शूकरक्षेत्र उत्तर प्रदेश: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replace - "॰" to ".")
Line 5: Line 5:
सुशूकरक्षेत्र समुझि नहीं तस बालपन,  
सुशूकरक्षेत्र समुझि नहीं तस बालपन,  
तब अति रह्यों अचत'<ref>[[रामायण]] बालकाण्ड, 30</ref> </poem>
तब अति रह्यों अचत'<ref>[[रामायण]] बालकाण्ड, 30</ref> </poem>
तुलसीदास के गुरु [[नरहरिदास]] का आश्रम यहीं पर था। यहाँ प्राचीन ढूह है। इस पर [[सीता]]–[[राम]] जी का वर्गाकार मन्दिर है। इसके 16 स्तम्भ हैं। जिन पर अनेक यात्राओं का वृत्तान्त उत्कीर्ण है। सबसे अधिक प्राचीन लेख जो पढ़ा जा सका है 1226 वि॰ सं॰ 1169 ई. का है। जिससे मन्दिर के निर्माण का समय ज्ञान होता है। इस मन्दिर का 1511 ई. के पश्चात्त का कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता क्योंकि इतिहास से सूचित होता है कि इसे [[सिकन्दर लोदी]] ने नष्ट कर दिया था। नगर के उत्तर–पश्चिम की ओर वराह का मन्दिर है। जिसमें वराह [[लक्ष्मी]] की मूर्ति की पूजा आज भी होती है। पाली साहित्य में इसे सौरेज्य कहा गया है।  
तुलसीदास के गुरु [[नरहरिदास]] का आश्रम यहीं पर था। यहाँ प्राचीन ढूह है। इस पर [[सीता]]–[[राम]] जी का वर्गाकार मन्दिर है। इसके 16 स्तम्भ हैं। जिन पर अनेक यात्राओं का वृत्तान्त उत्कीर्ण है। सबसे अधिक प्राचीन लेख जो पढ़ा जा सका है 1226 वि. सं. 1169 ई. का है। जिससे मन्दिर के निर्माण का समय ज्ञान होता है। इस मन्दिर का 1511 ई. के पश्चात्त का कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता क्योंकि इतिहास से सूचित होता है कि इसे [[सिकन्दर लोदी]] ने नष्ट कर दिया था। नगर के उत्तर–पश्चिम की ओर वराह का मन्दिर है। जिसमें वराह [[लक्ष्मी]] की मूर्ति की पूजा आज भी होती है। पाली साहित्य में इसे सौरेज्य कहा गया है।  
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
[[Category:उत्तर_प्रदेश]][[Category:उत्तर_प्रदेश_के_ऐतिहासिक_नगर]][[Category:उत्तर_प्रदेश_के_ऐतिहासिक_स्थान]]
[[Category:उत्तर_प्रदेश]][[Category:उत्तर_प्रदेश_के_ऐतिहासिक_नगर]][[Category:उत्तर_प्रदेश_के_ऐतिहासिक_स्थान]]
__INDEX__
__INDEX__

Revision as of 09:48, 25 August 2010

शूकर क्षेत्र ज़िला बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश भारत में स्थित है। शूकरक्षेत्र का पुराना नाम उकला भी है। कहा जाता है कि विष्णु का वराह (शूकर) अवतार इसी स्थान पर हुआ था। ऐसा जान पड़ता है कि वराह–अवतार की कथा की सृष्टि विजातीय हूणों के धार्मिक विश्वासों के आधार पर हिन्दू धर्म के साहित्य में की गई। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि आक्रमणकारी हूणों के अनेक दल जो उत्तर भारत में गुप्तकाल में आए थे, यहाँ पर आकर बस गए और विशाल हिन्दू समाज में विलीन हो कर एक हो गए। उनके अनेक धार्मिक विश्वासों को हिन्दू धर्म में मिला लिया गया और जान पड़ता है कि वराहोपासना इन्ही विश्वासों का एक अंग थी और कालान्तर में हिन्दू धर्म ने इसे अंगीकार कर विष्णु के एक अवतार की ही वराह के रूप में कल्पना कर ली।

इतिहास

शूकरक्षेत्र मध्यकाल में तथा उसके पश्चात् तीर्थ रूप से मान्य रहा है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामायण की कथा सर्वप्रथम शूकरक्षेत्र में ही सुनी थी–

'मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा,
सुशूकरक्षेत्र समुझि नहीं तस बालपन,
तब अति रह्यों अचत'[1]

तुलसीदास के गुरु नरहरिदास का आश्रम यहीं पर था। यहाँ प्राचीन ढूह है। इस पर सीताराम जी का वर्गाकार मन्दिर है। इसके 16 स्तम्भ हैं। जिन पर अनेक यात्राओं का वृत्तान्त उत्कीर्ण है। सबसे अधिक प्राचीन लेख जो पढ़ा जा सका है 1226 वि. सं. 1169 ई. का है। जिससे मन्दिर के निर्माण का समय ज्ञान होता है। इस मन्दिर का 1511 ई. के पश्चात्त का कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता क्योंकि इतिहास से सूचित होता है कि इसे सिकन्दर लोदी ने नष्ट कर दिया था। नगर के उत्तर–पश्चिम की ओर वराह का मन्दिर है। जिसमें वराह लक्ष्मी की मूर्ति की पूजा आज भी होती है। पाली साहित्य में इसे सौरेज्य कहा गया है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रामायण बालकाण्ड, 30