Difference between revisions of "दक्षिणा"

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[[यज्ञ]] करने वाले [[पुरोहित|पुरोहितों]] को दिये गये दान को (शुल्क) को दक्षिणा कहते हैं। ऐसे अवसरों पर '[[गाय]]' ही प्राय: शुल्क होती थी। दानस्तुति तथा [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] में इसका और भी विस्तार हुआ है, जैसे गाय, अश्व, भैंस, ऊँट [[आभूषण]] आदि। इसमें भूमि का समावेश नहीं है, क्योंकि भूमि पर सारे कुटुम्ब का अधिकार होता था और बिना सभी सदस्यों की अनुमति के इसका दान नहीं किया जा सकता था।
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[[यज्ञ]] करने वाले [[पुरोहित|पुरोहितों]] को दिये गये दान (शुल्क) को दक्षिणा कहते हैं। ऐसे अवसरों पर '[[गाय]]' ही प्राय: शुल्क होती थी। दानस्तुति तथा [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] में इसका और भी विस्तार हुआ है, जैसे गाय, अश्व, भैंस, ऊँट [[आभूषण]] आदि। इसमें भूमि का समावेश नहीं है, क्योंकि भूमि पर सारे कुटुम्ब का अधिकार होता था और बिना सभी सदस्यों की अनुमति के इसका दान नहीं किया जा सकता था।
  
अतएव भूमि अदेय समझी गयी। किंतु मध्य युग आते-आते भूमि भी राजा द्वारा दक्षिणा में दी जाने लगी। फिर भी इसका अर्थ था भूमि से राज्य को जो आय होती थी, उसका दान। प्रत्येक धार्मिक अथवा मांगलिक कृत्य के अंत में पुरोहित ऋत्विज् अथवा ब्राह्मणों को दक्षिणा देना आवश्यक समझा जाता है। इसके बिना शुभ कार्य का सुफल नहीं मिलता, ऐसा विश्वास है। ब्रह्मचर्य अथवा अध्ययन समाप्त होने पर शिष्य द्वारा आचार्य को दक्षिणा देने का विधान गृह्मसूत्रों में पाया जाता है।  
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अतएव भूमि अदेय समझी गयी। किंतु मध्य युग आते-आते भूमि भी राजा द्वारा दक्षिणा में दी जाने लगी। फिर भी इसका अर्थ था भूमि से राज्य को जो आय होती थी, उसका दान। प्रत्येक धार्मिक अथवा मांगलिक कृत्य के अंत में पुरोहित ऋत्विज अथवा ब्राह्मणों को दक्षिणा देना आवश्यक समझा जाता है। इसके बिना शुभ कार्य का सुफल नहीं मिलता, ऐसा विश्वास है। ब्रह्मचर्य अथवा अध्ययन समाप्त होने पर शिष्य द्वारा आचार्य को दक्षिणा देने का विधान गृह्मसूत्रों में पाया जाता है।  
 
==एकलव्य की दक्षिणा==
 
==एकलव्य की दक्षिणा==
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हिरण्यधनु नामक निषादराज का पुत्र [[एकलव्य]] धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से [[द्रोणाचार्य]] के आश्रम में आया किन्तु निम्न वर्ण का होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश होकर एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया।
 
एक दिन सारे राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। इससे क्रोधित हो कर एकलव्य ने उस कुत्ते पर अपना बाण चला-चला कर उसके मुँह को बाणों से से भर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी किन्तु बाणों से बिंध जाने के कारण उसका भौंकना बन्द हो गया।
 
एक दिन सारे राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। इससे क्रोधित हो कर एकलव्य ने उस कुत्ते पर अपना बाण चला-चला कर उसके मुँह को बाणों से से भर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी किन्तु बाणों से बिंध जाने के कारण उसका भौंकना बन्द हो गया।
  
