यशपाल
चित्र:Disamb2.jpg यशपाल | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- यशपाल (बहुविकल्पी) |
यशपाल
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पूरा नाम | यशपाल |
जन्म | 3 दिसम्बर, 1903 ई. |
जन्म भूमि | फ़िरोजपुर छावनी, पंजाब, भारत |
मृत्यु | 26 दिसंबर, 1976 ई. |
मृत्यु स्थान | भारत |
अभिभावक | हीरालाल, प्रेमदेवी |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | उपन्यासकार, लेखक, निबंधकार |
मुख्य रचनाएँ | 'वो दुनिया', 'दिव्या', 'देशद्रोही', 'फूलों का कुर्ता', 'पिंजरे की उड़ान', 'ज्ञानदान' आदि। |
विद्यालय | गुरुकुल कांगड़ी, नेशनल कॉलेज, लाहौर |
पुरस्कार-उपाधि | 'देव पुरस्कार' (1955), 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' (1970), 'मंगला प्रसाद पारितोषिक' (1971) तथा 'पद्म भूषण' |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
यशपाल (अंग्रेज़ी: Yashpal, जन्म- 3 दिसम्बर, 1903 ई., फ़िरोजपुर छावनी; मृत्यु- 26 दिसंबर, 1976) हिन्दी के यशस्वी कथाकार और निबन्ध लेखक हैं। यशपाल राजनीतिक तथा साहित्यिक, दोनों क्षेत्रों में क्रान्तिकारी हैं। उनके लिए राजनीति तथा साहित्य दोनों साधन हैं और एक ही लक्ष्य की पूर्ति में सहायक हैं।
जीवन परिचय
हिन्दी के यशस्वी कथाकार और निबन्धकार यशपाल का जन्म 3 दिसम्बर, 1903 ई. में फ़िरोजपुर छावनी में हुआ था। इनके पूर्वज कांगड़ा ज़िले के निवासी थे और इनके पिता 'हीरालाल' को विरासत के रूप में दो-चार सौ गज़ तथा एक कच्चे मकान के अतिरिक्त और कुछ नहीं प्राप्त हुआ था। इनकी माँ प्रेमदेवी ने उन्हें आर्य समाज का तेजस्वी प्रचारक बनाने की दृष्टि से शिक्षार्थ 'गुरुकुल कांगड़ी' भेज दिया। गुरुकुल के राष्ट्रीय वातावरण में बालक यशपाल के मन में विदेशी शासन के प्रति विरोध की भावना भर गयी।
क्रान्तिकारी आन्दोलन
लाहौर के 'नेशनल कॉलेज' में भर्ती हो जाने पर इनका परिचय भगतसिंह और सुखदेव से हो गया। वे भी क्रान्तिकारी आन्दोलन की ओर आकृष्ट हुए। सन् 1921 ई. के बाद तो ये सशस्त्र क्रान्ति के आन्दोलन में सक्रिय भाग लेने लगे। सन् 1929 ई. में वाइसराय की गाड़ी के नीचे बम रखने के लिए घटनास्थल पर उनको भी जाना पड़ा, बाद में कुछ ग़लतफ़हमी के कारण वे अपने दल की ही गोली के शिकार होते-होते बचे।
जेल यात्रा
चन्द्रशेखर आज़ाद के शहीद हो जाने पर वे 'हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्र' के कमाण्डर नियुक्त हुए। इसी समय दिल्ली और लाहौर में दिल्ली तथा लाहौर षड्यंत्र के मुक़दमें चलते रहे। यशपाल इन मुक़दमों के प्रधान अभियुक्तों में थे। पर ये फ़रार थे और पुलिस के हाथ में नहीं आ पाये थे। 1932 ई. में पुलिस से मुठभेड़ हो जाने पर गोलियों का भरपूर आदान-प्रदान करने के अनन्तर, ये गिरफ़्तार हो गये। उन्हें चौदह वर्ष की सख़्त सज़ा हुई। सन् 1938 ई. में उत्तर प्रदेश में जब कांग्रेस मंत्रिमण्डल बना तो अन्य राजनीतिक बन्दियों के साथ इनको भी मुक्त कर दिया गया।
जेल में लिखी रचनाएँ
जेल से मुक्त होने पर इन्होंने 'विप्लव' मासिक निकाला, जो थोड़े ही दिनों में काफ़ी लोकप्रिय हो गया। 1941 ई. में इनके गिरफ़्तार हो जाने पर 'विप्लव' बन्द हो गया, किन्तु अपनी विचारधारा के प्रचार में इन्होंने विप्लव का भरपूर प्रयोग किया। विभिन्न ज़िलों में उन्हें पढ़ने-लिखने का जो अवकाश मिला था, उसमें उन्होंने देश-विदेश के बहुत से लेखकों का मनोयोगपूर्ण अध्ययन किया। 'पिंजरे की उड़ान' और 'वो दुनियाँ' की कहानियाँ प्राय: जेल में ही लिखी गयी।
साहित्यिक जीवन
यशपाल में लिखने की प्रवृत्ति विद्यार्थी काल से ही थी, पर उनके क्रान्तिकारी जीवन ने उन्हें अनुभव सम्बद्ध किया, अनेकानेक संघर्षों से जूझने का बल दिया। राजनीतिक तथा साहित्यिक, दोनों क्षेत्रों में वे क्रान्तिकारी हैं। उनके लिए राजनीति तथा साहित्य दोनों साधन हैं और एक ही लक्ष्य की पूर्ति में सहायक हैं। साहित्य के माध्यम से उन्होंने वैचारिक क्रान्ति की भूमिका तैयार करने का प्रयास किया है। विचारों से वे काफ़ी दूर तक मार्क्सवादी हैं, पर कट्टरता से मुक्त होने के कारण इससे उनकी साहित्यिकता को प्राय: क्षति नहीं पहुँची है, उससे वे लाभान्वित ही हुए हैं।
कहानीकार
यशपाल पहले-पहल कहानीकार के रूप में हिन्दी जगत् में आये। अब तक उनके लगभग सोलह 'कहानी संग्रह' प्रकाशित हो चुके हैं। यशपाल मुख्यत: मध्यमवर्गीय जीवन के कलाकार हैं और इस वर्ग से सम्बद्ध उनकी कहानियाँ बहुत ही मार्मिक बन पड़ीं हैं। मध्यवर्ग की असंगतियों, कमज़ोरियों, विरोधाभासों, रूढ़ियों आदि पर इतना प्रबल कशाघात करने वाला कोई दूसरा कहानीकार नहीं है। दो विरोधी परिस्थितियों का वैषम्य प्रदर्शित कर व्यंग्य की सर्जना उनकी प्रमुख विशेषता है। यथार्थ जीवन की नवीन प्रसंगोदभावना द्वारा वे अपनी कहानियों को और भी प्रभावशाली बना देते हैं।
मध्यवर्ग अपनी ही रूढ़ियों में जकड़ा हुआ कितना दयनीय हो जाता है, इसका अच्छा ख़ासा उदाहरण 'चार आने' है। झूठी और कृत्रिम प्रतिष्ठा के बोझ को ढोते-ढोते यह वर्ग अपने दैन्य और विवशता में उजागर हो उठा है। 'गवाही' और 'सोमा का साहस' में समाज के ग़लीज़, नक़ाब और कृत्रिमता की तस्वीरें खींची गयीं हैं। इस वर्ग के वैमनस्य में निम्न वर्ग को रखकर उसके अंहकार और अमानवीय व्यवहार को बहुत ही मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त करने में यशपाल ख़ूब कुशल हैं। 'एक राज़' में मालकिन और नौकर की मनोवृत्तियों की विषमताओं को इस तरह से उभारा गया है कि पाठक नौकर की सहानुभूति में तिलमिला उठता है। 'गुडबाई दर्द दिल' में रिक्शेवाले के प्रति की गयी अमानुषिकता पाठकों के मन में गहरी कचोट पैदा करती है। इस प्रकार की विषमता को अंकित करने के लिए यशपाल ने प्राय: उच्च मध्यवर्गीय व्यक्तियों को सामने रखा है, क्योंकि सामान्य मध्यवर्गीय व्यक्ति तो अपनी उलझनों से ही ख़ाली नहीं हो पाता।
यशपाल के व्यंग्य का तीखा रूप '80/100', 'ज्ञानदान' आदि में देखा जा सकता है। सामान्यत: कहा जाता है कि उन्होंने अपनी कथा के लिए रोटी और सेक्स की समस्याएँ चुनी हैं। यशपाल की कहानियों में कोई न कोई जीवन्त समस्या है, पर वे पूर्णत: कलात्मक आवरण में व्यक्त हुई हैं। जहाँ उनकी समस्या को कलात्मक आच्छादन नहीं मिल सका, वहाँ कहानी का कहानीपन संदिग्ध हो गया है।
