कंबन

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कंबन तमिल भाषा के प्रसिद्ध ग्रंथ 'कंबरामायण' के रचियता थे। इनका जन्म तमिलनाडु के चोल राज्य में तिरुवलुंपूर नामक गांव में हुआ था। कंबन वैष्णव थे। उनके समय तक बारह प्रमुख आलवार हो चुके थे और भक्ति तथा प्रपति का शास्त्रीय विवेचन करने वाले यामुन, रामानुज आदि आचार्यों की परंपरा भी चल पड़ी थी। 'कंबरामायण' का प्रचार-प्रसार केवल तमिलनाडु में ही नहीं, उसके बाहर भी हुआ। यह तमिल साहित्य की सर्वोत्कृष्ट कृति एवं एक बृहत ग्रंथ है।

जीवन परिचय

जनश्रुति के अनुसार कंबन का जन्म ईसा की नवीं शताब्दी में हुआ था। कुछ विद्वान् इनका समय बारहवीं शताब्दी और कुछ नवीं शताब्दी मानते हैं। कंबन के वास्तविक नाम का पता नहीं है। 'कंबन' उनका उपनाम था। इनके माता-पिता का उनकी बाल्यावस्था में ही देहांत हो गया। अनाथ बालक को पालने वाला कोई नहीं था। उनके दूर के एक संबंधी अर्काट ज़िले के सदैयप्प वल्लल नामक धनी किसान के दरवाज़े पर कंबन को चुपचाप छोड़ आए। दयालु वल्लल ने बालक को अपने बच्चों की देख-रेख के काम के लिए अपने घर में रख लिया। जब उन्होंने देखा कि उनके बच्चों के साथ कंबन भी पढ़ने में रुचि लेने लगा है तो सदैयप्प वल्लल ने कंबन की शिक्षा का भी पूरा प्रबंध कर दिया। इस प्रकार कंबन को विद्या प्राप्त हुई और उनके अंदर से काव्य की प्रतिभा प्रस्फुटित हो गई।

कंबरामायण

कंबन वैष्णव थे। उनके समय तक बारहों प्रमुख आलवार हो चुके थे और भक्ति तथा प्रपति का शास्त्रीय विवेचन करने वाले यामुन, रामानुज आदि आचार्यों की परंपरा भी चल पड़ी थी। कंबन ने प्रमुख आलवार 'नम्मालवार'[1] की प्रशस्ति की है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि कंबन की 'रामायण' रंगनाथ जी को तभी स्वीकृत हुई, जब उन्होंने 'नम्मालवार' की स्तुति उक्त ग्रंथ के आरंभ में की। इतना ही नहीं, 'कंबरामायण' में यत्र-तत्र उक्त आलवार की श्रीसूक्तियों की छाया भी दिखाई पड़ती है, तो भी कंबन ने अपने महाकाव्य को केवल सांप्रदायिक नहीं बनाया है, उन्होंने शिव, विष्णु के रूप[2] में भी परमात्मा का स्तवन किया है और रामचंद्र को उस परमात्मा का ही अवतार माना है। ग्रंथारंभ में एवं प्रत्येक कांड के आदि में प्रस्तुत मंगलाचरण के पद्यों से उक्त तथ्य प्रकट होता है। प्रो.टी.पी. मीनाक्षिसुंदरम भी 'कंबरामायण' को केवल 'वैष्णव संप्रदाय' का 'ग्रंथ' नहीं मानते। इसीलिए शैवों तथा वैष्णवों में 'कंबरामायण' का समान आदर हुआ और दोनों संप्रदायों के पारस्परिक वैमनस्य के दूर होने में इससे पर्याप्त सहायता मिली।[3]

सर्वोत्कृष्ट कृति

'कंबरामायण' तमिल साहित्य की सर्वोत्कृष्ट कृति एवं एक बृहत ग्रंथ है[4] और इसके रचयिता कंबन 'कविचक्रवर्ती' की उपाधि से प्रसिद्ध हैं। उपलब्ध ग्रंथ में 10,050 पद्य हैं और बालकाण्ड से युद्धकाण्ड तक छ: कांडों का विस्तार इसमें मिलता है। इससे संबंधित एक उत्तरकाण्ड भी प्राप्त है, जिसके रचयिता कंबन के समसामयिक एक अन्य महाकवि 'ओट्टककूत्तन' माने जाते हैं। पौराणिकों के कारण 'कंबरामायण' में अनेक प्रक्षेप भी जुड़ गए हैं, किंतु इन्हें बड़ी आसानी से पहचाना जा सकता है, क्योंकि कंबन की सशक्त भाषा और विलक्षण प्रतिपादन शैली का अनुकरण शक्य नहीं है।

