तमिल संगम: Difference between revisions
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Revision as of 07:50, 24 May 2017
तमिल भाषा में लिखे गये प्राचीन साहित्य को ही संगम साहित्य कहा जाता है। 'संगम' शब्द का अर्थ है- संघ, परिषद्, गोष्ठी अथवा संस्थान। वास्तव में संगम, तमिल कवियों, विद्वानों, आचार्यों, ज्योतिषियों एवं बुद्धिजीवियों की एक परिषद थी। सर्वप्रथम इन परिषदों का आयोजन पाण्ड्य राजाओं के राजकीय संरक्षण में किया गया। संगम का महत्त्वपूर्ण कार्य होता था, उन कवियों व लेखकों की रचनाओं का अवलोकन करना, जो अपनी रचाओं को प्रकाशित करवाना चाहते थे। परिषद अथवा संगम की संस्तुति के उपरान्त ही वह रचना प्रकाशित हो पाती थी। प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि इस प्रकार की तीन परिषदों का आयोजन पाण्ड्य शासकों के संरक्षण में किया गया।
अनुश्रुति
तमिल अनुश्रुतियों के अनुसार तीन परिषदों (संगम) का आयोजन हुआ था-
उपरोक्त तीनों संगम कुल 9950 वर्ष तक चले। इस अवधि में लगभग 8598 कवियों ने अपनी रचनाओं से संगम साहित्य की उन्नति की। कोई 197 पाण्ड्य शासकों ने इन संगमों को अपना संरक्षण प्रदान किया। 'संगम साहित्य' का रचना काल विवादास्पद है। इस विषय में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है, फिर भी जो संकेत मिलते हैं, उनके आधार पर यही अनुमान लगाया जा सकता है कि 'संगम साहित्य' का संकलन 100 से 600 ई. के मध्य हुआ होगा। संगम साहित्य में उल्लिखित 'नरकुल' शब्द 'स्मरण प्रश्न' के अर्थ में प्रयुक्त होता था।
महत्त्व
लोककथाओं के अनुसार तमिल शासकों ने कुछ समयान्तरालों की अवधि में सम्मेलनों का आयोजन किया, जिसमें लेखक अपने ज्ञान की चर्चा तर्क-वितर्क के रूप में करते थे। ऐसा करने से तमिल साहित्य का उत्तरोत्तर विकास हुआ। संगम साहित्य के अन्तर्गत 473 कवियों द्वारा रचित 2381 पद्य हैं। इन कवियों में से कोई 102 कवि अनाम हैं। दक्षिण भारत के प्राचीन इतिहास के लिये संगम साहित्य की उपयोगिता अनन्य है। इस साहित्य में उस समय के तीन राजवंशों का उल्लेख मिलता है- चोल, चेर और पाण्ड्य। संगम तमिल कवियों का संघ था, जो पाण्ड्य शासकों के संरक्षण में हुए थे। कुल तीन संगमों का जिक्र हुआ है। प्रथम संगम मदुरा में अगस्त्य ऋषि की अध्यक्षता में हुआ था।
शिलप्पादिकारम, जीवक चिन्तामणि, तोल्क्पियम, मणिमेखले कुछ महत्वपूर्ण संगम महाकाव्य हैं। जैसा कि प्राचीन भारतीय इतिहास ग्रंथों में अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णनों की भरमार मिलती है, संगम साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। इसलिए इन ग्रंथों को आधार मानकर इतिहास लिखना उचित नहीं माना गया है; फिर भी दक्षिण भारत के प्राचीन समय के इतिहास की रूपरेखा जानने में यह सहायक हैं और इनका काफ़ी महत्त्व है।
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