Difference between revisions of "महाकालेश्वर"

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'''श्री महाकालेश्वर / Shri Mahakaleshwar'''<br />
 
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श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग [[मध्य प्रदेश]] के उज्जैन जनपद में अवस्थित है। उज्जैन का [[पुराण|पुराणों]] और प्राचीन अन्य ग्रन्थों में 'उज्जयिनी' तथा 'अवन्तिकापुरी' के नाम से उल्लेख किया गया है। यह स्थान [[मालवा]] क्षेत्र में स्थित [[क्षिप्रा नदी]] के किनारे विद्यमान है। अवन्तीपुरी की गणना सात मोक्षदायिनी पुरियों में की गई है-
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श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग [[मध्य प्रदेश]] के [[उज्जैन]] जनपद में अवस्थित है। उज्जैन का [[पुराण|पुराणों]] और प्राचीन अन्य ग्रन्थों में 'उज्जयिनी' तथा 'अवन्तिकापुरी' के नाम से उल्लेख किया गया है। यह स्थान [[मालवा]] क्षेत्र में स्थित [[क्षिप्रा नदी]] के किनारे विद्यमान है। अवन्तीपुरी की गणना सात मोक्षदायिनी पुरियों में की गई है-
 
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अयोध्या मथुरा माया काशी कांची ह्यवन्तिका।
 
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची ह्यवन्तिका।
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महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने से स्वप्न में भी किसी प्रकार का दुःख अथवा संकट नहीं आता है। जो कोई भी मनुष्य सच्चे मन से महाकालेश्वर लिंग की उपसना करता है, उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वह परलोक में मोक्षपद को प्राप्त करता है-  
 
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने से स्वप्न में भी किसी प्रकार का दुःख अथवा संकट नहीं आता है। जो कोई भी मनुष्य सच्चे मन से महाकालेश्वर लिंग की उपसना करता है, उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वह परलोक में मोक्षपद को प्राप्त करता है-  
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महाकालेश्वरो  नाम  शिवः  ख्यातश्च  भूतले।
 
महाकालेश्वरो  नाम  शिवः  ख्यातश्च  भूतले।
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तं दुष्ट्वा न भवेत् स्वप्ने किंचिददुःखमपि द्विजाः।।
 
