पण की तरह साफ
मैने तुम्हें देखा
तुम ब्यास में थे
उसके किनारे रेत में भी तुम थे
पहाड़ पर ,हवा में ,पेड़ों में, हर कहीं दिखे तुम़

धीरे-धीरे तुम आ गए मुझमें
डतरे मेरी नसों में
जैसे पत्तों में उतरता है हरापन
मेरी रक्त कोशिकाओं में आ गए
जैसे फूलों में आती है खुश्बू
मेरे अस्तित्व में
मेरा ही हिस्सा बन कर
रहने लगे तुम
अब कहीं भी जाहूँ
मुझसे पहले पहुंच जाते हो तुम
हटाना चाहूँ तुम्हें
तो अपना ही जिस्म करता है बगावत
दबाना चाहूँ तो
अपनी ही साँसें उखड़ने लगती हैं
इतना चले आए हो भीतर
रूह में
कि दिखा भी नहीं सकता
जैसे कोई घायल दिखाता है घाव
कह भी नहीं सकता
कि यह रहा मेरा दु:ख
और यह रहा मैं ---


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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