भातपाँत: Difference between revisions
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Latest revision as of 12:16, 21 March 2014
- भातपाँत एक विचारधारा है। भातपाँत का अर्थ है, "एक पंक्ति में बैठकर समान कुल के लोगों के द्वारा कच्चा भोजन करना।"
- यह विचारधारा बहुत प्राचीन है।
- पुराणों और स्मृतियों में हव्य-कव्यग्रहण के सम्बन्ध में ब्राह्मणों की एक पंक्ति में बैठने की पात्रता पर विस्तार से विचार हुआ है।
- मनुस्मृति[1] में लिखा है कि धर्मज्ञ पुरुष हव्य (देवकर्म) में ब्राह्मण की उतनी जाँच न करे, किन्तु कव्य (पितृकर्म) में ब्राह्मणों के आचार-विचार, विद्या, कुल, शील की अच्छी तरह जाँच कर ले। एक लम्बी सूची अपाङ्क्तेयता की दी हुई है।
- इस प्रसंग से यह पता चलता है कि मनुस्मृति के समय तक द्विज मात्र एक दूसरे के यहाँ भोजन करते थे। विचारवान व्यक्ति यह देख लेते थे कि जिसके यहाँ हम भोजन करते हैं, वह स्वयं सच्चरित्र है, उसका कुल सदाचारी है और उसके यहाँ छूत वाले रोगी तो नहीं हैं।
- जब अधिक संख्या में लोग खाने बैठते थे, तब भी इसका विचार होता था। पंक्ति का विचार हव्य-कव्य में ब्राह्मणों के अंतर्गत चलता था।
- देखादेखी पंक्ति का ऐसा ही नियम और वर्गों में भी चल पड़ा। जिसे अपाङ्क्तेय या पंक्ति से बाहर कर देते थे, वह फिर भी पतित समझा जाता था।
- बड़े भोज उन्हीं लोगों में सम्भव थे, जो कि एक ही स्थान के रहने वाले, एक ही तरह का काम या व्यवसाय करते थे और जिनकी परस्पर नातेदारियाँ थीं।
- विवाह भी इसी प्रकार समान कर्म और वर्ण, समान कुलशील के लोगों में होना आवश्यक था। इसलिए भातपाँत का जन्म हो गया।
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