कुत्ते के लौटने पर जब [[अर्जुन]] ने धनुर्विद्या के उस कौशल को देखा तो वे द्रोणाचार्य से बोले, "हे गुरुदेव! इस कुत्ते के मुँह में जिस कौशल से बाण चलाये गये हैं उससे तो प्रतीत होता है कि यहाँ पर कोई मुझसे भी बड़ा धनुर्धर रहता है।" अपने सभी शिष्यों को ले कर द्रोणाचार्य एकलव्य के पास पहुँचे और पूंछा, "हे वत्स! क्या ये बाण तुम्हीं ने चलाये हैं।?" एकलव्य के स्वीकार करने पर उन्होंने पुनः प्रश्न किया,'तुम्हें धनुर्विद्या की शिक्षा देने वाले कौन हैं?' एकलव्य ने उत्तर दिया, 'गुरुदेव! मैंने तो आपको ही गुरु स्वीकार कर के धनुर्विद्या सीखी है।' इतना कह कर उसने द्रोणाचार्य को उनकी मूर्ति के समक्ष ले जा कर खड़ा कर दिया।
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कुत्ते के लौटने पर जब [[अर्जुन]] ने धनुर्विद्या के उस कौशल को देखा तो वे द्रोणाचार्य से बोले, "हे गुरुदेव! इस कुत्ते के मुँह में जिस कौशल से बाण चलाये गये हैं उससे तो यह प्रतीत होता है कि यहाँ पर कोई मुझसे भी बड़ा धनुर्धर रहता है।" अपने सभी शिष्यों को ले कर द्रोणाचार्य एकलव्य के पास पहुँचे और पूंछा, "हे वत्स! क्या ये बाण तुम्हीं ने चलाये हैं।?" एकलव्य के स्वीकार करने पर उन्होंने पुनः प्रश्न किया,'तुम्हें धनुर्विद्या की शिक्षा देने वाले कौन हैं?' एकलव्य ने उत्तर दिया, 'गुरुदेव! मैंने तो आपको ही गुरु स्वीकार कर के धनुर्विद्या सीखी है।' इतना कह कर उसने द्रोणाचार्य को उनकी मूर्ति के समक्ष ले जा कर खड़ा कर दिया।
  
द्रोणाचार्य नहीं चाहते थे कि कोई अर्जुन से बड़ा धनुर्धारी बन पाये। वे एकलव्य से बोले, 'यदि मैं तुम्हारा गुरु हूँ तो तुम्हें मुझको गुरुदक्षिणा देनी होगी।' एकलव्य बोला, 'गुरुदेव! गुरुदक्षिणा के रूप में आप जो भी माँगेंगे मैं देने के लिये तैयार हूँ।' इस पर द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा के रूप में उसके दाहिने हाथ के अँगूठे की माँग की। एकलव्य ने सहर्ष अपना अँगूठा दे दिया। इस प्रकार एकलव्य अपने हाथ से धनुष चलाने में असमर्थ हो गया तो अपने पैरों से धनुष चलाने का अभ्यास करना आरम्भ कर दिया।  
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द्रोणाचार्य नहीं चाहते थे कि कोई अर्जुन से बड़ा धनुर्धारी बन पाये। द्रोणाचार्य एकलव्य से बोले, 'यदि मैं तुम्हारा गुरु हूँ तो तुम्हें मुझको गुरुदक्षिणा देनी होगी। 'एकलव्य बोला, 'गुरुदेव! गुरुदक्षिणा के रूप में आप जो भी माँगेंगे मैं देने के लिये तैयार हूँ।' इस पर द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा के रूप में उसके दाहिने हाथ के अँगूठे की माँग की। एकलव्य ने सहर्ष अपना अँगूठा दे दिया। इस प्रकार एकलव्य अपने हाथ से धनुष चलाने में असमर्थ हो गया तो अपने पैरों से धनुष चलाने का अभ्यास करना आरम्भ कर दिया।  
 
