उच्चतम न्यायालय
[[चित्र:Supreme-Court.jpg|thumb|250px|उच्चतम न्यायालय, भारत
Supreme Court, India]]
भारत का उच्चतम न्यायालय अथवा भारत का सर्वोच्च न्यायालय भारत का शीर्ष न्यायिक प्राधिकरण है, जिसे भारतीय संविधान के भाग 5, अध्याय 4 के तहत स्थापित किया गया है। भारतीय संघ की अधिकतम और व्यापक न्यायिक अधिकारिता उच्चतम न्यायालय को प्राप्त हैं। भारतीय संविधान के अनुसार उच्चतम न्यायालय की भूमिका संघीय न्यायालय और भारतीय संविधान के संरक्षक की है। संविधान के अनुच्छेद 124 में उच्चतम न्यायालय के गठन के सम्बन्ध में प्रावधान किया गया है, जिसमें यह कहा गया है कि, उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 7 अन्य न्यायाधीश होंगे तथा संसद समय-समय पर न्यायाधीशों की संख्या का निर्धारण कर सकती है। संसद ने न्यायाधीशों की संख्या को निर्धारित करने के लिए 1956 में उच्चतम न्यायालय (न्यायाधीशों की संख्या) अधिनियम, 1956 पारित किया और न्यायाधीशों की संख्या 10 कर दी। इस अधिनियम में संशोधन करके न्यायाधीशों की संख्या में कई बार वृद्धि की गई है।
गठन
भारत के एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बनने के दो दिन बाद 28 जनवरी सन 1950 को भारत का उच्चतम न्यायालय अस्तित्व में आया। उद्घाटन समारोह का आयोजन संसद भवन के नरेंद्रमण्डल (चेंबर ऑफ़ प्रिंसेज़) भवन में किया गया था। इससे पहले सन् 1937 से 1950 तक चैंबर ऑफ़ प्रिंसेस ही भारत की संघीय अदालत का भवन था। आज़ादी के बाद भी सन् 1958 तक चैंबर ऑफ़ प्रिंसेस ही भारत के उच्चतम न्यायालय का भवन था, जब तक कि 1958 में उच्चतम न्यायालय ने अपने वर्तमान तिलक मार्ग, नई दिल्ली स्थित परिसर का अधिग्रहण किया। भारत के उच्चतम न्यायालय ने भारतीय अदालत प्रणाली के शीर्ष पर पहुँचते हुए भारत की संघीय अदालत और प्रिवी काउंसिल की न्यायिक समिति को प्रतिस्थापित किया था। 28 जनवरी, 1950 को इसके उद्घाटन के बाद, उच्चतम न्यायालय ने संसद भवन के चैंबर ऑफ़ प्रिंसेस में अपनी बैठकों की शुरुआत की। उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन (एस.सी.बी.ए.) सर्वोच्च न्यायालय की बार है।
न्यायधीशों की संख्या वृद्धि
न्यायाधीशों की संख्या में 1960 में 13, 1977 में 17 तथा 1986 में 25 तक की वृद्धि कर दी गई। वर्तमान समय में उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और 25 अन्य न्यायाधीश (कुल 26 न्यायाधीश) हैं। 21 फ़रवरी, 2008 को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या 26 से बढ़ाकर 31 (मुख्य न्यायाधीश सहित) करने का निर्णय लिया। इसके लिए 22 दिसम्बर, 2008 को लोकसभा के द्वारा उच्चतम न्यायालय न्यायाधीश संख्या विधेयक, 2008 पारित किया गया है। इस विधेयक में उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की अधिकतम संख्या मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त 30 करने का प्रावधान है। इसे वैधानिक रूप प्रदान करने के लिए उच्चतम न्यायालय (न्यायाधीशों की संख्या) अधिनियम, 1956 में संशोधन किया जाएगा।
मुख्यपीठ
उच्चतम न्यायालय की मुख्यपीठ नई दिल्ली में स्थित है, लेकिन यह नई दिल्ली के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान पर भी सुनवाई कर सकता है। इस अन्य स्थान का निर्धारण मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की अनुमति से कर सकता है। विधि एवं न्याय पर संसदीय समिति के द्वारा प्रस्तुत 32वीं रिपोर्ट में उच्चतम न्यायालय की क्षेत्रीय पीठें पश्चिम, दक्षिण व पूर्वोत्तर क्षेत्रों में स्थापित करने की सिफ़ारिश की गयी है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि निर्धनों, ज़रूरतमंदो की न्याय तक पहुँच को सुलभ बनाने के लिए उच्चतम न्यायालय की क्षेत्रीय पीठें स्थापित की जानी चाहिए। इससे ऐसे ज़रूरतमंदों को, जो निर्धनता के कारण दिल्ली तक नहीं पहुँच पाते हैं, कम ख़र्च पर न्याय उपलब्ध कराया जा सकेगा। प्रयोग के तौर पर ऐसी पहली पीठ दक्षिण में चेन्नई में स्थापित करने की सलाह समिति ने दी है।
योग्यता
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए किसी भी व्यक्ति से निम्नलिखित योग्यताऑं की अपेक्षा की जाती है-
- वह भारत का नागरिक हो,
- वह किसी उच्च न्यायालय में लगातार कम से कम 10 वर्ष तक न्यायाधीश रह चुका हो,
- वह उच्च न्यायालय या किसी भी न्यायालय में कम से कम 10 वर्ष से विधि व्यवसाय कर रहा हो,
- वह राष्ट्रपति की राय से लब्धप्रतिष्ठ विधेवेत्ता हो।
मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा (अनुच्छेद 124) की जाती है। संविधान में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में केवल यह प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति उच्च्तम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से, जिनसे परामर्श करना वह आवश्यक समझे, परामर्श करने के पश्चात् उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगा। इससे यह प्रतीत होता है कि संविधान में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के सम्बन्ध में अलग से कोई प्रावधान नहीं किया गया है। संविधान के प्रवर्तन के बाद यह प्रथा अंगीकार की गयी कि उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया जाएगा। यह प्रथा 1951 से 1973 तक की कालावधि तक स्वीकार की जाती रही, सिवाय न्यायमूर्ति ईनाम, जो लकवे के शिकार हो गये थे, को छोड़कर। न्यायाधीश ईनाम के स्थान पर न्यायमूर्ति पी. वी. गजेन्द्र गड़कर को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया था। लेकिन 1973 में इस प्रथा का उल्लंघन किया गया और उच्चतम न्यायालय के 3 वरिष्ठतम न्यायाधीशों (न्यायमूर्ति जे. एस. शेलट, के. एस. हेगड़े तथा ए. एन. ग्रोवर) की वरिष्ठता का उल्लंधन करके न्यायमूर्ति अजीत नाथ रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। इसी तरह 1977 में न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना की वरिष्ठता का उल्लंघन कर न्यायमूर्ति एम. एच. बेग को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया था। इन मामलों को छोड़कर सदैव मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में वरिष्ठता के सिद्धान्त का पालन किया गया है। 6 अक्टूबर, 1993 को उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये एक निर्णय के अनुसार मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में वरिष्ठता के सिद्धान्त का पालन किया जाना चाहिए।
अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति
मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है (अनुच्छेद 124)। राष्ट्रपति न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय भारत के मुख्य न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करता है, जिनसे परामर्श करना वह आवश्यकत समझता है। 6 अक्टूबर, 1993 को उच्चतम न्यायालय ने एक निर्णय दिया, जिसके अनुसार न्यायाधीशों को नियुक्त करते समय राष्ट्रपति को मुख्य न्यायाधीश की राय को वरीयता देनी चाहिए और यदि किसी मामले में मुख्य न्यायाधीश की राय न मानी जाये तो इसका कारण बताया जाना चाहिए।
