Revision as of 16:15, 27 May 2013 by तनवीर क़ाज़ी(talk | contribs)('{| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |चित्र= Virendra khare-...' के साथ नया पन्ना बनाया)
अगणित तलवारों पर अकेला ही भारी हूँ
भाषा का योद्धा मैं क़लम-शस्त्रधारी हूँ
ये मत समझे कोई शब्दों का छल हूँ मैं
जीवन के कड़वे अध्यायों का हल हूँ मैं
निर्बल-असहायों का गहराता बल हूँ मैं
मानस को निर्मल करने वाला जल हूँ मैं
सूर और तुलसी हैं मेरे संबंधीजन
वाल्मीकि-वंशज, कबिरा का अवतारी हूँ
अगणित तलवारों पर...
दिग्भ्रमित समाजों के सारे भ्रम तोड़ूँगा
एक भी विसंगति को जीवित कब छोड़ूँगा
न्यायों के छिन्न-भिन्न सूत्रों को जोड़ूँगा
शोषण का बूँद-बूँद रक्त मैं निचोड़ूँगा
शुभ कृत्यों पर हावी होते दुष्कृत्यों को
शब्दों से रोकूँगा, करता तैयारी हूँ
अगणित तलवारों पर...
ज़हरीले आकर्षण नयनों में पलते हैं
देखूँगा ये कैसे मानव को छलते हैं
सूर्य सभ्यताओं के उगते और ढलते हैं
मेरे संकेतों पर युग रूकते-चलते हैं
मानवता की रक्षा-हित निर्मित दुर्गों का
मैं भी इस छोटा-सा कर्मठ प्रतिहारी हूँ
अगणित तलवारों पर...
लक्ष्य तो कठिन है पर जैसे हो पाना है
भटकी इस जगती को रस्ते पर लाना है
रावणों के मानस को राममय बनाना है
एक नई रामायण फिर मुझको गाना है
माँ सरस्वती मुझ पर भी कृपा किए रहना
आपकी चरण-रज का मैं भी अधिकारी हूँ
अगणित तलवारों पर...
दुख के अँधियारों में मैंने काटा जीवन
लगता है मुट्ठी, दो मुट्ठी आटा जीवन
देने का तत्पर है प्रतिपल घाटा जीवन
जैसा है सबकी सेवा हित बाँटा जीवन
संघर्षों की दुर्गम घाटियाँ नियति में हैं
हार नहीं मानूँगा, धैर्य का पुजारी हूँ
अगणित तलवारों पर...