दिव्या (उपन्यास): Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
 
(7 intermediate revisions by 3 users not shown)
Line 1: Line 1:
{{सूचना बक्सा पुस्तक
|चित्र=Divya-(Yashpal).jpg
|चित्र का नाम='दिव्या' आवरण पृष्ठ
|लेखक= [[यशपाल]]
|कवि=
|मूल_शीर्षक =दिव्या
|मुख्य पात्र =
|कथानक =
|अनुवादक =
|संपादक =
|प्रकाशक = लोकभारती प्रकाशन
|प्रकाशन_तिथि =[[25 अप्रैल]], [[2004]]
|भाषा = [[हिंदी]]
|देश = [[भारत]]
|विषय =
|शैली =
|मुखपृष्ठ_रचना = सजिल्द
|विधा = उपन्यास
|प्रकार =
|पृष्ठ =168
|ISBN =
|भाग =
|विशेष =
|टिप्पणियाँ =
}}
'दिव्या' [[यशपाल]] के श्रेष्ठ उपन्यासों में एक से है। इस उपन्यास में युग-युग की उस दलित-पीड़ित नारी की करुण कथा है, जो अनेकानेक संघर्षों से गुज़रती हुई अपना स्वस्थ मार्ग पहचान लेती है।  'दिव्या' उपन्यास 'अमिता'  की भाँति ऐतिहासिक उपन्यास है ।
'दिव्या' [[यशपाल]] के श्रेष्ठ उपन्यासों में एक से है। इस उपन्यास में युग-युग की उस दलित-पीड़ित नारी की करुण कथा है, जो अनेकानेक संघर्षों से गुज़रती हुई अपना स्वस्थ मार्ग पहचान लेती है।  'दिव्या' उपन्यास 'अमिता'  की भाँति ऐतिहासिक उपन्यास है ।
यशपाल जी का ‘दिव्या’ एक काल्पनिक ऐतिहासिक उपन्यास है। उन्होंने ने इसे मार्क्सवादी दृष्टिकोण से लिखा है। इस उपन्यास की नायिका दिव्या अनेक प्रकार के संघर्ष झेलती है। यह एक रोमांस विरोधी उपन्यास है। यशपाल जी की दिव्या भगवतीचरण वर्मा की चित्रलेखा से इस मामले में अलग है कि जहां चित्रलेखा को परिस्थितियों के कारण जीवन में कोई राह नहीं सूझती, वही दिव्या में राह की खोज है। ‘अमिता’ यशपाल जी का दूसरा ऐतिहासिक उपन्यास है। किन्तु इसमें वह ऊंचाई नहीं है जो ‘[[अमिता (उपन्यास)|अमिता]]’ में है।<ref>{{cite web |url=http://raj-bhasha-hindi.blogspot.in/2011/05/blog-post_17.html|title=ऐतिहासिक उपन्यास |accessmonthday=23 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी}}</ref>
==कथानक==
==कथानक==
[[इतिहास]] के मन्थन से प्राप्त अनुभव के अनेक प्रयत्नों में सबसे प्रकाशमान तथ्य है- मनुष्य भोक्ता नहीं, कर्ता है। सम्पूर्ण माया मनुष्य की ही क्रीड़ा है। इसी सत्य को अनुभव कर हमारे विचारकों ने कहा था-‘‘न मानुषात् श्रेष्ठतर हि किंचित् !’’
[[इतिहास]] के मन्थन से प्राप्त अनुभव के अनेक प्रयत्नों में सबसे प्रकाशमान तथ्य है- मनुष्य भोक्ता नहीं, कर्ता है। सम्पूर्ण माया मनुष्य की ही क्रीड़ा है। इसी सत्य को अनुभव कर हमारे विचारकों ने कहा था-‘‘न मानुषात् श्रेष्ठतर हि किंचित् !’’
मनुष्य से बड़ा है- केवल उसका अपना विश्वास और स्वयं उसका ही रचा हुआ विधान। अपने विश्वास और विधान के सम्मुख ही मनुष्य विवशता अनुभव करता है और स्वयं ही वह उसे बदल भी देता है। इसी सत्य को अपने चित्रमय अतीत की भूमि पर कल्पना में देखने का प्रयत्न ‘दिव्या’ है।  दिव्या’ का कथानक [[बौद्ध|बौद्धकाल]] की घटनाओं पर आधारित है। इस युग की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का कुछ ऐसा सजीव चित्रण इन्होंने किया है कि सब कुछ काल्पनिक होते हुए भी यथार्थ-सा प्रतीत होता है। उपन्यास में वर्णित घटनाएँ पाठक के हृदय को गहराई से प्रभावित करती हैं। ‘दिव्या’ जीवन की आसक्ति का प्रतीक है।<ref>{{cite web |urlhttp://pustak.org/bs/home.php?bookid=2217= |title=दिव्या |accessmonthday=23 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी }}</ref>