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Revision as of 06:42, 28 April 2011

yajn karane vale purohitoan ko diye gaye dan (shulk) ko dakshina kahate haian. aise avasaroan par 'gay' hi pray: shulk hoti thi. danastuti tatha brahmanoan mean isaka aur bhi vistar hua hai, jaise gay, ashv, bhaians, ooant abhooshan adi. isamean bhoomi ka samavesh nahian hai, kyoanki bhoomi par sare kutumb ka adhikar hota tha aur bina sabhi sadasyoan ki anumati ke isaka dan nahian kiya ja sakata tha.

atev bhoomi adey samajhi gayi. kiantu madhy yug ate-ate bhoomi bhi raja dvara dakshina mean di jane lagi. phir bhi isaka arth tha bhoomi se rajy ko jo ay hoti thi, usaka dan. pratyek dharmik athava maangalik krity ke aant mean purohit rritvij athava brahmanoan ko dakshina dena avashyak samajha jata hai. isake bina shubh kary ka suphal nahian milata, aisa vishvas hai. brahmachary athava adhyayan samapt hone par shishy dvara achary ko dakshina dene ka vidhan grihmasootroan mean paya jata hai.

ekalavy ki dakshina

hiranyadhanu namak nishadaraj ka putr ekalavy dhanurvidya sikhane ke uddeshy se dronachary ke ashram mean aya kintu nimn varn ka hone ke karan dronachary ne use apana shishy banana svikar nahian kiya. nirash hokar ekalavy van mean chala gaya. usane dronachary ki ek moorti banaee aur us moorti ko guru man kar dhanurvidya ka abhyas karane laga. ekagrachitt se sadhana karate huye alpakal mean hi vah dhanurvidya mean atyant nipun ho gaya. ek din sare rajakumar guru dron ke sath akhet ke liye usi van mean gaye jahaan par ekalavy ashram bana kar dhanurvidya ka abhyas kar raha tha. rajakumaroan ka kutta bhatak kar ekalavy ke ashram mean ja pahuancha. ekalavy ko dekh kar vah bhauankane laga. isase krodhit ho kar ekalavy ne us kutte par apana ban chala-chala kar usake muanh ko banoan se se bhar diya. ekalavy ne is kaushal se ban chalaye the ki kutte ko kisi prakar ki chot nahian lagi kintu banoan se biandh jane ke karan usaka bhauankana band ho gaya.

kutte ke lautane par jab arjun ne dhanurvidya ke us kaushal ko dekha to ve dronachary se bole, "he gurudev! is kutte ke muanh mean jis kaushal se ban chalaye gaye haian usase to yah pratit hota hai ki yahaan par koee mujhase bhi b da dhanurdhar rahata hai." apane sabhi shishyoan ko le kar dronachary ekalavy ke pas pahuanche aur pooanchha, "he vats! kya ye ban tumhian ne chalaye haian.?" ekalavy ke svikar karane par unhoanne punah prashn kiya,'tumhean dhanurvidya ki shiksha dene vale kaun haian?' ekalavy ne uttar diya, 'gurudev! maianne to apako hi guru svikar kar ke dhanurvidya sikhi hai.' itana kah kar usane dronachary ko unaki moorti ke samaksh le ja kar kh da kar diya.

dronachary nahian chahate the ki koee arjun se b da dhanurdhari ban paye. dronachary ekalavy se bole, 'yadi maian tumhara guru hooan to tumhean mujhako gurudakshina deni hogi. 'ekalavy bola, 'gurudev! gurudakshina ke roop mean ap jo bhi maangeange maian dene ke liye taiyar hooan.' is par dronachary ne ekalavy se gurudakshina ke roop mean usake dahine hath ke aangoothe ki maang ki. ekalavy ne saharsh apana aangootha de diya. is prakar ekalavy apane hath se dhanush chalane mean asamarth ho gaya to apane pairoan se dhanush chalane ka abhyas karana arambh kar diya.


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh