वाकाटक साम्राज्य: Difference between revisions

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Revision as of 09:22, 2 November 2010

सातवाहनों के पतन एवं छठी शताब्दी के मध्य तक चालुक्य वंश के उदय होने तक दक्कन में वाकाटक ही सबसे महत्वपूर्ण शक्ति थे, जिन्होंने दक्षिण एवं कभी कभी मध्य भारत के कुछ क्षेत्रों में अपनी सत्ता स्थापित की। वाकाटक शक्ति के संस्थापक विंध्यशक्ति के पूर्वजों एवं उसके उदगम स्थान के विषय में कोई जानकारी नहीं है। उसके नाम के कारण उसका सम्बन्ध विंध्य क्षेत्र के किसी स्थान के साथ जुड़ा प्रतीत होता है। वंश का नाम सम्भवतः व्यक्ति या अधिक सम्भवतः किसी वाटक नामक क्षेत्र से जुड़ा है।

पौराणिक प्रमाणों से प्रतीत होता है कि विंध्यशक्ति ने पूर्वी मालवा में अपनी शक्ति तीसरी शताब्दी में दृढ़ की, जबकि शक महाक्षत्रपों की शक्ति का पतन और विदिशा के नाग वंश जैसी देशी शक्तियों का उदय हो रहा था। यह भी सम्भव है कि विंध्यशक्ति ने विंध्य पार अपनी शक्ति का विस्तार सातवाहनों की क़ीमत पर किया हो। वाकाटक शासकों के अधिकतर लेख प्रमाणों एवं पुराणों के आधार पर यह कहा जाता है कि वाकाटक शासन तीसरी शताब्दी के अन्त में प्रारम्भ हुआ और पाँचवीं शताब्दी के अन्त तक चलता रहा।

विंध्यशक्ति विष्णुवृद्धि गोत्र का ब्राह्मण था। यह निश्चय नहीं है कि उसने भी 'सेनानी' पुष्यमित्र की ही भाँति राजकीय उपाधियों के बग़ैर शासन किया अथवा उपाधियाँ धारण कीं। उसके उत्तराधिकारी (उसके पुत्र) हारितिपुत्र प्रवरसेन प्रथम ने 'महाराज' की उपाधि धारण की। उसके पारिवारिक लेख--प्रमाणों से ज्ञात होता है कि एकमात्र वही ऐसा वाकाटक राजा था, जिसे सम्राट की उपाधि से सम्बोधित किया जाता था। वह ब्राह्मण धर्म का पोषक था। उसने कई वैदिक यज्ञ किए। उसने अपनी पुत्री का विवाह भारशिव नाग वंश के भवनाग शक्तिशाली राजा से किया, जिसका मध्य भारत के एक बड़े भाग पर अधिकार था। सम्भवतः उसने नागवंशी राजाओं के दशाश्वमेध यज्ञ का ही अनुसरण करके स्वयं भी अश्वमेध यज्ञ किया। उसके समय में वाकाटक राज्य का बुंदेलखण्ड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक विस्तार हुआ।

पौराणिक लेखों के अनुसार प्रबरसेन के चार पुत्र राजा हुए। सम्भवतः इस शक्ति—विभाजन के कारण राज्य के दुर्बल होने के परिणामस्वरूप ही अन्य किसी राजा के साथ महाराज उपाधि का प्रयोग नहीं हुआ। अभिलेखों में प्रबरसेन प्रथम के साम्राज्य के दो भागों में विभक्त हो जाने का उल्लेख मिलता है। एक उसके पुत्र गौतमीपुत्र की अध्यक्षता में जिसका केन्द्र नंदिवर्धन (नागपुर) में था और दूसरा उसके पुत्र सर्वसेन एवं उसके उत्तराधिकारियों के अधीन, जिसका केन्द्र बरार में वत्सगुल्म में था। गौतमी पुत्र एवं उसके उत्तराधिकारी शैव थे। नागपुर केन्द्र के एक शासक रुद्रसेन द्वितीय ने गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री पुभावती गुप्त से विवाह किया था। इसके परिणामस्वरूप रुद्रसेन द्वितीय वैष्णव हो गया। लगभग चौथी शती के अन्त में रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गई और 13 वर्ष तक प्रभावती ने अल्पवयस्क पुत्रों की संरक्षिका के रूप में शासन किया। वाकाटकों की शक्ति का ह्रास किस प्रकार हुआ, इस विषय में कुछ निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। किन्तु इतना निश्चित है कि छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में चालुक्यों को मध्य प्रदेश में नल, कोंकण में मौर्य तथा उत्तरी महाराष्ट्र में कलचूरी वंश से संघर्ष करना पड़ा था। सम्भवतः वाकाटक साम्राज्य का अधिकांश भाग नल वंश के हाथ में चला गया।

वाकाटक शासक साहित्य प्रेमी एवं कला के पोषक थे। एक वाकाटक शासक प्रबरसेन द्वितीय 'सेतुबंध' नामक कृति का रचयिता माना जाता है। संस्कृत की रचना की वैदर्भी शैली अपने वाकाटक दरबार में प्रचलित होने के कारण ही अपना एक अलग अस्तित्व रखती है। अजन्ता की कुछ भव्य गुफ़ाएँ और उनके सुन्दर भित्तिचित्र वाकाटक राजाओं के संरक्षण में बने।

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