मनुष्य से बड़ा है- केवल उसका अपना विश्वास और स्वयं उसका ही रचा हुआ विधान। अपने विश्वास और विधान के सम्मुख ही मनुष्य विवशता अनुभव करता है और स्वयं ही वह उसे बदल भी देता है। इसी सत्य को अपने चित्रमय अतीत की भूमि पर कल्पना में देखने का प्रयत्न ‘दिव्या’ है।  दिव्या’ का कथानक [[बौद्ध|बौद्धकाल]] की घटनाओं पर आधारित है। इस युग की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का कुछ ऐसा सजीव चित्रण इन्होंने किया है कि सब कुछ काल्पनिक होते हुए भी यथार्थ-सा प्रतीत होता है। उपन्यास में वर्णित घटनाएँ पाठक के हृदय को गहराई से प्रभावित करती हैं। ‘दिव्या’ जीवन की आसक्ति का प्रतीक है।<ref>{{cite web |url= http://pustak.org/bs/home.php?bookid=2217= |title=दिव्या |accessmonthday=23 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी}}</ref>
==ऐतिहासिक कल्पना==
==ऐतिहासिक कल्पना==
‘दिव्या’ इतिहास नहीं, ऐतिहासिक कल्पना मात्र है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर व्यक्ति और समाज की प्रवृत्ति और गति का चित्र है। लेखक ने कला के अनुराग से काल्पनिक चित्र में ऐतिहासिक वातावरण के आधार पर यथार्थ का रंग देने का प्रयत्न किया है। चित्र में त्रुटि रह जाना सम्भव है। उस समय का हमारा इतिहास यथेष्ट प्राप्य नहीं। जो प्राप्य है, उस पर लेखक का विशेष अधिकार नहीं। अपनी यह न्यूनता जान कर भी लेखक ने कल्पना का आधार उसी समय को बनाया; कारण है-उस समय के चित्रमय ऐतिहासिक काल के प्रति लेखक का मोह। सूक्ष्मदर्शी पाठक के प्रति इनसे अन्याय हो सकता है। असंगति देख कर उन्हें विरक्ति हो सकती है।  
‘दिव्या’ इतिहास नहीं, ऐतिहासिक कल्पना मात्र है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर व्यक्ति और समाज की प्रवृत्ति और गति का चित्र है। लेखक ने कला के अनुराग से काल्पनिक चित्र में ऐतिहासिक वातावरण के आधार पर यथार्थ का रंग देने का प्रयत्न किया है। चित्र में त्रुटि रह जाना सम्भव है। उस समय का हमारा इतिहास यथेष्ट प्राप्य नहीं। जो प्राप्य है, उस पर लेखक का विशेष अधिकार नहीं। अपनी यह न्यूनता जान कर भी लेखक ने कल्पना का आधार उसी समय को बनाया; कारण है-उस समय के चित्रमय ऐतिहासिक काल के प्रति लेखक का मोह। सूक्ष्मदर्शी पाठक के प्रति इनसे अन्याय हो सकता है। असंगति देख कर उन्हें विरक्ति हो सकती है।
==भारतीय संस्कृति का वर्णन==
यशपाल ने ‘दिव्या’ उपन्यास में बौद्धकालीन परिवेश के अंतर्गत [[भारतीय संस्कृति]] का सुंदर चित्रण किया है । [[संस्कृति]] का बाह्य पहलू जिसमें उत्सव-मेले, शौर्य और [[कला]] की विभिन्न प्रतियोगिताएँ भारतीय संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अंग रही है, का उपन्यास में निर्वाह करते हुए यशपाल ने ‘दिव्या’ का प्रारंभ किया है । यशपाल ने ‘दिव्या’ में [[नृत्य कला|नृत्य-कला]]- [[संगीत]] का न केवल चरमोत्कर्ष दिखाया है परंतु एक सजग