तं दुष्ट्वा न भवेत् स्वप्ने किंचिददुःखमपि द्विजाः।।
 
यं  यं  काममपेदयैव  तल्लिगं  भजते  तु  यः ।
 
यं  यं  काममपेदयैव  तल्लिगं  भजते  तु  यः ।
तं  तं  काममवाप्नेति  लभेन्मोक्षं  परत्र  च।।</poem>
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तं  तं  काममवाप्नेति  लभेन्मोक्षं  परत्र  <balloon title="शिवमहापुराण कोटिरूद्रसहिंता 16/50-51" style=color:blue>*</balloon>।।
(शिवमहापुराण कोटिरूद्रसहिंता 16/50-51) करते हुए शिवमहापुरण में एक कथानक इस प्रकार भी दिया गया है-
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उज्जनीय नगरी में महान् शिवभक्त तथा जितेन्द्रिय चन्द्रसेन नामक एक राजा थे। उन्होंने शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन कर उनके रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया था। उनके सदाचरण से प्रभावित होकर शिवजी के पार्षदों (गणों) में अग्रणी (मुख्य) मणिभद्र जी राजा  चन्द्रसेन के मित्र बन गये। मणिभद्र जी ने एक बार राजा पर अतिशय प्रसन्न होकर राजा चन्द्रसेन को चिन्तामणि नामक एक महामणि प्रदान की। वह महामणि कौस्तुभमणि और सूर्य के समान देदीप्यमान (चमकदार) थी। वह महामणि देखने, सुनने तथा ध्यान करने पर भी, वह मनुष्यों को निश्चित ही मंगल प्रदान करती थी।
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राजा चनद्रसेन के गले में अमूल्य चिन्तामणि शोभा पर रही है, यह जानकार सभीा राजाओं में उस मणि के प्रति लोभ बढ़ गया। चिन्तामणि के लोभ से सभी राजा क्षुभित होने लगे। उन राजाओं ने अपनी चतुरंगिणी सेना तैयार की और उस चिन्तामणि के लोभ में वहाँ आ धमके। चन्द्रसेन के विरूद्ध वे सभी राजा एक साथ मिलकर एकत्रित हुए थे और उनके साथ भारी सैन्यबल भी था। उन सभी राजाओं ने आपस में परामर्श करके रणनीति तैयार की और राजा चन्द्रसेन पर आक्रमण कर दियां सैनिकों सहित उन राजाओं ने चारों ओर से उज्जयिनी के चारों द्वारों को घेर लिया। अपनी पुरी को चारों ओर से सैनिको द्वारा घिरी हुई देखकर राजा चन्द्रसेन महाकालेश्वर भगवान् शिव की शरण में पहूँच गये। वे निश्छल मन से दृढ़ निशृचय के सथ उपवास-व्रत लेकर भगवान् महाकाल की आराधना में जुट गये।
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[[Category:भारत_के_पर्यटन_स्थल]]
उन दिनों उज्जयिनी में एक विधवा ग्वालिन रहती थी,  जिसको इकलौता पुत्र थां। वह इस नगरी में बहुत दिनों से रहती थी। वह अपने उस पाँच वर्ष के बालक को लेकर महाकालेश्वर का दर्शन करने हेतू गई। उसने देखा कि राजा चन्द्रसेन वहाँ बड़ी श्रद्धाभक्ति से महाकाल की पूजा कर रहे हैं। राजा के शिवपूजन का महोत्सव उसे बहुत ही आश्चर्यमय लगा। उसने पूजन को निहारते हुए भक्तिभावपूर्वक महाकाल को प्रणाम किया और अपने निवासस्थान पर लौट गयी। उस ग्वालिन माता के साथ उसके बालक ने भी महाकाल की पूजा का कौतूहलपूर्वक अवलोकन किया था। इसलिए घर वापस आकर उसने भी शिवजी का पूजन करने का विचार किया। वह एक सुन्दर-सा पत्थर ढूँढ़कर लाया ओर अपने निवास से कुछ ही दूरी पर किसी अन्य के निवास के पास एकान्त मं रख दिया।
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[[Category:मध्य_प्रदेश]]
उसने अपने मन में निश्चय करके उस पत्थर का ही शिवलिंग मान लिया। वह शुद्ध मने से भक्तिभावपूर्वक मानसकिरूप से गन्ध, धूप, दीप, नैवेद्य और अलंकार आदि जुटाकर, उनसे उस शिवलिंग की पूजा की। वह सुन्दर-सुन्दर पत्तों तथा फूलों को बार-बार सम्पूर्ण पूजन पूरा करने के बाद उस बालक ने बार-बार भगवान् के चरणों में मस्तक लगाया। बालक का चित्त भगवान् के चरणों में आसक्त था और वह विह्वल होकर उनको दण्डवत् कर रहा था। उसी समय ग्वालिन ने भोजन के लिए अपने पुत्र को प्रेम से बुलाया। उधर उस बालक का मन शिवजी की पूजा में रमा हुआ था, जिसके कारण वह बाहरसे ब्रसुध था। माता द्वारा बार-बार बुलाने पर भी बालक को भोजन करने की इच्छा नहीं हुई और वह भोजन करने नहीं गया तब उसकी माँ स्वयं उठकर वहाग आ गयी।
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[[Category:मध्य_प्रदेश_के_धार्मिक_स्थल]]