उपन्यासकार
उपन्यास में यशपाल का दृष्टिकोण और भी अधिक अच्छी तरह उभर सका है। उनका पहला उपन्यास 'दादा कामरेड' क्रान्तिकारी जीवन का चित्रण करते हुए मज़दूरों के संघठन को राष्ट्रोद्धार का अधिक संगत उपाय बतलाया है। 'देश द्रोही' कला की दृष्टि से 'दादा कामरेड' से कई क़दम आगे है। इस उपन्यास में गांधीवाद तथा कांग्रेस की तीव्र आलोचना करते हुए लेखक ने समाजवादी व्यवस्था का आग्रह किया है। 'दिव्या' यशपाल के श्रेष्ठ उपन्यासों में एक से है। इस उपन्यास में युग-युग की उस दलित-पीड़ित नारी की करुण कथा है, जो अनेकानेक संघर्षों से गुज़रती हुई अपना स्वस्थ मार्ग पहचान लेती है। 'मनुष्य के रूप' में परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से मनुष्य के बदलते हुए रूपों को प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया गया है। 'अमिता' उपन्यास 'दिव्या' की भाँति ऐतिहासिक है।
कुछ समय पहले ही यशपाल का अत्यन्त विशिष्ट उपन्यास 'झूठा-सच' प्रकाशित हुआ है। विभाजन के समय देश में जो भीषण रक्तपात और अव्यवस्था उत्पन्न हुई, उसके व्यापक फलक पर झूठ-सच का रंगीन चित्र खींचा गया है। इसके दो भाग हैं- वतन और देश तथा देश का भविष्य। प्रथम भाग में विभाजन के फलस्वरूप लोगों के वतन छूटने और द्वितीय भाग में बहुत सी समस्याओं के समाधान का चित्रण हुआ है। देश के समसामयिक वातावरण को यथासम्भव ऐतिहासिक यथार्थ के रूप में रखा गया है। विविध समस्याओं के साथ-साथ इस उपन्यास में जिन नये नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा की गयी है, वे रूढ़िग्रस्त विचारों को प्रबल झटका देते हैं।
निबन्ध, संस्मरण और रेखाचित्र
एक सफल कथाकार होने के साथ-साथ यशपाल अच्छे व्यक्तित्व-व्यंजक निबन्धकार भी हैं। वे अपने दृष्टिकोण के आधार पर सड़ी-गली रूढ़ियों, ह्रासोन्मुखी, प्रवृत्तियों पर जमकर प्रहार करते हैं। उन्होंने सरस तथा व्यंग्य-विनोद, गर्भ संस्मरण और रेखाचित्र भी लिखे हैं। 'न्याय का संघर्ष', 'देखा सोचा, समझा', 'सिंहावलोकन' (तीन भाग) आदि में उनके निबन्ध, संस्मरण और रेखाचित्र संग्रहीत हैं।
कृतियाँ
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- संस्मरण और अन्य
संस्मरण के तीन भाग हैं :
पुरस्कार
इनकी साहित्य सेवा तथा प्रतिभा से प्रभावित होकर रीवा सरकार ने 'देव पुरस्कार' (1955), सोवियत लैंड सूचना विभाग ने 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' (1970), हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने 'मंगला प्रसाद पारितोषिक' (1971) तथा भारत सरकार ने 'पद्म भूषण' की उपाधि प्रदान कर इनको सम्मानित किया है।
मृत्यु
यशपाल हिन्दी के अतिशय शक्तिशाली तथा प्राणवान साहित्यकार थे। अपने दृष्टिकोण को व्यक्त करने के लिए उन्होंने साहित्य का माध्यम अपनाया था। लेकिन उनका साहित्य-शिल्प इतना ज़ोरदार है कि विचारों की अभिव्यक्ति में उनकी साहत्यिकता कहीं पर भी क्षीण नहीं हो पाई है। यशपाल जी का सन् 26 दिसंबर, 1976 ई. में निधन हो गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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