रचनाकार के दायित्व का निर्वाह करते हुए कला-जीवी स्त्रियों की करुण स्थिति की भी अभिव्यक्ति की है । जिस बौद्धकालीन रूढियों और [[धर्म]] के कठोर नियमों ने दिव्या को ठुकराया था उसी दिव्या द्वारा यथार्थवादी दृष्टिकोण वाले मारिश का वरण करवाकर यशपाल ने आधुनिक नारी स्वातंत्र्य के विचार बोध का समर्थन किया है । शौर्य प्रदर्शन की प्रतियोगिता में यशपाल ने हमारी संस्कृति के कलंक समान [[दास प्रथा|दासप्रथा]] और [[वर्ण व्यवस्था|वर्णव्यवस्था]] की कुरीतियों का यथार्थ करके निरूपण सामंतवादी और आभिजात्यवादी व्यवस्था पर भी प्रहार किये है । उपन्यास के उत्तरार्ध में अपने बल पर पृथुसेन विदेशी आक्रांता केन्द्रस पर विजय प्राप्त कर सागल का मुख्य सेनापति और राज्य का अग्रणी बनता है जिसमें यशपाल ने जन्मगत वर्णव्यवस्था को तोड़कर कर्म के आधार पर व्यक्ति की महत्ता स्वीकृत की है । वहीं उपन्यास के अन्त में आभिजात्य वर्ग की ही तरह भोग-विलास में लिपटे पृथुसेन का भी राजनीति की कुटिल चालों द्वारा पराभाव दिखाकर शासन व्यवस्था की शिथिलता का यथार्थ आलेखन किया है । जिस भारतीय संस्कृति ने नारी को देवी कह कर महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया था वही परिवर्तित काल में दीन-हीन होकर, पुरुष की भोग्या मात्र बनकर रह जाती है । नारी के अस्तित्व की पहचान की समस्या का मार्मिक निरूपण भी यशपाल ने दिव्या के माध्यम से प्रस्तुत किया है । धार्मिक आस्था में विश्वास रखनेवाली जनता के समक्ष बौद्ध धर्म की क्रूरता का संकेत निश्चय ही पाठक वर्ग के समक्ष प्रश्न खड़ा कर देता है । मूलतः मारिश बौद्धकालीन परिवेश का प्रगतिशील विचारक है जो [[भारत]] के प्रथम निरीश्वरवादी [[चार्वाक के सिद्धान्त|दार्शनिक चार्वाक]] के मत का अनुमोदन करते हुए, बौद्धकालीन धर्म और समाज में रहते हुए भी ईश्वर, धर्म, भाग, कर्मफल की तर्क की कसौटी पर व्याख्या करता है तथा नारी को सृष्टि की आदि शक्ति मानते हुए समाज में सम्मान जनक, पुरुष के समकक्ष स्थान प्रदान करता है । परमात्मा-जीवात्मा, भाग्य-कर्मफल आदि के कारण जीवन की निरर्थकता स्वीकार कर लेने वाली रत्नप्रभा और अंशुमाला को सांस्कृतिक-धार्मिक संकुचित दृष्टि से मुक्त करने वाला, सांस्कृतिक चेतना का पक्षधर मारिश, यशपाल के विचारों को ही प्रस्तुत करता है । धर्म और संस्कृति की आड़ में कुटिल राजनीति खेलने वाली सामंतशाही शासन व्यवस्था के यथार्थ का यशपाल ने कलात्मक ढंग से निरूपण किया है । कुल मिलाकर यशपाल ने [[कला]], [[संगीत]], [[न्यायशास्त्र|न्याय]], [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] और शौर्य जैसे भारतीय संस्कृति के मूल्यवान अँगों का सफलतापूर्वक निरूपण किया है वहीं दूसरी तरफ़ वर्ण-व्यवस्था, दास-प्रथा, धार्मिक रूढियाँ, नारी-स्वातंत्र्य की समस्या और राजनीति व शासन-व्यवस्था की अनैतिकता पर कुठाराघात करते हुए सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति की है।<ref>{{cite web |url=http://srijangatha.com/Mulyankan_1May2k10 |title=यशपाल के ‘दिव्या’ उपन्यास में भारतीय संस्कृति |accessmonthday=23 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी }}</ref>
 
==भाषा शैली==
==भाषा शैली==
अतीत के रंग-रूप की रक्षा के लिए 'दिव्या' में कुछ असाधारण [[भाषा]] और शब्दों का प्रयोग आवश्यक हुआ है। इन शब्दों की अर्थसहित तालिका पुस्तक के अंत में दे दी गई है।  
अतीत के रंग-रूप की रक्षा के लिए 'दिव्या' में कुछ असाधारण [[भाषा]] और शब्दों का प्रयोग आवश्यक हुआ है। इन शब्दों की अर्थसहित तालिका पुस्तक के अंत में दे दी गई है।  
Line 12: Line 41:
[[बौद्ध |बौद्धकालीन]] वेश-भूषा और वातावरण को हृदयंगम करने में विशेष सहायता [[अजन्ता]] और [[एलोरा]] की यात्रा से मिली। अजन्ता और एलोरा के कलाकारों के प्रति कलाप्रेमी संसार सदा आभारी रहेगा, परन्तु इस [[कला]] के दर्शन के लिए मैं अपने मित्र और चिकित्सक 'डॉक्टर प्रेमलाल शाह' का कृतज्ञ हूँ। बहुत समय से यह पुस्तक लिखने के लिये इस यात्रा का विचार था परन्तु कठिन समय में असुविधाओं के विचार से शैथिल्य और निरुत्साह रहा। डॉक्टर ने घसीट कर कर्तव्य पूरा कराया। इसी से यह काल्पनिक चित्र पुस्तक का रूप ले पाया है।  
[[बौद्ध |बौद्धकालीन]] वेश-भूषा और वातावरण को हृदयंगम करने में विशेष सहायता [[अजन्ता]] और [[एलोरा]] की यात्रा से मिली। अजन्ता और एलोरा के कलाकारों के प्रति कलाप्रेमी संसार सदा आभारी रहेगा, परन्तु इस [[कला]] के दर्शन के लिए मैं अपने मित्र और चिकित्सक 'डॉक्टर प्रेमलाल शाह' का कृतज्ञ हूँ। बहुत समय से यह पुस्तक लिखने के लिये इस यात्रा का विचार था परन्तु कठिन समय में असुविधाओं के विचार से शैथिल्य और निरुत्साह रहा। डॉक्टर ने घसीट कर कर्तव्य पूरा कराया। इसी से यह काल्पनिक चित्र पुस्तक का रूप ले पाया है।  


