सिर्फ़ अकेले चलने का मन है -दिनेश रघुवंशी

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सिर्फ़ अकेले चलने का मन है -दिनेश रघुवंशी
कवि दिनेश रघुवंशी
जन्म 26 अगस्त, 1964
जन्म स्थान ग्राम ख़ैरपुर, बुलन्दशहर ज़िला, (उत्तर प्रदेश)
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दिनेश रघुवंशी की रचनाएँ

    रिश्ते कई बार बेड़ी बन जाते हैं
    प्रश्नचिह्न बन राहों में तन जाते हैं
    ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
    कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

तनहा चलना रास नहीं आता लेकिन
कभी-कभी तनहा भी चलना अच्छा है
जिसको शीतल छाँव जलाती हो पल-पल
कड़ी धूप में उसका जलना अच्छा है

    अपना बनकर जब उजियारे छ्लते हों
    अँधियारों का हाथ थामना अच्छा है
    रोज़-रोज़ शबनम भी अगर दग़ा दे तो
    अंगारों का हाथ थामना अच्छा है

क़दम-क़दम पर शर्त लगे जिस रिश्ते में
तो वह रिश्ता भी केवल इक बन्धन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

    दुनिया में जिसने भी आँखें खोली हैं
    साथ जन्म के उसकी एक कहानी है
    उसकी आँखों में जीवन के सपने हैं
    आँसू हैं, आँसू के साथ रवानी है

अब ये उसकी क़िस्मत कितने आँसू हैं
और उसकी आँखों में कितने सपने हैं
बेगाने तो आख़िर बेगाने ठहरे
उसके अपनों में भी कितने अपने हैं

    अपनों और बेगानों से भी तो हटकर
    जीकर देखा जाए कि कैसा जीवन है
    ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
    कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है

अपना बोझा खुद ही ढोना पड़ता है
सच है रिश्ते अक्सर साथ नहीं देते
पाँवों को छाले तो हँसकर देते है
पर हँसती-गाती सौग़ात नहीं देते

    जिसने भी सुलझाना चाहा रिश्तों को
    रिश्ते उससे उतना रोज़ उलझते हैं
    जिसने भी परवाह नहीं की रिश्तों की
    रिश्ते उससे अपने आप सुलझते हैं

कभी ज़िन्दगी अगर मिली तो कह देंगे
तुझको सुलझाना भी कितनी उलझन है
ऐसा नहीं किसी से कोई अनबन है
कुछ दिन सिर्फ़ अकेले चलने का मन है


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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