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मैं शायद बीमार हूँ
पीलिया है रतौंधी है या गठिया है
ठीक-ठीक कुछ पता नहीं
अयोध्या की खुदी हुई जमीन हूँ
दिल्ली के उजड़े हुए सिख की विधवा हूँ
श्रीनगर का डोलता शिकारा हूँ या
किसी गाँव कस्बे महानगर का घिघियाता हुआ नागरिक हूँ
निश्चित कुछ पता नहीं
वक्त बेवक्त दिखते हैं बचपन में देखे लोग
उनके घरबार बातचीत करने के उनके अँदाज
उमग कर उनकी तरफ बढ़ता हूँ
बीच में अट जाता है दुनिया भर का सामान
अजीब बीमारी है
फोकस में सामान आता है तो लोग धब्बों में बदल जाते हैं
धब्बा-धब्बा आसमान
इनफिनिटी तक ले जाना पड़ता है नजर का फोकस
तब कहीं जाकर उभरते हैं धब्बों में से चेहरे
बीच में खड़ा रहता है गाढ़ी धुँध का पर्दा
सामान बहुत आ गया इधर
नजर का कैमरा रहा स्थिर फोटोग्राफी वाला
दिखते हैं दृश्य दृश्यों में लोग लोगों पर चेहरे
सुनाई नहीं पड़ती कोई चीख न किल्लोल
निकलती नहीं कोई आवाज
छाती से बलगम की घड़घड़ाहट तक नहीं
कैसे जकड़ लिया इस बीमारी ने
अंगुली भर उठाई जाए शटर दबाने को
सामने वाला भैतिकी से परे जा छिपता है
दिखता हुआ
पराभूत करता हुआ।
(1986)