रैयतवाड़ी व्यवस्था: Difference between revisions
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'''रैयतवाड़ी व्यवस्था''' व्यवस्था में प्रत्येक पंजीकृत भूमिदार भूमि का स्वामी होता था, जो सरकार को लगान देने के लिए उत्तरदायी होता था। भूमिदार के पास भूमि को रहने, रखने व बेचने का अधिकार होता था। | |||
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Latest revision as of 05:29, 19 April 2012
रैयतवाड़ी व्यवस्था व्यवस्था में प्रत्येक पंजीकृत भूमिदार भूमि का स्वामी होता था, जो सरकार को लगान देने के लिए उत्तरदायी होता था। भूमिदार के पास भूमि को रहने, रखने व बेचने का अधिकार होता था।
- भूमि कर न देने की स्थिति में भूमिदार को, भूस्वामित्व के अधिकार से वंचित होना पड़ता था।
- इस व्यवस्था के अंतर्गत सरकार का रैयत से सीधा सम्पर्क होता था।
- रैयतवाड़ी व्यवस्था को मद्रास तथा बम्बई (वर्तमान मुम्बई) एवं असम के अधिकांश भागों में लागू किया गया।
- रैयतवाड़ी भूमि कर व्यवस्था को पहली बार 1792 ई. में मद्रास के 'बारामहल' ज़िले में लागू किया गया।
- टॉमस मुनरो जिस समय मद्रास का गवर्नर था, उस समय उसने कुल उपज के तीसरे भाग को भूमि कर का आधार मानकर मद्रास में इस व्यवस्था को लागू किया।
- मद्रास में यह व्यवस्था लगभग 30 वर्षों तक लागू रही।
- इस व्यवस्था में सुधार के अंतर्गत 1855 ई. में भूमि की पैमाइश तथा उर्वरा शक्ति के आधार पर कुल उपज का 30% भाग लगान के रूप में निर्धारित किया गया, परन्तु 1864 ई. में कम्पनी सरकार ने भू-भाटक (भूमि का भाड़ा, किराया) को 50% निश्चित कर दिया।
- बम्बई में 1835 ई. में लेफ़्टिनेण्ट विनगेट के भूमि सर्वेक्षण के आधार पर "रैयतवाड़ी व्यवस्था" लागू की गई।
- इसमें भूमि की उपज की आधी मात्रा सरकारी लगान के रूप में निश्चित की गई।
- कालान्तर में इसे 66% से 100% के मध्य तक बढ़ाया गया। परिणामस्वरूप दक्कन में 1879 ई. में दक्कन कृषक राहत अधिनियम पारित किया गया।
- बम्बई की रैयतवाड़ी पद्धति अधिक लगान एवं लगान की अनिश्चितता जैसे दोषों से युक्त थी।
- किसानों को इस व्यवस्था में अधिक लगान लिए जाने के विरुद्ध न्यायालय में जाने की अनुमति नहीं थी।
- ईस्ट इण्डिया कम्पनी की भूमि कर की इस नई प्रणाली का परिणाम भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा भयानक रहा।
- धीरे-धीरे भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था एवं भारतीय कृषि का रूप बदलने लगा। अब उत्पादन के ऐसे साधन प्रयोग में लाये जाने लगे, जिसमें धन की आवश्यकता पड़ती थी।
- इससे मुद्रा अर्थव्यवस्था एवं कृषि के वाणिज्यीकरण को प्रोत्साहन मिला।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 242।