अध्यात्म: Difference between revisions

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<blockquote><poem>यंयंवापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
<blockquote><poem>यंयंवापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः।</poem><blockquote/>
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः।</poem></blockquote>


अर्थात- "हे कुंतीपुत्र [[अर्जुन]] ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है।"
अर्थात- "हे कुंतीपुत्र [[अर्जुन]] ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है।"

Revision as of 12:59, 9 March 2016

अध्यात्म का अर्थ है- "अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना, मनना और दर्शन करना" अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना। 'गीता' के आठवें अध्याय में अपने स्वरूप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है-

"परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।"

आत्मा परमात्मा का अंश है, यह तो सर्विविदित है। जब इस सम्बन्ध में शंका या संशय, अविश्वास की स्थिति अधिक क्रियमान होती है, तभी हमारी दूरी बढ़ती जाती है और हम विभिन्न रूपों से अपने को सफल बनाने का निरर्थक प्रयास करते रहते हैं, जिसका परिणाम नाकारात्मक ही होता है। ये तो असंभव सा जान पड़ता है कि मिट्टी के बर्तन मिट्टी से अलग पहचान बनाने की कोशिश करें तो कोई क्या कहे ? यह विषय विचारणीय है।[1]

अध्यात्म की अनुभूति सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है। स्वयं की खोज तो सभी कर रहे हैं, परोक्ष व अपरोक्ष रूप से। परमात्मा के असीम प्रेम की एक बूँद मानव में पायी जाती है, जिसके कारण हम उनसे संयुक्त होते हैं; किन्तु कुछ समय बाद इसका लोप हो जाता है और हम निराश हो जाते हैं। सांसारिक बन्धनों में आनंद ढूंढते ही रह जाते हैं, परन्तु क्षणिक ही ख़ुशी पाते हैं। जब हम क्षणिक संबंधों, क्षणिक वस्तुओं को अपना जान कर उससे आनंद मनाते हैं, जब की हर पल साथ रहने वाला शरीर भी हमें अपना ही गुलाम बना देता है। हमारी इन्द्रियां अपने आप से अलग कर देती हैं। यह इतनी सूक्ष्मता से करती हैं कि हमें महसूस भी नहीं होता की हमने यह काम किया है?

जब हमें सत्य की समझ आती है तो जीवन का अंतिम पड़ाव आ जाता है व पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं लग पाता। ऐसी स्थिति का हमें पहले ही ज्ञान हो जाए तो शायद हम अपने जीवन में पूर्ण आनंद की अनुभूति के अधिकारी बन सकते हैं। हमारा इहलोक तथा परलोक भी सुधर सकता है। अब प्रश्न उठता है की यह ज्ञान क्या हम अभी प्राप्त कर सकते हैं? हाँ ! हम अभी जान सकते हैं कि अंत समय में किसकी स्मृति होगी, हमारा भाव क्या होगा ? हम फिर अपने भाव में अपेक्षित सुधार कर सकेंगे। 'गीता' के आठवें अध्याय श्लोक संख्या आठ में भी बताया गया है कि-

यंयंवापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः।

अर्थात- "हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है।"


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अध्यात्म क्या है (हिन्दी) hindi.speakingtree.in। अभिगमन तिथि: 9 मार्च, 2016।

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