श्लोक: Difference between revisions

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'''आहुस्त्वामृषय: सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।'''
'''आहुस्त्वामृषय: सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।'''
'''असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।।'''</poem>
'''असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।।'''</poem>


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'''कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।'''
'''कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।'''
'''केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ।।'''</poem>
'''केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ।।'''</poem>


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'''प्रह्रादश्चास्मि दैत्यानां काल: कलयतामहम् ।'''
'''प्रह्रादश्चास्मि दैत्यानां काल: कलयतामहम् ।'''
'''मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ।।'''</poem>
'''मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ।।'''</poem>


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Revision as of 12:08, 28 June 2010

संस्कृत की दो पंक्तियों की रचना, जिनके द्वारा किसी प्रकार का कथोकथन किया जाता है, को श्लोक कहते हैं। प्रायः श्लोक छंद के रूप में होते हैं अर्थात् इनमें गति, यति और लय होती है। छंद के रूप में होने के कारण ये आसानी से याद हो जाते हैं। प्राचीनकाल में ज्ञान को लिपिबद्ध करके रखने की प्रथा न होने के कारण ही इस प्रकार का प्रावधान किया गया था।

दस्युकर्म के मध्य कथा

वाल्मीकि दस्युकर्म के मध्य एक बार उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी| उसके इस विलाप को सुन कर रत्नाकर की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा।

मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्।।'

(अरे बहेलिये, तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी|)

इस घटना के पश्चात दस्युकर्म से उन्हें विरक्ति हो गई ज्ञान की प्राप्ति में अनुरक्त हो गये| ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य रामायण (जिसे कि "वाल्मीकि रामायण" के नाम से भी जाना जाता है) की रचना की और "आदिकवि वाल्मीकि" के नाम से अमर हो गये|

अन्य श्लोक

परं ब्रह्रा परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ।।
आहुस्त्वामृषय: सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।।


कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ।।


प्रह्रादश्चास्मि दैत्यानां काल: कलयतामहम् ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ।।


कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।।