User:रेणु/अभ्यास1

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मनुष्य के प्राण निकल जाने पर मृत शरीर को अग्नि में समर्पित कर अंत्येष्टि-संस्कार करने का विधान हमारे ऋषियों ने इसलिए बनाया, ताकि सभी स्वजन, संबधी, मित्र, परिचित अपनी विदाई देने आएं और इससे उन्हें जीवन का उद्देश्य समझने का मौक़ा मिले, साथ ही यह भी अनुभव हो कि भविष्य में उन्हें भी शरीर छोड़ना है।[1] हिन्दू धर्म में मृतक को जलाने की परंपरा है, जबकि अन्य धर्मों में प्रायः ज़मीन में गाड‌ने की। जलाने की परंपरा वैज्ञानिक है। शव को जला देने पर मात्र राख बचती है, शेष अंश जलकर समाप्त हो जाते हैं। राख को नदी आदि में प्रवाहित कर दिया जाता है। इससे प्रदूषण नहीं फैलता, जबकि शव को ज़मीन में गाड़ने से पृथ्वी में प्रदूषण फैलता है, दुर्गन्ध फैलती है तथा भूमि अनावश्यक रुप से फंसी रहती है। चूडा‌मण्युपनिषद् में कहा गया है की ब्रह्म से स्वयं प्रकाशरुप आत्मा की उत्पत्ति हुई। आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इन पाँच तत्त्वों से मिलकर ही मनुष्य शरीर की रचना हुई है। हिन्दू अंत्येष्टि-संस्कार में मृत शरीर को अग्नि में समर्पित करके आकाश, वायु, जल, अग्नि और मिट्टी इन्हीं पंचतत्त्वों में पुनः मिला दिया जाता है।

मृतक देह को जलाने यानी शवदाय करने के सबंध में अथर्ववेद में लिखा है -

इमौ युनिज्मि ते वहनी असुनीताय वोढवे।
ताभ्यां यमस्य सादनं समितीश्चाव गाच्छ्तात्।।[1]

अर्थात है जीव! तेरे प्राणविहिन मृतदेह को सदगाति के लिए मैं इन दो अग्नियों को संयुक्त करता हूं। अर्थात तेरी मृतक देह में लगाता हूँ। इन दोनों अग्नियों के द्धारा तू सर्वनियंता यम परमात्मा के समीप परलोक को श्रेष्ठ गातियों के साथ प्राप्त हो।

आ रभस्व जातवेदस्तेजस्वदधरो अस्तु ते।
शरीरमस्य सं दहाथैनं धेहि सुकृतामु लोके।।[1]

अर्थात हे अग्नि! इस शव को तू प्राप्त हो। इसे अपनी शरण में ले। तेरा सामर्थ्य तेजयुक्त होवे। इस शव को तू जला दे और है अग्निरुप प्रभो, इस जीवात्मा को तू सुकृतलोक में धारण करा।

वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम् ।
ओद्दम् क्रतो स्मर। क्लिवे स्मर। कृतं स्मर।।[1]

अर्थात हे कर्मशील जीव, तू शरीर छूटते समय परमात्मा के श्रेष्ठ और मुख्य नाम ओम् का स्मरण कर। प्रभु को याद कर। किए हुए अपने कर्मों को याद कर। शरीर में आने जाने वाली वायु अमृत है, परंतु यह भौतिक शरीर भस्मपर्यन्त है। भस्मांत होने वाला है। यह शव भस्म करने योग्य है।

