अखण्डित बंगाल

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(1905), भारत के ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड कर्ज़न द्वारा भारतीय राष्ट्रवादियों के भारी विरोध के बावजूद बंगाल का विभाजन किया गया था। इसके बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने मध्यमवर्गीय दबाब समूह से बढ़कर राष्ट्रीय स्तर के जन आंदोलन का रूप ले लिया। 1765 से ब्रिटिश भारत में बंगाल, बिहार और उड़ीसा संयुक्त रूप से एक ही प्रांत थे।

बंगाल का विभाजन

1900 तक यह प्रांत इतना बड़ा हो गया के इसे एक प्रशासन के अंतर्गत रखने में परेशानी होने लगी। अलग-अलग होने और संचार-साधनों के अभाव में पश्चिम बंगाल तथा बिहार की तुलना में पूर्वी बंगाल की उपेक्षा होने लगी। कर्ज़न ने विभाजन के कई तरीक़ों में से एक को चुना: असम को, जो 1874 तक इस प्रांत का एक हिस्सा था, पूर्वी बंगाल के 15 ज़िलों के साथ मिलाकर 3 करोड़ 10 लाख की आबादी वाला नया प्रांत बनाया। इसकी राजधानी ढाका थी और जनता मुख्यत: मुसलमान थी।पश्चिम बंगाल के हिंदुओं ने, जो बंगाल के अधिकांश वाणिज्य, व्यवसाय और ग्रामीण जीवन पर नियंत्रण रखते थे, शिकायत की कि बंगाल क्षेत्र के दो भागों में बंट जाने से वे बिहार और उड़ीसा समेत बचे हुए प्रांत में अल्पसंख्यक हो जाएंगे। उन्होंने इसे बंगाल में राष्ट्रीयता का गला घोटने की कोशिश माना, जहाँ यह अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक विकसित थी।

आन्दोलन

विभाजन के ख़िलाफ़ आंदोलन के लिए जनसभाएं, ग्रामीण आंदोलन और ब्रिटिश वस्तुओं के आयात के बहिष्कार के लिए स्वदेशी आंदोलन छेड़ा गया। तमाम आंदोलनों के बावजूद विभाजन हुआ और चरमपंथी विरोधी आतंकवादी आंदोलन चलाने के लिए भूमिगत हो जए। 1911 में जब देश की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली ले जाई गई, तो पूर्व और पश्चिम बंगाल पुन: एक हो गए, असम एक बार फिर अलग मुख्य प्रांत बन गया और बिहार व उड़ीसा को अलग करके नया प्रांत बना दिया गया। इसका उद्देश्य प्रशासनिक सुविधा के साथ-साथ बंगालियों की भावनाओं को तुष्ट करना भी था। कुछ समय तक तो इस लक्ष्य की प्राप्ति हो गई, लेकिन विभाजन से लाभान्वित हुए बंगाली मुसलमान नाराज़ और निराश थे।



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