वेणु: Difference between revisions
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मृत्यु की मानसी कन्या सुनीथा के गर्भ से उत्पन्न राजा अंग का [[पुत्र]] तथा चाक्षुषमनु-पुत्र कुरु का [[पौत्र]] तथा चाक्षुष मनु का प्रपौत्र था। राजा होने पर इसने लोगों के धर्म में बाधा डालनी शुरु कर दी। यहाँ तक बात बढ़ी कि स्वयं अंग इसकी अधार्मिकता से तंग आकर नगर छोड़ कर चले गए।<ref>भागवतपुराण 4.13.17-18</ref>इसने [[यज्ञ|यज्ञादि]] सब बंद करा दिये थे। अत: ऋषि-मुनियों ने पहले इसे नम्रता से समझाया, नहीं मानने पर कुछ कड़े शब्दों में चेतावनी दी गयी। किंतु जब सारे उपदेश निरर्थक सिद्ध हुए तब ऋषियों ने अभिमंत्रित कुशा से वेन का वध कर डाला। वेन नि:संतान था। राज्य सिंहासन शून्य देख देश में अशांति तथा उपद्रव का साम्राज्य व्याप्त हो गया। यह विचार कर ऋषियों ने वेन के शव की जाँघ को मथना आरम्भ किया, जिससे अति कुरूप तथा काले रंग तथा नाटे कद का एक व्यक्ति उत्पन्न हुआ, जिसे [[अत्रि|अत्रि ऋषि]] ने ‘निषीद’ (बैठ जाओ) कहा। इससे उसका नाम '''निषाद''' पड़ा और उसके वंशज ही 'निषाद' कहलाये। इसके उपरांत एक अच्छी संतान की अभिलाषा से ऋषियों ने वेन का दाहिना हाथ मथा, जिससे राजा पृथु उत्पन्न हुए।<ref>महाभारत शांतिपर्व, 59.93.98; विष्णुपुराण 1.13.3-9; भागवतपुराण 4.14.2-47; 15.1-4 तथा हरिवंशपुराण</ref> पर [[पद्मपुराण|पद्मपुराणानुसार]] वेन नास्तिक तथा [[जैन|जैनियों]] का अनुयायी हो जाने के कारण ऋषियों से तिरस्कृत हुआ तथा पीटा गया, जिससे उसकी जाँघ से निषाद और दाहिने हाथ से पृथु का जन्म हुआ था। पापमुक्त हो वेन ने तपस्या कर मुक्ति प्राप्त की थी।<ref> {{cite book | last = | first = राणा प्रसाद शर्मा | title =पौराणिक कोश | edition = | publisher = | location = भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language = हिंदी | pages = पृष्ठ संख्या 479 | chapter =}}</ref> | |||
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*'कुपुत्र की अपेक्षा पुत्रहीन रहना ही भला था।' महाराज अंग ने [[देवता|देवताओं]] का पूजन करके पुत्र प्राप्त किया और वह पुत्र घोरकर्मा हो गया। प्रजा उसके उपद्रवों से त्राहि-त्राहि करने लगी है। ताड़नादि से भी उसका शासन हो नहीं पाता। महाराज को वैराग्य हो गया। रात्रि में वे चुपचाप अज्ञात वन में चले गये। | *'कुपुत्र की अपेक्षा पुत्रहीन रहना ही भला था।' महाराज अंग ने [[देवता|देवताओं]] का पूजन करके पुत्र प्राप्त किया और वह पुत्र घोरकर्मा हो गया। प्रजा उसके उपद्रवों से त्राहि-त्राहि करने लगी है। ताड़नादि से भी उसका शासन हो नहीं पाता। महाराज को वैराग्य हो गया। रात्रि में वे चुपचाप अज्ञात वन में चले गये। | ||