सबसे अधिक आभारी हूँ मैं अपनी प्रेरणा के स्रोत अपने पाठकों का जिनके बिना कला की साधना सम्भव नहीं। - -यशपाल (19 मई, 1945)<ref>{{cite web |urlhttp://pustak.org/bs/home.php?bookid=2217= |title=दिव्या |accessmonthday=23 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी }}</ref>
सबसे अधिक आभारी हूँ मैं अपनी प्रेरणा के स्रोत अपने पाठकों का जिनके बिना कला की साधना सम्भव नहीं। - -यशपाल (19 मई, 1945)<ref>{{cite web |url= http://pustak.org/bs/home.php?bookid=2217= |title=दिव्या |accessmonthday=23 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी}}</ref>


{{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
 
{{यशपाल की रचनाएँ}}
[[Category:नया पन्ना दिसम्बर-2012]]  
[[Category:गद्य साहित्य]]
 
[[Category:यशपाल]][[Category:साहित्य_कोश]]
__INDEX__[[Category:उपन्यास]][[Category:यशपाल]][[Category:साहित्य_कोश]]__NOTOC__
[[Category:पुस्तक कोश]]
[[Category:उपन्यास]]
__NOTOC__
__INDEX__

Latest revision as of 06:05, 13 August 2016

दिव्या (उपन्यास)
लेखक यशपाल
मूल शीर्षक दिव्या
प्रकाशक लोकभारती प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 25 अप्रैल, 2004
देश भारत
पृष्ठ: 168
भाषा हिंदी
विधा उपन्यास
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द

'दिव्या' यशपाल के श्रेष्ठ उपन्यासों में एक से है। इस उपन्यास में युग-युग की उस दलित-पीड़ित नारी की करुण कथा है, जो अनेकानेक संघर्षों से गुज़रती हुई अपना स्वस्थ मार्ग पहचान लेती है। 'दिव्या' उपन्यास 'अमिता' की भाँति ऐतिहासिक उपन्यास है । यशपाल जी का ‘दिव्या’ एक काल्पनिक ऐतिहासिक उपन्यास है। उन्होंने ने इसे मार्क्सवादी दृष्टिकोण से लिखा है। इस उपन्यास की नायिका दिव्या अनेक प्रकार के संघर्ष झेलती है। यह एक रोमांस विरोधी उपन्यास है। यशपाल जी की दिव्या भगवतीचरण वर्मा की चित्रलेखा से इस मामले में अलग है कि जहां चित्रलेखा को परिस्थितियों के कारण जीवन में कोई राह नहीं सूझती, वही दिव्या में राह की खोज है। ‘अमिता’ यशपाल जी का दूसरा ऐतिहासिक उपन्यास है। किन्तु इसमें वह ऊंचाई नहीं है जो ‘अमिता’ में है।[1]

कथानक

इतिहास के मन्थन से प्राप्त अनुभव के अनेक प्रयत्नों में सबसे प्रकाशमान तथ्य है- मनुष्य भोक्ता नहीं, कर्ता है। सम्पूर्ण माया मनुष्य की ही क्रीड़ा है। इसी सत्य को अनुभव कर हमारे विचारकों ने कहा था-‘‘न मानुषात् श्रेष्ठतर हि किंचित् !’’ मनुष्य से बड़ा है- केवल उसका अपना विश्वास और स्वयं उसका ही रचा हुआ विधान। अपने विश्वास और विधान के सम्मुख ही मनुष्य विवशता अनुभव करता है और स्वयं ही वह उसे बदल भी देता है। इसी सत्य को अपने चित्रमय अतीत की भूमि पर कल्पना में देखने का प्रयत्न ‘दिव्या’ है। दिव्या’ का कथानक बौद्धकाल की घटनाओं पर आधारित है। इस युग की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का कुछ ऐसा सजीव चित्रण इन्होंने किया है कि सब कुछ काल्पनिक होते हुए भी यथार्थ-सा प्रतीत होता है। उपन्यास में वर्णित घटनाएँ पाठक के हृदय को गहराई से प्रभावित करती हैं। ‘दिव्या’ जीवन की आसक्ति का प्रतीक है।[2]