कपाल-क्रिया

हिंदुओं में यह मान्यता भी है की मृत्यु के बाद भी आत्मा शरीर के प्रति वासना बने रहने के कारण अपने स्थूलशरीर के आस-पास मंडराती रहती है, इसलिए उसे अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है, ताकि उनके बीच कोई संबध न रहे।[1] अंत्येष्टि-संस्कार में कपाल-क्रिया क्यों की जाती है, उसका उल्लेख गरुड़पुराण में मिलता है। जब शवदाह के समय मृतक की खोपडी को घी की आहुति सात बार देकर डंडे से तीन बार प्रहार करके फोड़ा जाता है, तो उस समय प्रक्रिया को कपालक्रिया के नाम से जाना जाता है। चूंकि खोपडी की हड्डी इतनी मज़बूत होती है कि उसे आग से भस्म होने में भी समय लगता है। वह टूटकर मस्तिष्क में स्थित ब्रह्मरंध्र पंचतत्त्व में पूर्ण रुप से विलीन हो जाएं, इसलिए उसे तोड़ना जरुरी होता है। इसके अलावा अलग-अलग मान्यताएं भी प्रचलित है। मसलन कपाल का भेदन होने पर प्राण पूरी तरह स्वतंत्र होते है और नए जन्म की प्रक्रिया में आगे बढते हैं। दूसरी मान्यता यह है की खोपड़ी को फोड़कर मस्तिष्क को इसलिए जलाया जाता है। ताकि वह अधजला न रह जाए अन्यथा अगले जन्म में वह अविकसित रह जाता है। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में विभिन्न देवताओं का वास होने की मान्यता का विवरण श्राद्धचंद्रिका में मिलता है। चूँकि सिर में ब्रह्मा का वास माना जाता है इसलिए शरीर को पूर्णरुप से मुक्ति प्रदान करने के लिए कपालक्रिया द्धारा खोपड़ी को फोड़ा जाता है। पुत्र के द्वारा पिता को अग्नि देना व कपालक्रिया इसलिए करवाई जाती है ताकि उसे इस बात का एहसास हो जाए कि उसके पिता अब इस दुनिया में नहीं रहे और घर-परिवार का संपूर्ण भार उसे ही वहन करना है।[1]