*'कोई यज्ञ न करे! कोई किसी देवता का पूजन न करे। एकमात्र राजा ही प्रजा के आराध्य हैं! आज्ञाभंग करने वाला कठोर दण्ड पायेगा।' भेरीनाद के साथ ग्राम-ग्राम में घोषणा हो रही थी। महाराज अंग का कोई पता न लगा। ऋषियों ने उनके पुत्र वेन को सिंहासन पर बैठाया। राज्य पाते ही उसने यह घोषणा करायी। | *'कोई यज्ञ न करे! कोई किसी देवता का पूजन न करे। एकमात्र राजा ही प्रजा के आराध्य हैं! आज्ञाभंग करने वाला कठोर दण्ड पायेगा।' भेरीनाद के साथ ग्राम-ग्राम में घोषणा हो रही थी। महाराज अंग का कोई पता न लगा। ऋषियों ने उनके पुत्र वेन को सिंहासन पर बैठाया। राज्य पाते ही उसने यह घोषणा करायी। | ||
*'राजन! यज्ञ से यज्ञपति भगवान [[विष्णु]] तुष्ट होंगे! उनके प्रसन्न होने पर आपका और प्रजा का भी कल्याण होगा!' ऋषि गण वेन को समझाने एकत्र होकर आये थे। उस दर्पमत्त ने उनकी अवज्ञा की। ऋषियों का रोष हुंकार के साथ कुशों में ही [[अस्त्र शस्त्र|ब्रह्मास्त्र]] की शक्ति बन गया। वेन मारा गया। वेन की माता सुनीथा ने पुत्र का शरीर स्नेहवश सुरक्षित रखा। | *'राजन! यज्ञ से यज्ञपति भगवान [[विष्णु]] तुष्ट होंगे! उनके प्रसन्न होने पर आपका और प्रजा का भी कल्याण होगा!' ऋषि गण वेन को समझाने एकत्र होकर आये थे। उस दर्पमत्त ने उनकी अवज्ञा की। ऋषियों का रोष हुंकार के साथ कुशों में ही [[अस्त्र शस्त्र|ब्रह्मास्त्र]] की शक्ति बन गया। वेन मारा गया। वेन की माता सुनीथा ने पुत्र का शरीर स्नेहवश सुरक्षित रखा। | ||
*'ये साक्षात जगदीश्वर के अवतार हैं!' उन दूर्वादलश्याम, प्रलम्बबाहु, कमलाक्ष पुरुष को देखकर ऋषिगण प्रसन्न हुए। अराजकता होने पर प्रजा में दस्यु बढ़ गये थे। चोरी, बलप्रयोग, मर्यादानाश, परस्वहरणादि बढ़ रहे थे। शासक आवश्यक था। ऋषियों ने एकत्र होकर वेन के शरीर का मन्थन प्रारम्भ किया उसके ऊरू से प्रथम ह्रस्वकाय, कृष्णवर्ण पुरुष उत्पन्न हुआ। उसकी सन्तानें निषाद कही गयीं। मन्थन चलता रहा। दक्षिण हस्त से पृथु और वाम बाहु से उनकी नित्य-सहचरी लक्ष्मी स्वरूपा आदि सती अर्चि प्रकट हुई। | *'ये साक्षात जगदीश्वर के अवतार हैं!' उन दूर्वादलश्याम, प्रलम्बबाहु, कमलाक्ष पुरुष को देखकर ऋषिगण प्रसन्न हुए। अराजकता होने पर प्रजा में [[दस्यु]] बढ़ गये थे। चोरी, बलप्रयोग, मर्यादानाश, परस्वहरणादि बढ़ रहे थे। शासक आवश्यक था। ऋषियों ने एकत्र होकर वेन के शरीर का मन्थन प्रारम्भ किया उसके ऊरू से प्रथम ह्रस्वकाय, कृष्णवर्ण पुरुष उत्पन्न हुआ। उसकी सन्तानें निषाद कही गयीं। मन्थन चलता रहा। दक्षिण हस्त से पृथु और वाम बाहु से उनकी नित्य-सहचरी लक्ष्मी स्वरूपा आदि सती अर्चि प्रकट हुई। | ||