माँ ने देखा कि उसका बालक एक पत्थर के सामने आँखें बन्द करके खींचने लगी। हाथ पकड़कर बार-बार खींचने पर भी वह बालक वहाँ से नहीं उठा, जिससे उसकी माँ को क्रोध आया और उसने उसे खूब पीटा। इस प्रकार खींचने और मारने-पीटने पर भी जब वह बालक वहाँ से नहीं हटा, तो माँ ने उस पत्थर को उठाकर दूर फेंक दिया। बालक द्वारा उस शिवलिंग पर चढ़ाई गई सामग्री को भी उसने नष्ट कर दिया। शिवजी का अनादर देखकर बालक ‘हाय-हाय’ करके रो पड़ा। क्रोध में आगबबूला हुई वह ग्वालिन अपने बेटे को डाँट-फटकार करके पुनः अपने घर में चली गई। जब उस बालक ने देखा कि भगवान् शिवजी की पूजा को उसकी माता ने नष्ट कर दिया, तब वह बिलख-बिलख कर रोने लगा। देव! देव! महादेव! ऐसा पुकरता हुआ वह सहसा बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। कुछ देर बाद जब उसे चेतना आयी, तो उसने अपनी बन्द आँखें खोल दीं।
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[[Category:मध्य_प्रदेश_के_पर्यटन_स्थल]]
उस बालक ने आँखें खोलने के बाद जो दृश्य देखा, उससे वह आश्चर्य मे पड़ गया। भगवान् शिव की कृपा से उस स्थान पर महाकाल का दिव्यमन्दिर खड़ा हो गया था। मणियों के चमकीले खम्बे उस मन्दिर की शोभा बढा रहे थे। वहाँ के भूतल स्फटिक मणि जड़ दी गयी थी। तपाये गये दमकते हुए स्वर्ण-शिखर उस शिवालय को सुशोभित कर रहे थे। उस मन्दिर के विशालद्वार, मुख्यद्वार तथा उनके कपाट सुवर्णनिर्मित थे। उस मन्दिर के सामने नीलमणि तथा हीरे जड़े बहुत से चबूतरे बने थे। उस भव्य शिवालय के भीतर मध्य भाग में (गर्भगृह) करूणावरूणालय, भूतभावन, भोलानाथ भगवान् शिव का रत्नमय लिंग प्रतिष्ठित हुआ था।
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[[Category:धार्मिक_स्थल_कोश]]
ग्वालिन के उस बालक ने शिवलिंग को बड़े ध्यानपूर्वक देखौ उसके द्वारा चढ़ाई गई सभभ् पूजन-सामग्री उस शिवलिंग पर सुसज्जित पड़ी हुई थी। उस शिवलिंग को तथा उसपर उसके ही द्वारा चढ़ाई पूजन-सामग्री को देखते-देखते वह बालक उठ खड़ा हुआ। उसे मन ही मन आश्चर्य तो बहुत हुआ, किन्तु वह परमान्द सागर में गोते लगाने लगा थाथ् उसके बाद तो उसने शिवजी की ढेर-सारी स्तुतियाँ कीं और बार-बार अपने मस्तक को उनके चरणों में लगाया। उसके जब शाम हो गयी, तो सूर्यास्त होने पर वह बालक शिवालय से नकिल कर बाहर आया और अपने निवासस्थल को दंखने लगा। उसका निवास देवताओं के राजा इन्द्र के समान शोभा पा रहा था। वहाँ  सब कुछ शीघ्र ही सुवर्णमय हो गया था, जिससे वहाँ की विचित्र शोभा हो गई थी। परम उज्ज्वल वैभव से सर्वत्र प्रकाश हो रहा था। वह बालक सब प्रकार की शोभाओं से सम्पन् उस घर के भीतर प्रविष्ठ हुआ। उसने देखा कि एसकी माता एक मनोहर पलंग पर सो रही हैं। उसके अंगों में बहुमूल्य रत्नों के अलंकार शोभा पा रहे हैं। आश्चर्य और प्रेम में विहृल उस बालक ने अपनी माता को बड़े जोर से उठाया। उसकी माता भी भगवान शिव की कृपा प्राप्त कर चुकी थी। जब उस ग्वालिन ने उठकर द्रखा, तो उसे सब कुछ अपूर्व ‘विलक्षण) सा देखने को मिला। आनन्द का ठिकाना न रहा। उसने भावविभोर होकर अपने पुत्र को ठाती से लगा लिया। अपने बेटे के भूतेश शिव के कृपाप्रसाद का सम्पूर्ण व्रणन सुनकर उस ग्वालिन ने राजा चन्द्रसेन को सूचित किया। निरन्तर भगवान् शिव के भजन-पूजन में लगे रहने वाले राजा चन्द्रसेन अपना नित्य-नियम पूरा कर रात्रि के समय पहुँचे। उन्होंने भगवान् शंकर को सन्तुष्ट करने वाले ग्वालिन के पुत्र का वह प्रभाव देखा। उज्जयिनि को चारों ओर से घेर कर युद्ध के लिए खड़े उन राजाओं ने भी गुप्तचरो के मुख से प्रात:काल उस अद्भुत वृत्तान्त को सुना। इस विलक्षण घटना को सुनकर सभी नरेश आशचर्यचकित हो उठे। उन राजाओं ने आपस में मिलकर पुन: विचार-विमर्श किया। परस्पर बातचीत में उन्होने कहा कि राजा चन्द्रसेन महान् शिवभक्त है, इसलिए इनपर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। ये सभी प्रकार से निर्भय होकर महाकाल की नगरी उज्जयिनि का पालन-पोषण करते हैं। जब इस नगरी का एक छोटा बालक भी ऐसा शिवभक्त है, तो राजा चन्द्रसेन का महान् शिवभक्त होना स्वाभाविक ही है। ऐसे राजा के साथ विरोध करने पर निशचय ही भगवान् शिव क्रोधित हो जाएँगे। शिव के क्रोध करने पर तो हम सभी नष्ट ही हो जाएँगे। इसलिए हमें इस रनेशा से दुशमनी न करके मेल-मिलाप ही कर लेना चाहिए, जिससे भगवान् महेशवर की कृपा हमें भी प्राप्त होगी-
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__INDEX__
ईदृशाशिशशवो यस्य पुयर्या सन्ति शिवव्रता:।
 