ऐतिहासिक कल्पना

‘दिव्या’ इतिहास नहीं, ऐतिहासिक कल्पना मात्र है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर व्यक्ति और समाज की प्रवृत्ति और गति का चित्र है। लेखक ने कला के अनुराग से काल्पनिक चित्र में ऐतिहासिक वातावरण के आधार पर यथार्थ का रंग देने का प्रयत्न किया है। चित्र में त्रुटि रह जाना सम्भव है। उस समय का हमारा इतिहास यथेष्ट प्राप्य नहीं। जो प्राप्य है, उस पर लेखक का विशेष अधिकार नहीं। अपनी यह न्यूनता जान कर भी लेखक ने कल्पना का आधार उसी समय को बनाया; कारण है-उस समय के चित्रमय ऐतिहासिक काल के प्रति लेखक का मोह। सूक्ष्मदर्शी पाठक के प्रति इनसे अन्याय हो सकता है। असंगति देख कर उन्हें विरक्ति हो सकती है।

भारतीय संस्कृति का वर्णन

यशपाल ने ‘दिव्या’ उपन्यास में बौद्धकालीन परिवेश के अंतर्गत भारतीय संस्कृति का सुंदर चित्रण किया है । संस्कृति का बाह्य पहलू जिसमें उत्सव-मेले, शौर्य और कला की विभिन्न प्रतियोगिताएँ भारतीय संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अंग रही है, का उपन्यास में निर्वाह करते हुए यशपाल ने ‘दिव्या’ का प्रारंभ किया है । यशपाल ने ‘दिव्या’ में नृत्य-कला- संगीत का न केवल चरमोत्कर्ष दिखाया है परंतु एक सजग रचनाकार के दायित्व का निर्वाह करते हुए कला-जीवी स्त्रियों की करुण स्थिति की भी अभिव्यक्ति की है । जिस बौद्धकालीन रूढियों और धर्म के कठोर नियमों ने दिव्या को ठुकराया था उसी दिव्या द्वारा यथार्थवादी दृष्टिकोण वाले मारिश का वरण करवाकर यशपाल ने आधुनिक नारी स्वातंत्र्य के विचार बोध का समर्थन किया है । शौर्य प्रदर्शन की प्रतियोगिता में यशपाल ने हमारी संस्कृति के कलंक समान दासप्रथा और वर्णव्यवस्था की कुरीतियों का यथार्थ करके निरूपण सामंतवादी और आभिजात्यवादी व्यवस्था पर भी प्रहार किये है । उपन्यास के उत्तरार्ध में अपने बल पर पृथुसेन विदेशी आक्रांता केन्द्रस पर विजय प्राप्त कर सागल का मुख्य सेनापति और राज्य का अग्रणी बनता है जिसमें यशपाल ने जन्मगत वर्णव्यवस्था को तोड़कर कर्म के आधार पर व्यक्ति की महत्ता स्वीकृत की है । वहीं उपन्यास के अन्त में आभिजात्य वर्ग की ही तरह भोग-विलास में लिपटे पृथुसेन का भी राजनीति की कुटिल चालों द्वारा पराभाव दिखाकर शासन व्यवस्था की शिथिलता का यथार्थ आलेखन किया है । जिस भारतीय संस्कृति ने नारी को देवी कह कर महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया था वही परिवर्तित काल में दीन-हीन होकर, पुरुष की भोग्या मात्र बनकर रह जाती है । नारी के अस्तित्व की पहचान की समस्या का मार्मिक निरूपण भी यशपाल ने दिव्या के माध्यम से प्रस्तुत किया है । धार्मिक आस्था में विश्वास रखनेवाली जनता के समक्ष बौद्ध धर्म की क्रूरता का संकेत निश्चय ही पाठक वर्ग के समक्ष प्रश्न खड़ा कर देता है । मूलतः मारिश बौद्धकालीन परिवेश का प्रगतिशील विचारक है जो भारत के प्रथम निरीश्वरवादी दार्शनिक चार्वाक के मत का अनुमोदन करते हुए, बौद्धकालीन धर्म और समाज में रहते हुए भी ईश्वर, धर्म, भाग, कर्मफल की तर्क की कसौटी पर व्याख्या करता है तथा नारी को सृष्टि की आदि शक्ति मानते हुए समाज में सम्मान जनक, पुरुष के समकक्ष स्थान प्रदान करता है । परमात्मा-जीवात्मा, भाग्य-कर्मफल आदि के कारण जीवन की निरर्थकता स्वीकार कर लेने वाली रत्नप्रभा और अंशुमाला को सांस्कृतिक-धार्मिक संकुचित दृष्टि से मुक्त करने वाला, सांस्कृतिक चेतना का पक्षधर मारिश, यशपाल के विचारों को ही प्रस्तुत करता है । धर्म और संस्कृति की आड़ में कुटिल राजनीति खेलने वाली सामंतशाही शासन व्यवस्था के यथार्थ का यशपाल ने कलात्मक ढंग से निरूपण किया है । कुल मिलाकर यशपाल ने कला, संगीत, न्याय, दर्शन और शौर्य जैसे भारतीय संस्कृति के मूल्यवान अँगों का सफलतापूर्वक निरूपण किया है वहीं दूसरी तरफ़ वर्ण-व्यवस्था, दास-प्रथा, धार्मिक रूढियाँ, नारी-स्वातंत्र्य की समस्या और राजनीति व शासन-व्यवस्था की अनैतिकता पर कुठाराघात करते हुए सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति की है।[3]