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मृत्यु की मानसी कन्या सुनीथा के गर्भ से उत्पन्न राजा अंग का पुत्र तथा चाक्षुषमनु-पुत्र कुरु का पौत्र तथा चाक्षुष मनु का प्रपौत्र था। राजा होने पर इसने लोगों के धर्म में बाधा डालनी शुरु कर दी। यहाँ तक बात बढ़ी कि स्वयं अंग इसकी अधार्मिकता से तंग आकर नगर छोड़ कर चले गए।[1]इसने यज्ञादि सब बंद करा दिये थे। अत: ऋषि-मुनियों ने पहले इसे नम्रता से समझाया, नहीं मानने पर कुछ कड़े शब्दों में चेतावनी दी गयी। किंतु जब सारे उपदेश निरर्थक सिद्ध हुए तब ऋषियों ने अभिमंत्रित कुशा से वेन का वध कर डाला। वेन नि:संतान था। राज्य सिंहासन शून्य देख देश में अशांति तथा उपद्रव का साम्राज्य व्याप्त हो गया। यह विचार कर ऋषियों ने वेन के शव की जाँघ को मथना आरम्भ किया, जिससे अति कुरूप तथा काले रंग तथा नाटे कद का एक व्यक्ति उत्पन्न हुआ, जिसे अत्रि ऋषि ने ‘निषीद’ (बैठ जाओ) कहा। इससे उसका नाम निषाद पड़ा और उसके वंशज ही 'निषाद' कहलाये। इसके उपरांत एक अच्छी संतान की अभिलाषा से ऋषियों ने वेन का दाहिना हाथ मथा, जिससे राजा पृथु उत्पन्न हुए।[2] पर पद्मपुराणानुसार वेन नास्तिक तथा जैनियों का अनुयायी हो जाने के कारण ऋषियों से तिरस्कृत हुआ तथा पीटा गया, जिससे उसकी जाँघ से निषाद और दाहिने हाथ से पृथु का जन्म हुआ था। पापमुक्त हो वेन ने तपस्या कर मुक्ति प्राप्त की थी।[3]
- 'कुपुत्र की अपेक्षा पुत्रहीन रहना ही भला था।' महाराज अंग ने देवताओं का पूजन करके पुत्र प्राप्त किया और वह पुत्र घोरकर्मा हो गया। प्रजा उसके उपद्रवों से त्राहि-त्राहि करने लगी है। ताड़नादि से भी उसका शासन हो नहीं पाता। महाराज को वैराग्य हो गया। रात्रि में वे चुपचाप अज्ञात वन में चले गये।
- 'कोई यज्ञ न करे! कोई किसी देवता का पूजन न करे। एकमात्र राजा ही प्रजा के आराध्य हैं! आज्ञाभंग करने वाला कठोर दण्ड पायेगा।' भेरीनाद के साथ ग्राम-ग्राम में घोषणा हो रही थी। महाराज अंग का कोई पता न लगा। ऋषियों ने उनके पुत्र वेन को सिंहासन पर बैठाया। राज्य पाते ही उसने यह घोषणा करायी।
- 'राजन! यज्ञ से यज्ञपति भगवान विष्णु तुष्ट होंगे! उनके प्रसन्न होने पर आपका और प्रजा का भी कल्याण होगा!' ऋषि गण वेन को समझाने एकत्र होकर आये थे। उस दर्पमत्त ने उनकी अवज्ञा की। ऋषियों का रोष हुंकार के साथ कुशों में ही ब्रह्मास्त्र की शक्ति बन गया। वेन मारा गया। वेन की माता सुनीथा ने पुत्र का शरीर स्नेहवश सुरक्षित रखा।
- 'ये साक्षात जगदीश्वर के अवतार हैं!' उन दूर्वादलश्याम, प्रलम्बबाहु, कमलाक्ष पुरुष को देखकर ऋषिगण प्रसन्न हुए। अराजकता होने पर प्रजा में दस्यु बढ़ गये थे। चोरी, बलप्रयोग, मर्यादानाश, परस्वहरणादि बढ़ रहे थे। शासक आवश्यक था। ऋषियों ने एकत्र होकर वेन के शरीर का मन्थन प्रारम्भ किया उसके ऊरू से प्रथम ह्रस्वकाय, कृष्णवर्ण पुरुष उत्पन्न हुआ। उसकी सन्तानें निषाद कही गयीं। मन्थन चलता रहा। दक्षिण हस्त से पृथु और वाम बाहु से उनकी नित्य-सहचरी लक्ष्मी स्वरूपा आदि सती अर्चि प्रकट हुई।
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