स राजा चन्द्रसेनस्तु महाशंकरसेवक:।।
 
नूनमस्य विरोधेन शिव: क्रोधं करिष्यति।
 
तत्क्रोधाद्धि वयं सर्वे भविष्यामो विनष्टका:।।
 
तस्मादनेन राज्ञा वै मिलाय: कार्य एव हि।
 
एवं सति महेशान: करिष्यति कृपा पराम्।।
 
युद्ध के लिए उतज्जयिनि को घेरे उन राजाओं का मन भगवान् शिव के प्रभाव से निर्मल हो गया और शुद्ध हृदय से सभी ने हथियार डाल दिये। उनके मन से राजा चन्दसेन के प्रति वैरभाव निकल गया और महाकालेशवर पूजन किया। उसी समय परम तेजस्वी श्री हनुमान् वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने गोप-बालक को अपने हृदय से लगाया और राजाओं की ओर देखते हुए कहा- ‘राजाओं! तुम सब लोग तथा अन्य देहधारीगण भी ध्यानपूर्वक हमारी बातें सुनें। मैं। जो बात कहूँगा उससे तुम सब लोगों का कल्याण होगा। उन्होंने बताया कि ‘शरीरधारियों के लिए भगवान् शिव से बढ़कर अन्य कोई गति नहीं है अर्थात महेशवर की कृपा-प्राप्ति ही मोक्ष का सबसे उत्तम साधन है। यह परम सौभाग्य का विषय है कि इस गोपकुमार ने शिवलिंग का दर्शन किया और उससे प्रेरणा लेकर स्वयम् शिव की पूजा में प्रवृत्त हुआ। यह बालक किसी भी प्रकार का लौकिक अथवा वैदकि मन्त्र नही जानता है, किन्तु इसने बिना मन्त्र का प्रयोग किये ही अपनी भक्ति निष्टा के द्वारा भगवान् शिव की आराधना की और उन्हें प्राप्त कर लिया। यह बालक अब गोपवंश की किति को बढ़ाने वाला तथा उत्तम शिवभक्त हो गया है। भगवान् शिव की कृपा से यह इस लोक के सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करेगा और अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर लेगा। इसी बालक के कुल में इससे आठवीं पीढ़ी में महायशस्वी नन्द उत्पन्न होंगे और उनके यहाँ ही साक्षात् नारायण का प्रादुर्भाव होगा। वे भगवान् नारायण ही नन्द के पुत्र के रूप में प्रकट होकर श्रीकृष्णा के नाम से जगत् में विख्यात होंगे। यह गोप बालक भी जिस पर कि भगवान् शिव की कृपा हुई है, ‘श्रीकर’ गोप के नाम से विशेष प्रसिद्धि प्राप्त करेगा।
 