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$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ आश्वलायनगृह्यसूत्र (4।1 एवं 2) ने आहिताग्नि की मृत्यु से सम्बन्धित सामान्य कृत्यों का वर्णन किया है, किन्तु आश्वलायनश्रौतसूत्र (जिसका ऊपर वर्णन किया गया है) ने उस आहिताग्नि की अन्त्येष्टि का वर्णन किया है, जो सोमयज्ञ या अन्य यज्ञों में लगे रहते समय मर जाता है। आश्वलायनगृह्यसूत्र का कहना है-"जब आहिताग्नि मर जाता है तो किसी को (पुत्र या कोई अन्य सम्बन्धी को) चाहिए कि वह दक्षिण-पूर्व या दक्षिण-पश्चिम में ऐसे स्थान पर भूमि-खण्ड खुदवाये, जो दक्षिण या दक्षिण-पूर्व की ओर ढालू हो, या कुछ लोगों के मत से वह भूमि-खण्ड दक्षिण-पश्चिम की ओर ढालू हो सकता है। गड्डा एक उठे हुए हाथों वाले पुरुष की लम्बाई का, एक व्यास (पूरी बाँह तक लम्बाई) के बराबर चौड़ा एवं एक वितस्ति (बारह अंगुल) गहरा होना चाहिए। श्मशान चतुर्दिक खुला रहना चाहिए। इसमें जड़ी-बूटियों का समूह होना चाहिए, किन्तु कँटीले एवं दुग्धयुक्त पौधे निकाल बाहर कर देने चाहिए (देखिए आश्वलायनगृह्यसूत्र 2।7।5, वास्तु-परीक्षा)। उस स्थान से पानी चारों ओर जाता हो, अर्थात् श्मशान कुछ ऊँची भूमि पर होना चाहिए। यह सब उस श्मशान के लिए है, जहाँ पर शव जलाया जाता है। उन्हें शव के सिर के केश एवं नख काट देने चाहिए (देखिए आश्वलायनगृह्यसूत्र 6।10।2) यज्ञिय घास एवं घृत का प्रबन्ध करना चाहिए। इसमें (अन्त्येष्टि क्रिया में) वे घृत को दही में डालते हैं। यही पृषदाज्य है, जो पितरों के कृत्यों में प्रयुक्त होता है। (मृत के सम्बन्धी) उसकी पूताग्नियों एवं उसके पवित्र पात्रों को उस दिशा में जहाँ चिता के लिए गड्डा खोदा गया है, ले जाते हैं। इसके उपरान्त संख्या में बूढ़े (पुरुष और स्त्रियाँ साथ नहीं चलतीं) लोग शव को ढोते हैं। कुछ लोगों का कथन है कि शव बैलगाड़ी में ढोया जाता है। कुछ लोगों ने व्यवस्था दी है कि (श्मशान में) एक रंग की काली गाय या बकरी ले जानी चाहिए। (मृत के सम्बन्धी) बायें पैर में (एक रस्सी) बाँधते हैं और उसे शव के पीछे-पीछे लेकर चलते हैं। उसके उपरान्त (मृत के) अन्य सम्बन्धी यज्ञोपवीत नीचा करके (शरीर के चारों ओर करके) एवं शिखा खोलकर चलते हैं; वृद्ध लोग आगे-आगे और छोटी अवस्था वाले पीछे-पीछे चलते हैं। श्मशान के पास पहुँच जाने पर अन्त्येष्टि क्रिया करने वाला अपने शरीर के वामांग को उसकी ओर करके चिता-स्थल की तीर बार परिक्रमा करते हुए उस पर शमी की टहनी से जल छिड़कता है और 'अपेत वीता वि च सर्पतात:' (ऋग्वेद 10।14।9) का पाठ करता है। (श्मशान के) दक्षिण-पूर्व कुछ उठे हुए एक कोण पर वह (पुत्र या कोई अन्य व्यक्ति) आहवनीय अग्नि, उत्तर-पश्चिम दिशा में गार्हपत्य अग्नि और दक्षिण-पश्चिम में दक्षिण अग्नि रखता है। इसके उपरान्त चिता-निर्माण में कोई निपुण व्यक्ति चितास्थल पर चिता के लिए लकड़ियाँ एकत्र करता है। तब कृत्यों को सम्पादित करने वाला लकड़ी के ढूह पर (कुश) बिछाता है और उस पर कृष्ण हरिण का चर्म, जिसका केश वाला भाग ऊपर रहता है, रखता है और सम्बन्धी लोग गार्हपत्य अग्नि के उत्तर से और आहवनीय अग्नि की ओर सिर करके शव को चिता पर रखते हैं। वे तीन उच्च वर्णों में किसी भी एक वर्ण की मृत व्यक्ति की पत्नी को शव के उत्तर चिता पर सो जाने को कहते हैं और यदि मृत क्षत्रिय रहता है तो उसका धनुष उत्तर में रख दिया जाता है। देवर, पति का कोई प्रतिनिधि या कोई शिष्य या पुराना नौकर या दास 'उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकम्' (ऋग्वेद 10।18।8) मन्त्र के साथ-साथ उस स्त्री को उठ जाने को कहता है।[2] यदि शूद्र उठने को कहता है तो मन्त्रपाठ अन्त्येष्टि-क्रिया करने वाली ही करता है, और 'धनुर्हस्तादाददानो' (ऋग्वेद 10।18।9) के साथ धनुष उठा लेता है। प्रत्यंचा को तानकर (चिता बनाने के पूर्व, जिसका वर्णन नीचे होगा) उसे टुकड़े-टुकड़े करके लकड़ियों के समूह पर फेंक देता है।[3] इसके उपरान्त उसे शव पर निम्नलिखित यज्ञिय वस्तुएँ रखनी चाहिए; दाहिने हाथ में जुहू नामक चमस, बायें हाथ में उपभृत चमस, दाहिनी ओर स्फय (काठ की तलवार), बायीं ओर अग्निहोत्रहवणी (वह दर्वी या चमस जिससे अग्नि में हवि डाली जाती है), छाती, सिर, दाँतों पर क्रम से स्रुव (बड़ी यज्ञिय दर्वी), पात्र (या कपाल अर्थात् गोल पात्र) एवं रस निकालने वाले प्रस्तर खण्ड (पत्थर के वे टुकड़े जिनसे सोमरस निकाला जाता है), दोनों नासिकारंध्रों पर दो छोटे-छोटे स्रुव, कानों पर दो प्राशित्र-हरण[4] (यदि एक ही हो तो दो टुकड़े करके), पेट पर पात्री (जिसमें हवि देने के पूर्व हव्य एकत्र किये जाते हैं) एवं चमस (जिसमें इडा भाग काटकर रखा जाता है), गुप्तांगों पर शम्या, जाँघों पर दो अरणियाँ (जिनके घर्षण से अग्नि प्रज्वलित की जाती है), पैरों पर उखल (ओखली) एवं मुसल (मूसल), पाँवों पर शूर्प (सूप) या यदि एक ही हो तो दो भागों में करके। वे वस्तुएँ जिनमें गड्ढे होते हैं (अर्थात् जिनमें तरल पदार्थ रखे जा सकते हैं), उनमें पृषदाज्य (घृत एवं दही का मिश्रण) भर दिया जाता है। मृत के पुत्र को स्वयं चक्की के ऊपरी एवं निचले पाट ग्रहण करने चाहिए, उसे वे वस्तुएँ भी ग्रहण करनी चाहिए, जो ताम्र, लोहे या मिट्टी की बनी होती हैं। किस वस्तु को कहाँ रखा जाए, इस विषय में मतैक्य नहीं है। जैमिनि (11।3।34) का कथन है कि यजमान के साथ उसकी यज्ञिय वस्तुएँ (वे उपकरण या वस्तुएँ, जो यज्ञ सम्पादन के काम आती हैं) जला दी जाती हैं और उसे प्रतिपत्ति कर्म नामक प्रमेय (सिद्धान्त) की संज्ञा दी जाती है अर्थात् इसे यज्ञपात्रों का प्रतिपत्तिकर्म कहा जाता है।


परवीन बाबी एक भारतीय अभिनेत्री हैं। परवीन बाबी ग्लैमरस भूमिकाओं के लिए जानी जाती थी। 1970-80 के दशक में सिल्वर स्क्रीन पर अपनी सुन्दरता का जलवा बिखरने वाली परवीन बाबी की ज़्यादातर फ़िल्में सुपर हिट रहीं।

जन्म और शिक्षा

परवीन बाबी का जन्म 4 अप्रैल 1949 को जूनागढ़, गुजरात में हुआ था। परवीन अपने माता-पिता की शादी के चौदह साल बाद पैदा हुई थीं और उन्होंने अपने पिता को सात साल की उम्र में खो दिया था। परवीन बाबी ने औरंगाबाद में अपनी प्रारम्भिक स्कूली शिक्षा की उसके बाद सेंट जेवियर्स कॉलेज, अहमदाबाद से अपना कॉलेज किया। उनके पिता वली मोहम्मद बाबी, जूनागढ़ के नवाब के साथ प्रशासक थे।

करियर

1972 में परवीन के मॉडलिंग करियर की शुरुआत हुई

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 1.5 अंत्येष्टि-संस्कार (हिन्दी) (ए.एस.पी) पूजा विधि। अभिगमन तिथि: 17 फ़रवरी, 2011।
  2. बहुत-से सूत्र पत्नि को शव के उत्तर में चिता पर सो जाने और पुन: उठ जाने की बात कहते हैं। देखिए कौशिकसूत्र (80।40-45) 'इयं नारीति पत्नीमुपसंवेशयति। उदीर्ष्वेत्युत्थापयति।' ये दोनों मन्त्र अथर्ववेद (18।3।1-2) के हैं। सत्याषाढश्रौतसूत्र (28।2।14-16) का कथन है कि शव को चिता पर रखने के पूर्व पत्नी 'इयं नारी' उच्चारण के साथ उसके पास बुलायी जाती है और उसके उपरान्त देवर या कोई ब्राह्मण 'उदीर्ष्व नारी' के साथ उसे उठाता है। वही सूत्र (28।2।22) यह भी कहता है कि शव को चिता पर रखे जाने पर या उसके पूर्व पत्नी को उसके पास सुलाना चाहिए।
  3. यहाँ पर शतपथ ब्राह्मण (12।5।2।6) एवं कुछ सूत्र (यथा-कात्यायनश्रौतसूत्र 25।7।19; शांखायनश्रौतसूत्र 4।14।16-35; सत्याषाढश्रौतसूत्र 24।2।23-50; कौशिकसूत्र 81।1-19; बौधायनपितृमेधसूत्र 1।8-9) तथा गोभिल (3।34) जैसी कुछ स्मृतियाँ इतना और जोड़ देती हैं कि सात मार्मिक वायु-स्थानों, यथा मुख, दोनों नासारंध्रों, दोनों आंखों एवं दोनों कर्णों पर वे सोने के टुकड़े रखते हैं। कुछ लोगों ने यह भी कहा है कि घृत मिश्रित तिल भी शव पर छिड़के जाते हैं। गौतमपितृमेधसूत्र (2।7।12) का कथन है कि अध्वर्य मृत शरीर के सिर पर कपालों (गोल पात्रों) को रखता है।
  4. प्राशित्रहरण वह पात्र है, जिसमें ब्रह्मा पुरोहित के लिए पुरोडाश का एक भाग रखा जाता है। शम्या हल के जुए की काँटी को कहा जाता है।