1999 में उच्चतम न्यायालय की 9 सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से यह अभिनिर्धारित किया है कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानान्तरण के मामले में 1993 के निर्णय में प्रतिपादन परामर्श प्रक्रिया का पालन किये बिना मुख्य न्यायाधीश द्वारा की गई सिफ़ारिशों को मानने के लिए कार्यपालिका बाध्य नहीं है। इस प्रकार संविधान पीठ ने यह अभिनिर्धारित किया है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के मामले में मुख्य न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के 4 वरिष्ठतम न्यायाधीशों के समूह कॉलेजियम से परामर्श करके ही राष्ट्रपति को अपनी सिफ़ारिश भेजनी चाहिए। 1993 के निर्णय में केवल 2 वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करने की बाध्यता थी। यह अभिनिर्धारित किया गया है कि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में उच्चतम न्यायालय के केवल 2 वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह लेना आवश्यक है। किन्तु स्थानान्तरण के मामले में उच्चतम न्यायालय के 4 वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करना अनिवार्य है। साथ ही सम्बन्धित उच्च न्यायालयों, जिससे स्थानान्तरण किया गया है और जिसको स्थानान्तरण किया गया है, उन मुख्य न्यायाधीशों से परामर्श करना भी अनिवार्य है।
कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति
संविधान के अनुच्छेद 126 में कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश को नियुक्त करने के सम्बन्ध में प्रावधान किया गया है, जिसके अनुसार जब कभी भी मुख्य न्यायाधीश का पद रिक्त हो या मुख्य न्यायाधीश अपने कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ हो या मुख्य न्यायाधीश को संसद के द्वारा पारित समावेदन पर राष्ट्रपति द्वारा उसके पद से हटा दिया गया हो, उसने स्वयं त्यागपत्र दे दिया हो, तो राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों में से किसी भी न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के कर्तव्यों का पालन करने के लिए नियुक्त कर सकता है।
तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति
मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किये जाने की योग्यता रखने वाले किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को सम्बद्ध उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करके तब तदर्थ न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर सकता है, जब उच्चतम न्यायालय के सत्र को आयोजित करने या चालू रखने के लिए न्यायाधीशों की आवश्यकता हो (अनुच्छेद 127)। इस प्रकार नियुक्त किये गये न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की सभी अधिकारिता, शक्तियाँ और विशेषाधिकार तब तक प्राप्त होंगे, जब तक वह उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करता है।
शपथ ग्रहण
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को राष्ट्रपति उनके पद की शपथ ग्रहण कराता है (अनुच्छेद 124(6)। न्यायाधीश निम्नलिखित के लिए शपथ ग्रहण करता है–
- विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखने के लिए,
- भारत की प्रभुता तथा अखण्डता को अक्षुण्ण रखने के लिए,
- सम्यक् प्रकार से श्रद्धापूर्वक तथा अपनी पूरी योग्यता, ज्ञान और विवेक से अपने पद के कर्तव्यों का भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष बिना पालन करने के लिए तथा
- संविधान एवं विधियों की मर्यादा बनाए रखने के लिए।
कार्य अवधि
अनुच्छेद 124(2) के अनुसार, उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु पूरी करने तक अपने पद पर बना रहता है, यदि वह राष्ट्रपति द्वारा असमर्थता या कदाचार से अपने पद से न हटा दिया जाए। राष्ट्रपति असमर्थता या कदाचार के आधार पर न्यायाधीश को हटाने का आदेश तब पारित करता है, जब संसद दो तिहाई बहुमत से ऐसा करने का प्रस्ताव अर्थात् महाभियोग पारित करे।
इसके अतिरिक्त न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु पूरी करने के पहले किसी भी समय राष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र दे सकता है। राष्ट्रपति द्वारा त्यागपत्र स्वीकार करने के पहले वह अपना त्यागपत्र वापस ले सकता है। अब तक 1967 में मुख्य न्यायाधीश के. सुब्बाराव राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के लिए, तथा 1984 में न्यायमूर्ति बहरुल इस्लाम ने लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए त्यागपत्र दिया था।
