तैत्तिरीयोपनिषद भृगुवल्ली अनुवाक-10: Difference between revisions

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*इस अनुवाक में ऋषि बताते हैं कि घर में आये अतिथि का कभी तिरस्कार न करें। जिस प्रकार भी बने, अतिथि का मन से आदर-सत्कार करें। उसे प्रेम से भोजन करायें। आप उसे जिस भाव से भी-ऊंचे, मध्यम अथवा निम्न-भाव से भोजन कराते हैं, आपको वैसा ही अन्न प्राप्त होता है। जो इस तथ्य को जानता है, वह अतिथि का उत्तम आदर-सत्कार करता है।  
*इस अनुवाक में ऋषि बताते हैं कि घर में आये अतिथि का कभी तिरस्कार न करें।  
*वह परमात्मा, मनुष्य की वाणी में शक्ति-रूप से विद्यमान है। वह प्राण-अपान में प्रदाता भी है और रक्षक भी है। वह हाथों में कर्म करने की शक्ति, पैरों में चलने की गति, गुदा में विसर्जन की शक्ति के रूप में स्थित है। यह ब्रह्म की 'मानुषी सत्ता' है।
*जिस प्रकार भी बने, अतिथि का मन से आदर-सत्कार करें। उसे प्रेम से भोजन करायें।  
*परमात्मा अपनी 'दैवी सत्ता' का प्रदर्शन वर्षा द्वारा, विद्युत द्वारा, पशुओं द्वारा, [[ग्रह]]-[[नक्षत्र|नक्षत्रों]] की ज्योति द्वारा, उपस्थ में प्रजनन-सामर्थ्य द्वारा, वीर्य और आनन्द के द्वारा अभिव्यक्त करता है। वह आकाश में व्यापक विश्व अथवा ब्रह्माण्ड के रूप में स्थित है। वह सबका आधार रस है। वह सबसे महान है। वह 'मन' है, वह नमन के योग्य है, वह ब्रह्म है, वह आकाश है, वह मृत्यु है, वह [[सूर्य देवता|सूर्य]] है, वह अन्नमय आत्मा है, वह प्राणमय है, वह मनोमय है, वह विज्ञानमय है, वह आनन्दमय है।  
*आप उसे जिस भाव से भी-ऊंचे, मध्यम अथवा निम्न-भाव से भोजन कराते हैं, आपको वैसा ही अन्न प्राप्त होता है।  
*इस प्रकार जो उसे जान लेता है, वह मननशील, सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करे लेने वाला, ब्रह्ममय, शत्रु-विनाशक और इच्छित भोगों को प्राप्त करने वाला महान आनन्दमय साधक हो जाता है। सभी लोकों में उसका गमन सहज हो जाता है।  
*जो इस तथ्य को जानता है, वह अतिथि का उत्तम आदर-सत्कार करता है।  
*तब उसे आश्चर्य होता है कि वह स्वयं आत्मतत्त्व अन्न है, आत्मा है, स्व्यं ही उसे भोग करने वाला है। वही उसका नियामक है और वही उसका भोक्ता है। वही मन्त्र है और वही मन्त्रदृष्टा है। वही इस प्रत्यक्ष सत्य-रूप जगत का प्रथम उत्पत्तिकर्ता है और वही उसको लय कर जाता है। उसका तेज सूर्य के समान है। जो साधक ऐसा अनुभव करने लगता है, वह उसी के अनुरूप सामर्थ्यवान हो जाता है।
*वह परमात्मा, मनुष्य की वाणी में शक्ति-रूप से विद्यमान है।  
*वह प्राण-अपान में प्रदाता भी है और रक्षक भी है।  
*वह हाथों में कर्म करने की शक्ति, पैरों में चलने की गति, गुदा में विसर्जन की शक्ति के रूप में स्थित है। यह ब्रह्म की 'मानुषी सत्ता' है।
*परमात्मा अपनी 'दैवी सत्ता' का प्रदर्शन वर्षा द्वारा, विद्युत द्वारा, पशुओं द्वारा, [[ग्रह]]-[[नक्षत्र|नक्षत्रों]] की ज्योति द्वारा, उपस्थ में प्रजनन-सामर्थ्य द्वारा, वीर्य और आनन्द के द्वारा अभिव्यक्त करता है।  
*वह आकाश में व्यापक विश्व अथवा ब्रह्माण्ड के रूप में स्थित है।  
*वह सबका आधार रस है। वह सबसे महान् है।  
*वह 'मन' है, वह नमन के योग्य है, वह ब्रह्म है, वह आकाश है, वह मृत्यु है, वह [[सूर्य देवता|सूर्य]] है, वह अन्नमय आत्मा है, वह प्राणमय है, वह मनोमय है, वह विज्ञानमय है, वह आनन्दमय है।  
*इस प्रकार जो उसे जान लेता है, वह मननशील, सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करे लेने वाला, ब्रह्ममय, शत्रु-विनाशक और इच्छित भोगों को प्राप्त करने वाला महान् आनन्दमय साधक हो जाता है।  
*सभी लोकों में उसका गमन सहज हो जाता है।  
*तब उसे आश्चर्य होता है कि वह स्वयं आत्मतत्त्व अन्न है, आत्मा है, स्वयं ही उसे भोग करने वाला है।  
*वही उसका नियामक है और वही उसका भोक्ता है। वही मन्त्र है और वही मन्त्रद्रष्टाहै।
*वही इस प्रत्यक्ष सत्य-रूप जगत् का प्रथम उत्पत्तिकर्ता है और वही उसको लय कर जाता है। उसका तेज सूर्य के समान है।  
*जो साधक ऐसा अनुभव करने लगता है, वह उसी के अनुरूप सामर्थ्यवान हो जाता है।


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  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य
  • इस अनुवाक में ऋषि बताते हैं कि घर में आये अतिथि का कभी तिरस्कार न करें।
  • जिस प्रकार भी बने, अतिथि का मन से आदर-सत्कार करें। उसे प्रेम से भोजन करायें।
  • आप उसे जिस भाव से भी-ऊंचे, मध्यम अथवा निम्न-भाव से भोजन कराते हैं, आपको वैसा ही अन्न प्राप्त होता है।
  • जो इस तथ्य को जानता है, वह अतिथि का उत्तम आदर-सत्कार करता है।
  • वह परमात्मा, मनुष्य की वाणी में शक्ति-रूप से विद्यमान है।
  • वह प्राण-अपान में प्रदाता भी है और रक्षक भी है।
  • वह हाथों में कर्म करने की शक्ति, पैरों में चलने की गति, गुदा में विसर्जन की शक्ति के रूप में स्थित है। यह ब्रह्म की 'मानुषी सत्ता' है।
  • परमात्मा अपनी 'दैवी सत्ता' का प्रदर्शन वर्षा द्वारा, विद्युत द्वारा, पशुओं द्वारा, ग्रह-नक्षत्रों की ज्योति द्वारा, उपस्थ में प्रजनन-सामर्थ्य द्वारा, वीर्य और आनन्द के द्वारा अभिव्यक्त करता है।
  • वह आकाश में व्यापक विश्व अथवा ब्रह्माण्ड के रूप में स्थित है।
  • वह सबका आधार रस है। वह सबसे महान् है।
  • वह 'मन' है, वह नमन के योग्य है, वह ब्रह्म है, वह आकाश है, वह मृत्यु है, वह सूर्य है, वह अन्नमय आत्मा है, वह प्राणमय है, वह मनोमय है, वह विज्ञानमय है, वह आनन्दमय है।
  • इस प्रकार जो उसे जान लेता है, वह मननशील, सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करे लेने वाला, ब्रह्ममय, शत्रु-विनाशक और इच्छित भोगों को प्राप्त करने वाला महान् आनन्दमय साधक हो जाता है।
  • सभी लोकों में उसका गमन सहज हो जाता है।
  • तब उसे आश्चर्य होता है कि वह स्वयं आत्मतत्त्व अन्न है, आत्मा है, स्वयं ही उसे भोग करने वाला है।
  • वही उसका नियामक है और वही उसका भोक्ता है। वही मन्त्र है और वही मन्त्रद्रष्टाहै।
  • वही इस प्रत्यक्ष सत्य-रूप जगत् का प्रथम उत्पत्तिकर्ता है और वही उसको लय कर जाता है। उसका तेज सूर्य के समान है।
  • जो साधक ऐसा अनुभव करने लगता है, वह उसी के अनुरूप सामर्थ्यवान हो जाता है।


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