कथानक

'कंबरामायण' का कथानक 'वाल्मीकि रामायण' से लिया गया है, परंतु कंबन ने मूल 'रामायण' का अनुवाद अथवा छायानुवाद न करके, अपनी दृष्टि और मान्यता के अनुसार घटनाओं में सैकड़ों परिवर्तन किए हैं। विविध परिस्थितियों के प्रस्तुतीकरण, घटनाओं के चित्रण, पात्रों के संवाद, प्राकृतिक दृश्यों के उपस्थापन तथा पात्रों की मनोभावनाओं की अभिव्यक्ति में पदे-पदे मौलिकता मिलती है। तमिल भाषा की अभिव्यक्ति और संप्रेषणीयता को सशक्त बनाने के लिए भी कवि ने अनेक नए प्रयोग किए हैं। छंदोविधान, अलंकार प्रयोग तथा शब्द नियोजन के माध्यम से कंबन ने अनुपम सौंदर्य की सृष्टि की है। सीता-राम का विवाह, शूर्पणखा प्रसंग, बालि वध, हनुमान द्वारा सीता संदर्शन, मेघनाद वध, राम-रावण युद्ध आदि प्रसंग अपने-अपने काव्यात्मक सौंदर्य के कारण विशेष आकर्षक हैं। लगता है प्रत्येक प्रसंग अपने में पूर्ण है और नाटकीयता से ओतप्रोत है। घटनाओं के विकास के सुनिश्चित क्रम हैं। प्रत्येक घटना आरंभ, विकास और परिसमाप्ति में एक विशिष्ट शिल्प विधान लेकर सामने आती है।[3]

राम चरित्र की व्याख्या

वाल्मीकि ने राम के रूप में 'पुरुष पुरातन' का नहीं, अपितु 'महामानव का चित्र उपस्थित किया था, जबकि कंबन ने अने युगादर्श के अनुरूप राम को परमात्मा के अवतार के साथ आदर्श महामानव के रूप में भी प्रतिष्ठित किया। वैष्णव भक्ति तत्कालीन मान्यताओं और जनता की भक्तिपूत भावनाओं से जुड़े रहकर इस महाकवि ने राम के चरित्र को महत्ता पूरित एवं परम पूर्णत्व समन्वित ऐसे आयामों में प्रस्तुत किया, जिनकी इयत्ता और ईदृक्ता सहज ग्राह्य होते हुए भी अकल्पनीय रूप से मनोहर किंवा मनोरम थी। यह निश्चित ही कंबन जैसा अनन्य सुलभ प्रतिभावान महाकवि ही कर सकता था।

तुलसी और कंबन

कंबन की 'कंबरामायण' का प्रचार-प्रसार केवल तमिलनाडु में ही नहीं, उसके बाहर भी हुआ। तंजौर ज़िले में स्थित तिरुप्पणांदाल मठ की एक शाखा वाराणसी में है। लगभग 350 वर्ष पूर्व कुमारगुरुपर नाम के एक संत उक्त मठ में रहते थे। संध्या वेला में वे नित्यप्रति गंगा तट पर आकर 'कंबरामायण' की व्याख्या हिंदी में सुनाया करते थे। गोस्वामी तुलसीदास उन दिनों काशी में ही थे और संभवत: 'रामचरितमानस' की रचना कर रहे थे। दक्षिण में जनविश्वास प्रचलित है कि तुलसीदास ने 'कंबरामायण' से प्ररेणा ही प्राप्त नहीं की, अपितु मानस में कई स्थलों पर अपने ढंग से, उसकी सामग्री का उपयोग भी किया। यद्यपि उक्त विश्वास की प्रामाणिकता विवादास्पद है, तो भी इतना सच है कि तुलसी और कंबन की रचनाओं में कई स्थलों पर आश्चर्यजनक समानता मिलती है।

विद्वान् कथन

श्री वी.वी.एस. अय्यर[5] के अनुसार 'कंब रामायण' विश्व साहित्य में उत्तम कृति है। 'इलियड', 'पैराडाइज़ लॉस्ट' और 'महाभारत से ही नहीं, वरन् आदिकाव्य 'वाल्मीकि रामायण' की तुलना में भी यह अधिक सुंदर है।'[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पाँचवे आलवार जो शठकोप या परांकुश मुनि के नाम से भी प्रसिद्ध हैं
  2. केवल सृष्टिकर्ता
  3. 3.0 3.1 3.2 कंबन (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 28 जनवरी, 2014।
  4. डॉ.आर.पी. सेतुपिल्लै, तमिल विभागाध्यक्ष, मद्रास विश्वविद्यालय का अंग्रेज़ी में 'तमिल लिटरेचर' शीर्षक लेख
  5. कंब रामायण-ए स्टडी

लीलाधर, शर्मा भारतीय चरित कोश (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: शिक्षा भारती, 123।

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