  शिव के ही प्रतिनिधि वानरराज हनुमान् जी ने समस्त राजाओं सहित राजा चन्द्रसेन को अपनी कृपदृष्टि से देखा। उसके बाद अतीव प्रसन्नता के साथ उन्होंने गोपबालक श्रीकर को शिवजी की उपासना के सम्बन्ध में बताया।
 
  पूजा-अर्चना की जो विधि और आचार-व्यवहार भगवान् शंकर को विशेष प्रिय है, उसे भी श्री हनुमान् जी ने विस्तार से बताया। अपना कार्य पूरा करने के बाद वे समस्त भूपालों तथा राजा चन्द्रसेन से और गोपबालक श्रीकर से विदा लेकर वहीं पर तत्काल अर्न्तधान हो गये। राजा चन्द्रसेन की आज्ञा प्राप्त कर सभी नरेश भी अपनी राजधानियों को वापस हो गये।
 
  इस प्रकार ‘महाकाल’ नामक यह शिवलिंग शिवभक्तो का परम आश्रय है, जिसकी पूजा से भक्तवत्सल महेश्वर शीघ्र प्रसन्न होते हैं। ये भगवान् शिव दुष्टों के संहारक हैं, इसलिए इनका नाम ‘महाकाल’ है। ये काल अर्थात मृत्यु को भी जीतने वाले हैं, इसलिए इन्हे ‘महाकालेश्वर’ कहा जाता हैं। भगवान् शिव भयंकर ‘हुँकार’ के साथ प्रकट हुए थे, इसलिए भी इनका नाम ‘महाकल’ से प्रसिद्ध हुआ हैं।
 
  उज्जैन में स्थित महाकाल ज्योतिर्लिंग का भव्य मन्दिर पाँच मंजिल वाला है तथा क्षिप्रा नदी से कुछ दूर पर अवस्थित है। मन्दिर के ऊपरी भाग में श्री ओंकारेश्वर विद्यमान हैं। यातायात-व्यवस्था और सुरक्षा-सुविधा की दृष्टि से तीर्थयात्री द्रर्शनार्थियों को पंक्ति में होकर सरोवर के किनारे किनारे से ऊपर की मंजिल में जाना पड़ता है। वहाँ से संकरी गली की सीढ़ियाँ उतर कर मन्दिर के निचले सतह पर आना पड़ता है जहाँ भूतल पर महाकालेशवर का ज्योतिर्लिंग स्थापित है। यह शिवलिंग समतल भूमि से भी कुछ नीचे में है। यहाँ के रामघाट और कोटितीर्थ नामक कुण्डों में भी स्नान किया जाता है तथा पितरों का श्राद्ध भी विहित है अर्थात् यहाँ वितृश्राद्ध करने का भी विधान है। इन कुण्डों के पास ही अगस्त्येश्वर, कोढ़ीश्वर, केदारेश्वर तथा हरसिद्धिदेवी आदि के दर्शन करते हुए महाकालेश्वर के दर्शन हेतु जाया जाता हैं।
 
  महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की प्रात:कालकि पूजा में अनिवार्यरूप से सवा मन चिता की भस्म सम्मिलित की जाती है। चिता की भस्म से विभूषित महाकालेश्वर का दर्शन अत्यन्त् पुण्यदायी होता है।
 
  यहाँ यध्यरेलवे की भोपाल-उज्जैन और आगरा-उज्जैन रेलवे लाइनें हैं तथा पशचिमी रेलवे की नागदा-उजैन तथा फतेहाबाद-उजैन रेलमार्ग की व्यवस्था हैं।
 

Revision as of 11:45, 20 April 2010

shri mahakaleshvar / Shri Mahakaleshwar

shri mahakaleshvar jyotirliang madhy pradesh ke ujjain janapad mean avasthit hai. ujjain ka puranoan aur prachin any granthoan mean 'ujjayini' tatha 'avantikapuri' ke nam se ullekh kiya gaya hai. yah sthan malava kshetr mean sthit kshipra nadi ke kinare vidyaman hai. avantipuri ki ganana sat mokshadayini puriyoan mean ki gee hai-

ayodhya mathura maya kashi kaanchi hyavantika.
puri dvaravati chaiv saptaita mokshadayikaah..

maharaja vikramadity dvara nirman

isi mahakaleshvar ki nagari mean maharaja vikramadity ne chaubis khamboan ka darabar-mandap banavaya tha. mangal grah ka janmasthan mangalashver bhi yahian sthit hai. itihas prasiddh bhartrihari ki gupha tatha maharshi sandipani ka ashram yahian virajaman hai. shri krishnachandr aur balaram ji ne isi sandipani ashram mean vidya ka adhyayan kiya tha. isi ujjayini nagari mean param pratapi maharaj vir vikramadity ki rajadhani thi. jab sianh rashi par brihaspati grah ka agaman hota hai, to yahaan pratyek barah varsh par mahakumbh ka snan aur mela lagata hai.

shiv mahapuran]] mean varnit katha

samast dehadhariyoan ki moksh pradan karane vali ek prasiddh aur atyant avanti nam ki nagari hai. lok pavani param punyadayini aur kalyan-karini vah nagari bhagavan shiv ji ko atyant priy hai. usi pavitr puri mean shubh karmaparayan tatha sada vedoan ke svadhyay mean lage rahane vale ek uttam brahman raha karate the. ve apane ghar mean agni ki sthapana kar pratidin agnihotr karate the aur vaidik karmoan ke anushthan mean lage rahate the. bhagavan shankar ke bhakt ve brahman shiv ji ki archana-vandana mean tatpar raha karate the. ve pratidin parthiv liang ka nirman kar shastr vidhi se usaki pooja karate the. hamesha uttam jnan ko prapt karane mean tatpar us brahman devata ka nam ‘vedapriy’ tha. vedapriy svayan hi shiv ji ke anany bhakt the, jisake sanskar ke phalasvaroop unake shiv pooja-parayan hi char putr hue. ve tejasvi tatha mata-pita ke sadgagunoan ke anuroop the. un charoan putroan ke devapriy, priyamedha, sanskrit aur suvrit the.

un donoan ratnamal parvat par ‘dooshan’ nam vale dharm virodhi ek asur ne ved, dharm tatha dharmatmaoan par akraman kar diya. us asur ko brahmaji se ajeyata ka var mila thaan. sabako satane ke bad ant mean us asur ne bhari sena lekar avanti (ujjain) ke un pavitr aur karmanishth brahmanoan par bhi chadhaee kar di. us asur ki ajna se char bhayanak daity charoan dishaoan mean pralayakal ki ag ke saman prakat ho gaye. unake bhanyakar upadrav se bhi shiv ji mand vishvas karane vale ve brahmanabandhu bhayabhit nahian hue. avanti nagar ke nivasi sabhi brahman jab us sankat mean ghabarane lage, tab un charoan shivabhakt bhaiyoan ne unhean ashvasan dete hue kaha- ‘ap log bhaktoan ke hitakari bhagavan shiv par bharosa rakhean.’ usake bad ve charoan brahman-bandhu shiv ji ka poojan kar unake hi dhyan mean tallin ho gaye.