भाषा शैली

अतीत के रंग-रूप की रक्षा के लिए 'दिव्या' में कुछ असाधारण भाषा और शब्दों का प्रयोग आवश्यक हुआ है। इन शब्दों की अर्थसहित तालिका पुस्तक के अंत में दे दी गई है।

यशपाल के अनुसार

"अपने ऐतिहासिक ज्ञान की न्यूनता को स्वीकार करता हूँ। यदि लखनऊ म्यूजियम के अध्यक्ष श्री वासुदेवशरण अग्रवाल, पी.एच.डी. और बम्बई प्रिंस-आफ वेल्स म्यूजियम, पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष 'श्री मोतीचन्द', पी.एच.डी. तथा 'श्री भगवतशरण उपाध्याय' का उदार सहयोग मुझे प्राप्त न होता तो पुस्तक सम्भवतः असह्य रूप से त्रटिपूर्ण होती। लखनऊ बौद्ध-विहार के वयोवृद्ध 'महास्थविर भदन्त बोधानन्द' के प्रति भी मैं कृतज्ञ हूँ। उनकी कृपा से बौद्ध परिपाटी के विषय में जानने की सुविधा हुई।

बौद्धकालीन वेश-भूषा और वातावरण को हृदयंगम करने में विशेष सहायता अजन्ता और एलोरा की यात्रा से मिली। अजन्ता और एलोरा के कलाकारों के प्रति कलाप्रेमी संसार सदा आभारी रहेगा, परन्तु इस कला के दर्शन के लिए मैं अपने मित्र और चिकित्सक 'डॉक्टर प्रेमलाल शाह' का कृतज्ञ हूँ। बहुत समय से यह पुस्तक लिखने के लिये इस यात्रा का विचार था परन्तु कठिन समय में असुविधाओं के विचार से शैथिल्य और निरुत्साह रहा। डॉक्टर ने घसीट कर कर्तव्य पूरा कराया। इसी से यह काल्पनिक चित्र पुस्तक का रूप ले पाया है।

सबसे अधिक आभारी हूँ मैं अपनी प्रेरणा के स्रोत अपने पाठकों का जिनके बिना कला की साधना सम्भव नहीं। - -यशपाल (19 मई, 1945)[4]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऐतिहासिक उपन्यास (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 23 दिसम्बर, 2012।
  2. दिव्या (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 23 दिसम्बर, 2012।
  3. यशपाल के ‘दिव्या’ उपन्यास में भारतीय संस्कृति (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 23 दिसम्बर, 2012।
  4. दिव्या (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 23 दिसम्बर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख