शुभगुप्त आचार्य: Difference between revisions
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Revision as of 10:38, 25 March 2010
आचार्य शुभगुप्त
इतिहास में इनके नाम की बहुत कम चर्चा हुई। 'कल्याणरक्षित' नाम भी ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। वस्तुत: भोट भाषा में इनके नाम का अनुवाद 'दगे-सुङ्' हुआ है। 'शुभ' शब्द का अर्थ 'कल्याण' तथा 'गुप्त' शब्द का अर्थ 'रक्षित' भी होता है। अत: नाम के ये दो पर्याय उपलब्ध होते हैं। शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह की 'पंजिका' टीका में कमलशील ने 'शुभगुप्त' इस नाम का अनेकधा व्यवहार किया है। अत: यही नाम प्रामाणिक प्रतीत होता है, फिर भी इस विषय में विद्वान ही प्रमाण हैं। शुभगुप्त कहाँ उत्पन्न हुए थे, इसकी प्रामाणिक सूचना नहीं है, फिर भी इनका कश्मीर-निवासी होना अधिक संभावित है। भोटदेशीय परम्परा इस सम्भावना की पुष्टि करती है। धर्मोत्तर इनके साक्षात शिष्य थे, अत: तक्षशिला इनकी विद्याभूमि रही है। आचार्य धर्मोत्तर की कर्मभूमि कश्मीर-प्रदेश थी, ऐसा डॉ0 विद्याभूषण का मत है।
समय
- इनके काल के बारे में भी विद्वानों मे विवाद है, फिर भी इतना निश्चित है कि आचार्य शान्तरक्षित और आचार्य धर्मोत्तर से ये पूर्ववर्ती थे। आचार्य धर्माकरदत्त और शुभगुप्त दोनों धर्मोत्तर के गुरु थे। भोटदेश के सभी इतिहासज्ञ इस विषय में एकमत हैं। परवर्ती भारतीय विद्वान भी इस मत का समर्थन करते हैं। आचार्य शुभगुप्त शान्तरक्षित से पूर्ववर्ती थे, इस विषय में शान्तरक्षित का ग्रन्थ 'मध्यमकालंकार' ही प्रमाण है। सौत्रान्तिक मतों का खण्डन करते समय ग्रन्थकार ने शुभगुप्त की कारिका का उद्धरण दिया है।
- पण्डित सुखलाल संघवी का कथन है कि आचार्य धर्माकरदत्त 725 ईस्वीय वर्ष से पूर्ववर्ती थे।
- जैन दार्शनिक आचार्य अकलङ्क ने धर्मोत्तर के मत की समीक्षा की है।
- पण्डित महेन्द्रमार के मतानुसार अकलङ्क का समय ईस्वीय वर्ष 720-780 है। इसके अनुसार धर्मोत्तर का समय सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध निश्चित होता है। धर्मोत्तर शुभगुप्त के शिष्य थे, अत: उनके गुरु शुभगुप्त का काल ईस्वीय सप्तम शतक निर्धारित करने में कोई बाधा नहीं दिखती।
- डॉ0 एस.एन. गुप्त धर्मोत्तर का समय 847 ईस्वीय वर्ष निर्धारित करते हैं तथा डॉ0 विद्याभूषण उनके गुरु शुभगुप्त का काल ईस्वीय 829 वर्ष स्वीकार करते हैं। डॉ0 विद्याभूषण के काल निर्धारण का आधार महाराज धर्मपाल का समय है। किन्तु ये कौन धर्मपाल थे, इसका निश्चय नहीं है। दूसरी ओर आचार्य शान्तरक्षित जिस शुभगुप्त की कारिका उद्धृत करके उसका खण्डन करते हैं, उनका भोटदेश में 790 ईस्वीय वर्ष में निधन हुआ था। 792 ईस्वीय वर्ष में भोटदेश में शान्तरक्षित के शिष्य आचार्य कमलशील का 'सम्या छिम्बु' नामक महाविहार में चीन देश के प्रसिद्ध विद्वान 'ह्शंग' के साथ माध्यमिक दर्शन पर शास्त्रार्थ हुआ था। इस शास्त्रार्थ में ह्रशंग' की पराजय हुई थी, इसका उल्लेख चीन और जापान के प्राय: सभी इतिहासवेता करते है। इन विवरणों से आचार्य शान्तरक्षित का काल सुनिश्चित होता है। फलत: डॉ0 विद्याभूषण का मत उचित एवं तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि जिनके सिद्धान्तों का खण्डन शान्तरक्षित ने किया हो और जिनका निधन 790 ईस्वीय वर्ष में हो गया हो, उनसे पूर्ववर्ती आचार्य शुभगुप्त का काल 829 ईस्वीय वर्ष कैसे हो सकता है?
- महापण्डित राहुल सांकृत्यायन आचार्य धर्मकीर्ति का काल 600 ईस्वीय वर्ष निश्चित करते हैं। उनकी शिष्य-परम्परा का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है, यथा-देवेन्द्रबुद्धि, शाक्यबुद्धि, प्रज्ञाकर गुप्त तथा धर्मोत्तर। आचार्य देवेन्द्रबुद्धि का काल उनके मतानुसार 650 ईस्वीय वर्ष है। गुरु-शिष्य के काल में 25 वर्षों का अन्तर सभी इतिहासवेत्ताओं द्वारा मान्य है। किन्तु यह नियम सभी के बारे में लागू नहीं होता। ऐसा सुना जाता है कि देवेन्द्रबुद्धि आचार्य धर्मकीर्ति से भी उम्र में बड़े थे। और उन्होंने आचार्य दिङ्नाग से भी न्याय शास्त्र का अध्ययन किया था। धर्मोत्तर के दोनों गुरु धर्माकरदत्त और शुभगुप्त प्रज्ञाकरगुप्त के समसामयिक थे। ऐसी स्थिति में शुभगुप्त का समय ईसवीय सप्तम शताब्दी निश्चित किया जा सकता है। महापण्डित राहुत सांकृत्यायन की भी इस तिथि में विमति नहीं है।
कृतियाँ
भदन्त शुभगुप्त युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिकों के अन्तिम और लब्धप्रतिष्ठ आचार्य थे। उनके बाद ऐसा कोई आचार्य ज्ञात नहीं है, जिसने सौत्रान्तिक दर्शन पर स्वतन्त्र और मौलिक रचना की हो। यद्यपि धर्मोत्तर आदि भारतीय तथा जमयङ्-जद्-पई, तक्-छङ्-पा आदि भोट आचार्यों ने बहुत कुछ लिखा है, किन्तु वह पूर्व आचार्यों की व्याख्यामात्र है, नूतन और मौलिक नहीं है। आज भी दिङ्नागीय परम्परा के सौत्रान्तिक दर्शन के विद्वान् थोड़े-बहुत हो सकते हैं, किन्तु मौलिक शास्त्रों के रचयिता नहीं हैं। आचार्य शुभगुप्त ने कुल कितने ग्रन्थों की रचना की, इसकी प्रामाणिक जानकारी नही है। उनका कोई भी ग्रन्थ मूल संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। भोट भाषा और चीनी भाषा में उनके पाँच ग्रन्थों के अनुवाद सुरक्षित हैं, यथा
- सर्वज्ञसिद्धिकारिका,
- वाह्यार्थसिद्धिकारिका,
- श्रुतिपरीक्षा,
- अपोहविचारकारिका एवं
- ईश्वरभङ्गकारिका।
ये सभी ग्रन्थ लघुकाय हैं, किन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इनका प्रतिपाद्य विषय इनके नाम से ही स्पष्ट है, यथा-
- सर्वज्ञसिद्धिकारिका में विशेषत: जैमिनीय दर्शन का खण्डन है, क्योंकि वे सर्वज्ञ नही मानते। ग्रन्थ में युक्तूपर्वक सर्वज्ञ की सिद्धि की गई है।
- बाह्यार्थसिद्धि कारिका में जो विज्ञानवादी बाह्यार्थ नहीं मानते, उनका खण्डन करके सप्रमाण बाह्यार्थ की सत्ता सिद्ध की गई है।
- श्रुतिपरीक्षा में शब्दनित्यता, शब्दार्थ सम्बन्ध की नित्यता और शब्द की विधिवृत्ति का खण्डन किया गया है। 'श्रुति' का अर्थ वेद है। वेद की अपौरुषेयता का सिद्धान्त मीमांसकों का प्रमुख सिद्धान्त है, उसका ग्रन्थ में युक्तिपूर्वक निराकरण प्रतिपादित है।
- अपोहविचारकारिका में शब्द और कल्पना की विधिवृत्तिता का खण्डन करके उन्हें अपोहविषयक सिद्ध किया गया है। अपोह ही शब्दार्थ है, यह बौद्धों की प्रसिद्ध सिद्धान्त है, इसका इसमें मण्डन किया है। वैशिषिक सामान्य को शब्दार्थ है, यह बौद्धों की प्रसिद्ध है, इसका इसमें मण्डन किया है। वैशिषिक सामान्य को शब्दार्थ स्वीकार करते हैं, ग्रन्थ में सामान्य का विस्तार के साथ खण्डन किया गया है।
- ईश्वरभङ्गकारिका में इस बात का खण्डन किया गया है, कि ईश्वर जो नित्य है, वह जगत का कारण है। ग्रन्थ में नित्य को कारण मानने पर अनेक दोष दर्शाए गये हैं। इन ग्रन्थों से सौत्रान्तिक दर्शन की विलुप्त परम्परा का पर्याप्त परिचय प्राप्त होता है।