sena sahit dooshan dhyan magn un brahmano ke pas pahooanch gaya. un brahmanoan ko dekhate hi lalakarate hue bol utha ki inhean baandhakar mar dalo. vedapriy ke un brahman putroan ne us daity ke dvara kahi gee batoan par kan nahian diya aur bhagavan shiv ke dhyan mean magn rahe. jab us dusht daity ne yah samajh liya ki hamare daant-dapat se kuchh bhi parinam nikalane vala nahian hai, tab usane brahmanoan ko mar dalane ka nishchay kiya.

usane jyoanhi un shiv bhaktoan ke pran lene hetu shastr uthaya, tyoanhi unake dvara poojit us parthiv liang ki jagah gambhir aval ke sath ek gadadha prakat ho gaya aur tatkal us gaddhe se vikat aur bhayankar roopadhari bhagavan shiv prakat ho gaye. dushtoan ka vinash karane vale tatha sajjan purooshoan ke kalyanakartta ve bhagavan shiv hi mahakal ke roop mean is [[prithvi] par vikhyat hue. unhoanne daityoan se kaha- ‘are dushtoan! tujh jaise hatyaroan ke lie hi maian ‘mahakal’ prakat hua hooan. jaldi in brahmanoan ke samip se door bhag jaoan’

is prakar dhamakate hue mahakal bhagavan shiv ne apane huankar matr se hi un daityoan ko bhasm kar dala. dooshan ki kuchh sena ko bhi unhoanne mar giraya aur kuchh svayan hi bhag kh di huee. is prakar paramatma shiv ne dooshan namak daity ka vadh kar diya. jis prakar soory k nikalate hi andhakar chhant jata hai, usi prakar bhagavanh ashutosh shiv ko dekhate hi sabhi daity sainik palayan kar gaye. devataoan ne prasannatapoorvak apani dandubhiyaan bajayian aur akash se phooloan ki varsha ki. un shivabhakt brahmano par ati prasannh bhagavanh shankar ne unhean ashvast karate hue kaha ki ‘mai mahakal maheshvar tum logoan par prasann hooan, tum log var maango.’

mahakaleshvar ki vani sunakar bhakti bhav se poorn un brahmanoan ne hath jo dakar vinamratapoorvak kaha- 'dushtoan ko dand dene vale mahakal! shambho! ap ham sabako is sansar-sagar se mukt kar dean. he bhagavan shiv! ap am janata ke kalyan tatha unaki raksha karane ke lie yahian hamesha ke lie virajie. prabho! ap apane darshanarthi manushyoan ka sada uddhar karate rahean.’

bhagavan shankar ne un brahmanoan ko sadgagati pradan ki aur apane bhaktoan ki suraksha ke lie us gaddhe mean sthit ho gaye. us gaddhe ke charoan or ki lagabhag tin-tin kilomitar bhoomi liang roopi bhagavan shiv ki sthali ban gee. aise bhagavan shiv is prithvi par mahakaleshvar ke nam se prasiddh hue.

mahakaleshvar jyotirliang ka darshan karane se svapn mean bhi kisi prakar ka duahkh athava sankat nahian ata hai. jo koee bhi manushy sachche man se mahakaleshvar liang ki upasana karata hai, usaki sari manokamanaean poorn ho jati haian aur vah paralok mean mokshapad ko prapt karata hai-

mahakaleshvaro nam shivah khyatashch bhootale.
tan dushtva n bhaveth svapne kianchidaduahkhamapi dvijaah..
yan yan kamamapedayaiv talligan bhajate tu yah .
tan tan kamamavapneti labhenmokshan paratr ch<balloon title="shivamahapuran kotiroodrasahianta 16/50-51" style=color:blue>*</balloon>..