वेतन तथा भत्ता
1950 में जब संविधान को लागू किया गया था, तब मुख्य न्यायाधीश का वेतन 5,000 रुपये तथा अन्य न्यायाधीशों का वेतन 4,000 रुपये था, जिसे बाद में बढ़ाकर मुख्य न्यायाधीश को 33,000 रुपये तथा अन्य न्यायाधीशों को 30,000 रुपये प्रतिमाह कर दिया गया था। इसके अतिरिक्त मुख्य न्यायाधीश 1250 रुपये तथा अन्य न्यायाधीशों को 750 रुपये मासिक ख़र्च तथा 1,000 रुपये प्रतिमाह बिजली यात्रा ख़र्च, रहने के लिए किराया विहीन सरकारी बंगला, कार तथा 150 लीटर पेट्रोल प्रतिमाह मिलता है। 15 जनवरी, 2009 को केन्द्र सरकार द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार मुख्य न्यायाधीश का वेतन 33,000 रुपये से बढ़ाकर 1,00,000 रुपये प्रतिमाह तथा अन्य न्यायाधीशों का वेतन 26,000 रुपये से बढ़ाकर 90,000 रुपये प्रतिमाह कर दिया गया है। यह वेतनमान 1 जनवरी, 2006 से प्रभावी किया गया है। इसके लिए दिसम्बर, 2008 में उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय (न्यायाधीश) वेतन एवं सेवा शर्त संशोधन विधेयक, 2008 पारित किया गया है। इससे पूर्व 12 सितम्बर, 2008 को न्यायाधीशों के वेतन एवं भत्ते में तीन गुना वृद्धि की सिफ़ारिश की गई थी। भारत के मुख्य न्यायाधीश के द्वारा गठित तीन न्यायाधीशों के पैनल में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति अशोक भान और न्यायमूर्ति अलतमस कबीर तथा मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए. पी. सिंह शामिल थे। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के विशेषाधिकारों और वेतन भत्तों में उनकी नियुक्ति के पश्चात् कोई ऐसा परिवर्तन नहीं किया जाएगा, जो उनके लिए अलाभकारी हो (अनुच्छेद 125)। इनका समस्त वेतन एवं भत्ते संचित निधि पर भारित होते हैं।
सम्पत्ति की स्वैच्छिक घोषणा
उच्चतम न्यायलय व उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने सम्बन्धी कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है। इसके विपरीत अगस्त, 2009 में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने स्वेच्छा से अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने का निर्णय लिया। इससे पूर्व 1997 से प्रभावी एक प्रस्ताव के तहत उच्चतम न्यायालय के सभी न्यायाधीश अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा मुख्य न्यायाधीश को सौंपते रहे हैं, जिसे सार्वजनिक नहीं किया जाता है।
अभिलेख न्यायालय
संविधान के अनुच्छेद 129 के अनुसार, भारत का सर्वोच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय है। सामान्यत: अभिलेख न्यायालय से आशय उस उच्च न्यायालय से है, जिसके निर्णय सदा के लिए लेखबद्ध होते हैं और जिसके अभिलेखों का प्रमाणित मूल्य होता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय की सभी शक्तियाँ प्राप्त हैं, जिनमें अवमानना के लिए दण्ड भी सम्मिलित है।
न्यायालय का क्षेत्राधिकार
उच्चतम न्यायालय को निम्नलिखित मामलों में क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं–
प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार
उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अंतर्गत ऐसे मामले आते हैं, जिनकी सुनवाई करने का अधिकार किसी उच्च न्यायालय अथवा अधीनस्थ न्यायालयों को नहीं होता है (अनुच्छेद 131)। उच्चतम न्यायालय को निम्नलिखित मामलों में प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं–
- भारत संघ तथा एक या एक से अधिक राज्यों के मध्य उत्पन्न विवादों में,
- भारत संघ तथा कोई एक राज्य या अनेक राज्यों और एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवादों में,
