तैत्तिरीयोपनिषद भृगुवल्ली अनुवाक-7: Difference between revisions

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*'प्राण' ही अन्न है। शरीर में प्राण है और यह शरीर प्राण के आश्रय में है।  
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*अन्न में ही अन्न की प्रतिष्ठा है।  
*अन्न में ही अन्न की प्रतिष्ठा है।  
*जो साधक इस मर्म को समझ जाता है, वह अन्न-पाचन की शक्ति, प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस का ज्ञाता होकर महान यश को प्राप्त करता है।
*जो साधक इस मर्म को समझ जाता है, वह अन्न-पाचन की शक्ति, प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस का ज्ञाता होकर महान् यश को प्राप्त करता है।


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  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य
  • भृगु ऋषि ने कहा कि अन्न की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए।
  • 'प्राण' ही अन्न है। शरीर में प्राण है और यह शरीर प्राण के आश्रय में है।
  • अन्न में ही अन्न की प्रतिष्ठा है।
  • जो साधक इस मर्म को समझ जाता है, वह अन्न-पाचन की शक्ति, प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस का ज्ञाता होकर महान् यश को प्राप्त करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


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