सर्व मित्र सिकरी

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सर्व मित्र सिकरी
पूरा नाम सर्व मित्र सिकरी
जन्म 26 अप्रॅल, 1908
जन्म भूमि पंजाब (आज़ादी पूर्व)
मृत्यु 24 सितम्बर, 1992
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि न्यायाधीश
पद मुख्य न्यायाधीश, भारत- 22 जनवरी, 1971 से 25 अप्रॅल, 1973 तक

न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय, भारत- 3 फ़रवरी, 1964 से 25 अप्रॅल, 1973 तक

संबंधित लेख भारत के मुख्य न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय
द्वारा नियुक्त वी. वी. गिरि
पूर्वाधिकारी जयंतीलाल छोटेलाल शाह
उत्तराधिकारी अजीत नाथ राय

सर्व मित्र सिकरी (अंग्रेज़ी: Sarv Mittra Sikri, जन्म- 26 अप्रॅल, 1908; मृत्यु- 24 सितम्बर, 1992) भारत के भूतपूर्व 13वें मुख्य न्यायाधीश थे। वह 22 जनवरी, 1971 से 25 अप्रॅल, 1973 तक भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे। न्यायमूर्ति सर्व मित्र सीकरी उस समय बहुत चर्चा में रहे, जब उनकी अध्यक्षता में 13 न्यायधीशों की पीठ का गठन किया गया था और 'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य' केस की सुनवाई हुई।

  • सर्व मित्र सिकरी उच्चतम न्यायालय के पहले जज थे, जिन्हें सीधे बार से नियुक्त किया गया था।
  • उन्होंने सन 1930 में लाहौर हाईन्यायालय से अभ्यास शुरू किया और बाद में सहायक महाधिवक्ता, पंजाब (1949) और महाधिवक्ता, पंजाब, (1951-1964) के रूप में कार्य किया।
  • फरवरी, 1964 में सर्व मित्र सिकरी उच्चतम न्यायालय में नियुक्त हुए। बाद में जनवरी 1971 में भारत के मुख्य न्यायाधीश बने।
  • वह केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य में निर्णय देने के एक दिन बाद 25 अप्रॅल, 1973 को सेवानिवृत्त हुए।
  • वह गोलकनाथ बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में बहुमत के फैसले का भी हिस्सा थे, जिसे केशवानंद में खारिज कर दिया गया था।
  • केशवानंद भारती मामले में उच्चतम न्यायालय के सामने सबसे बड़ा सवाल यह था कि क्या संसद के पास संविधान को किसी भी हद तक संशोधित करने का अधिकार है? क्या संसद नागरिकों के मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है? इन्हीं सवालों का जवाब केशवानंद भारती मामले में 13 जजों को खोजना था। पहले ही गोलकनाथ मामले में 11 जजों की पीठ फैसला दे चुकी थी कि संसद मौलिक अधिकारों से छेड़छाड़ नहीं कर सकती।

इसी मुद्दे पर कोई नया फैसला लेने के लिए 11 जजों से भी बड़ी पीठ के गठन की जरूरत थी। इसलिए मुख्य न्यायाधीश सर्व मित्र सीकरी की अध्यक्षता में देश के इतिहास में पहली बार 13 जजों की एक बेंच का गठन हुआ और शुरू हुई केशवानंद भारती मामले की सुनवाई। करीब 70 दिनों की बहस के बाद 24 अप्रॅल 1973 को न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया। सात जजों ने पक्ष में फैसला दिया और छह जजों ने विपक्ष में। इस फैसले में छ: के मुकाबले सात के बहुमत से जजों ने गोलकनाथ मामले के फैसले को पलट दिया। यानी न्यायालय ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर तो सकती है, लेकिन ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती जिससे संविधान के मूलभूत ढांचे का मूल स्वरूप बदल जाए।


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