- दो या दो से अधिक राज्यों के बीच ऐसे विवाद में, जिसमें उनके वैधानिक अधिकारों का प्रश्न निहित हो।
प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय उसी विवाद को निर्णय के लिए स्वीकार करेगा, जिसमें किसी तथ्य या विधि का प्रश्न शामिल है।
समवर्ती प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार
मूलाधिकारों को प्रवर्तित करने के लिए उच्चतम न्यायालय के पास समवर्ती प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार हैं। इन अधिकारों को लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा तथा उत्प्रेषण रिट जारी कर सकता है।
अपीलीय क्षेत्राधिकार
देश का सबसे बड़ा अपीलीय न्यायालय उच्चतम न्यायालय है। इसे भारत के सभी उच्च न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार है (अनुच्छेद 132)। उच्चतम न्यायालय में निम्निलिखित मामलों में अपील की जा सकती है-
(1) संवैधानिक मामले – संवैधानिक मामलों में उच्च न्यायालयों के निर्णय, डिक्री तथा अन्तिम आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में तभी अपील की जा सकती है, जब संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित विधि के किसी महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर अनेक उच्च न्यायालयों ने भिन्न-भिन्न निर्णय दिये हों और उच्चतम न्यायालय ने अपना निर्णय दिया हो। संवैधानिक मामलों में की गयी अपील की सुनवाई के लिए संवैधानिक पीठ का गठन किया जाता है, जिसमें कम से कम 5 न्यायाधीश शामिल किये जाते हैं। संवैधानिक मामलों में अपील तब की जा सकती है, जब–
- उच्च न्यायालय यह प्रमाणपत्र दे दे, कि मामलों में विधि का बहुत जटिल प्रश्न निहित है, जिसके लिए संविधान की व्याख्या आवश्यक है।
- उच्च न्यायालय प्रमाणपत्र न दे, तब उच्चतम न्यायालय इस सम्बन्ध में स्वयं अपील करने की आज्ञा दे सकता है।
(2) दीवानी मामले – संविधान के अनुच्छेद 133 के अनुसार भारत के राज्य क्षेत्र में स्थित किसी उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में तब अपील की जा सकती है, जब उच्चतम न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि–
- मामलों में विधि या सार्वजनिक महत्व का कोई सारभूत प्रश्न शामिल है, तथा
- मामले का निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाना आवश्यक है।
(3) आपराधिक मामले – किसी उच्च न्यायालय द्वारा आपराधिक अथवा फ़ौजदारी मामले में दिये गये निर्णय के विरुद्ध अपील की जा सकती है (अनुच्छेद 134), यदि–
- उच्च न्यायालय ने अपील में किसी अभियुक्त की दोष मुक्ति के आदेश को परिवर्तित करके उसे मृत्यु दण्डादेश दिया है,
- किसी उच्च न्यायालय ने अपने क्षेत्राधिकार के अंतर्गत किसी अधीनस्थ न्यायालय में लम्बित वाद को परीक्षण के लिए अपने पास अन्तरित कर लिया है और अभियुक्त को दोषसिद्ध करके मृत्युदण्ड दिया है।
- उच्च न्यायालय प्रमाणित कर देता है, कि मामला उच्चतम न्यायालय में अपील किये जाने योग्य है।
(4) विशेष इजाजत से अपील – जब उच्चतम न्यायालय अपने विवेक से किसी उच्च न्यायालय या न्यायिक अधिकरण के निर्णय के विरुद्ध अपील करने की इजाज़त दे, तब उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है (अनुच्छेद 136)। यह उपबंध सशस्त्र बलों वाले किसी क़ानून द्वारा या किसी न्यायालय या न्यायिक अधिकरण द्वारा दिये गये किसी निर्णय, डिक्री या आदेश द्वारा लागू नहीं होता।
44वें संविधान संशोधन द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा अपील के लिए विशेष अनुमति देने के अधिकार को अब संविधान के अनुच्छेद 136 द्वारा नियमित किया जाएगा। अब समान प्रकृति के वाद को किसी पक्ष या व्यक्ति द्वारा उच्चतम न्यायालय में उपस्थित किया जा सकता है। इससे पूर्व महान्यायवादी के आवेदन पर ही उच्चतम न्यायालय कार्रवाई कर सकता है। जब उच्चतम न्यायालय महान्यायवादी या किसी पक्ष के आवेदन से संतुष्ट है कि किसी वाद या वादों में एक ही क़ानून अंतर्निहित है और वह किसी उच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों में विचाराधीन है, तो उसे अपने यहाँ मँगाकर उन पर निर्णय कर सकता है।
परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार
संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति को यह अधिकार है, कि जब उसे यह प्रतीत हो कि विधि या तथ्य का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हो गया है या उत्पन्न होने की सम्भाना है, जो कि ऐसी प्रकृति या ऐसे व्यापक महत्व का है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना आवश्यक है, तो वह उस प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय की राय माँग सकता है। उच्चतम न्यायालय मामले की सुनवाई करके उस पर अपनी राय राष्ट्रपति को दे सकता है। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायालय न तो राष्ट्रपति को राय देने के लिए बाध्य है और न ही राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई राय को मानने के लिए बाध्य है। राष्ट्रपति निम्नलिखत मामलों में अब तक उच्चतम न्यायालय की राय माँग चुके हैं–
- 1951 में 'इन द देल्ही लाज एक्ट' के मामले में,
- 1952 में 'इन द सी कस्टम्स एक्ट' के मामले में,
- 1956 में 'इन द बेरूबारी' के मामले में,
- 1958 में 'इन द केरल एजुकेशन' के मामले में,
- 1965 में केशव सिंह के मामले में,
- 1974 में 'इन द प्रेसीडेन्सियल पोल' के मामले में,
- 1978 में 'इन द स्पेशल कोर्ट रिफरेन्स' के मामले में,
- 1991 में 'इन द मैटर आफ कावेरी वाटर डिस्प्यूट्स ट्रिब्यूनल' के मामले में,
- 1993 में 'इन द रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद' के मामले में,
- 1998 में न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में।
उक्त मामलों में से प्रथम 8 में उच्च्तम न्यायालय ने राष्ट्रपति को अपना परामर्श दिया है। पर 24 अक्टूबर, 1994 को रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के मामले में मुख्य न्यायाधीश एम. एन. वैंकटचलैया की अध्यक्षता वाली उच्च्तम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने राष्ट्रपति द्वारा माँगी गयी राय का कोई जबाव देने से इन्कार कर दिया।
पुनर्विलोकन क्षेत्राधिकार
उच्चतम न्यायालय को संसद या विधान मण्डलों द्वारा पारित किसी अधिनियम तथा कार्यपालिका द्वारा दिये गये किसी आदेश की वैधानिकता का पुनर्विलोकन करने का अधिकार है (अनुच्छेद 137)।
अन्तरण का क्षेत्राधिकार
उच्चतम न्यायलय को निम्न अधिकार भी प्रदान किये गए हैं-
- वह उच्च न्यायालयों में लम्बित मामलों को अपने यहाँ अन्तरित कर सकता है।
- वह किसी उच्च न्यायालय में लम्बित मामलों को दूसरे उच्च न्यायालय में अन्तरित कर सकता है।
जनहित याचिका
भारत में लोकहित अथवा जनहित याचिका (वाद) को प्रारम्भ करने का श्रेय न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती और न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्ण अय्यर का रहा है। इसके प्रयोग की शुरुआत 1970 के उत्तरार्ध से हुई थी। जनहित याचिका में जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ, शोषण, पर्यावरण, बालश्रम, स्त्रियों का शोषण आदि विषयों पर न्यायालय को किसी भी व्यक्ति या संस्था द्वारा सूचित करने पर न्यायालय स्वयं उसकी जाँच कराकर या वस्तुस्थिति को देखकर जनहित में निर्णय देता है। इस प्रकार के वाद उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। निचली अदालतों को ऐसे वादों पर विचार करने का अधिकार प्राप्त नहीं है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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