चिदंबरा -सुमित्रानन्दन पंत: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
No edit summary |
||
(One intermediate revision by the same user not shown) | |||
Line 31: | Line 31: | ||
[[सुमित्रानन्दन पंत]] की द्वितीय उत्थान की रचनाएँ, जिनमें युग की, भौतिक आध्यात्मिक दोनों चरणों की, प्रगति की चापें ध्वनित हैं, समय-समय पर विशेष रूप से, कटु आलोचनाओं एवं आक्षेपों की लक्ष्य रही हैं। ये आलोचनाएँ प्रकारांतर से उस युग के साहित्यिक मूल्यों तथा रूप-शिल्प संबंधी संघर्षों तथा द्वन्द्वों की निदर्शन हैं, और स्वयं अपने आप में एक मनोरंजक अध्ययन भी। आने वाली पीढ़ियाँ निश्चयपूर्वक देख सकेंगी कि उस युग का [[साहित्य]], विशेषकर, आलोचना क्षेत्र, किस प्रकार संकीर्ण, एकांगी, पक्षधर तथा वादग्रस्त रहा है और उसमें तब की राजनीतिक दलबंदियों के प्रतिफल स्वरूप किस प्रकार मान्यताओं तथा कला-रुचि संबंधी साहित्यिक गुटबंदियाँ रही हैं। भविष्य निश्चय ही इस युग के कृतित्व पर अधिक निष्पक्ष निर्णय दे सकेगा, काल ही वह राज-मराल है जो नीर-क्षीर विवेक की क्षमता रखता है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=3211|title=चिदंबरा, सुमित्रानन्दन पंत|accessmonthday= 10 सितम्बर|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | [[सुमित्रानन्दन पंत]] की द्वितीय उत्थान की रचनाएँ, जिनमें युग की, भौतिक आध्यात्मिक दोनों चरणों की, प्रगति की चापें ध्वनित हैं, समय-समय पर विशेष रूप से, कटु आलोचनाओं एवं आक्षेपों की लक्ष्य रही हैं। ये आलोचनाएँ प्रकारांतर से उस युग के साहित्यिक मूल्यों तथा रूप-शिल्प संबंधी संघर्षों तथा द्वन्द्वों की निदर्शन हैं, और स्वयं अपने आप में एक मनोरंजक अध्ययन भी। आने वाली पीढ़ियाँ निश्चयपूर्वक देख सकेंगी कि उस युग का [[साहित्य]], विशेषकर, आलोचना क्षेत्र, किस प्रकार संकीर्ण, एकांगी, पक्षधर तथा वादग्रस्त रहा है और उसमें तब की राजनीतिक दलबंदियों के प्रतिफल स्वरूप किस प्रकार मान्यताओं तथा कला-रुचि संबंधी साहित्यिक गुटबंदियाँ रही हैं। भविष्य निश्चय ही इस युग के कृतित्व पर अधिक निष्पक्ष निर्णय दे सकेगा, काल ही वह राज-मराल है जो नीर-क्षीर विवेक की क्षमता रखता है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=3211|title=चिदंबरा, सुमित्रानन्दन पंत|accessmonthday= 10 सितम्बर|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | ||
==लेखक का कथन== | ==लेखक का कथन== | ||
इस कविता संग्रह के विषय में सुमित्रानंदन पंत जी ने स्वयं लिखा है- "चिदंबरा की पृथु-आकृति में मेरी भौतिक, सामाजिक, मानसिक, आध्यात्मिक संचरणों से प्रेरित कृतियों को एक स्थान पर एकत्रित देखकर पाठकों को उनके भीतर व्याप्त एकता के सूत्रों को समझने में अधिक सहायता मिल सकेगी। इसमें मैंने अपनी सीमाओं के भीतर, अपने युग के बहिरंतर के जीवन तथा चैतन्य को, नवीन मानवता की कल्पना से मण्डित कर, वाणी देने का प्रयत्न किया है। मेरी दृष्टि में '[[युगवाणी -सुमित्रनन्दन पंत|युगवाणी]]' से लेकर ' | इस कविता संग्रह के विषय में सुमित्रानंदन पंत जी ने स्वयं लिखा है- "चिदंबरा की पृथु-आकृति में मेरी भौतिक, सामाजिक, मानसिक, आध्यात्मिक संचरणों से प्रेरित कृतियों को एक स्थान पर एकत्रित देखकर पाठकों को उनके भीतर व्याप्त एकता के सूत्रों को समझने में अधिक सहायता मिल सकेगी। इसमें मैंने अपनी सीमाओं के भीतर, अपने युग के बहिरंतर के जीवन तथा चैतन्य को, नवीन मानवता की कल्पना से मण्डित कर, वाणी देने का प्रयत्न किया है। मेरी दृष्टि में '[[युगवाणी -सुमित्रनन्दन पंत|युगवाणी]]' से लेकर '[[वीणा -सुमित्रानन्दन पंत|वीणा]]' तक मेरी काव्य-चेतना का एक ही संचरण है, जिसके भीतर भौतिक और आध्यात्मिक चरणों की सार्थकता, द्विपद मानव की प्रकृति के लिए सदैव ही अनिवार्य रूप से रहेगी। पाठक देखेंगे कि इन रचनाओं में मैंने भौतिक-आध्यात्मिक, दोनों दर्शनों से जीवनोपयोगी तत्वों को लेकर, जड़-चेतन सम्बन्धी एकांगी दृष्टिकोण का परित्याग कर, व्यापक सक्रिय सामंजस्य के धरातल पर, नवीन लोक जीवन के रूप में, भरे-पूरे मनुष्यत्व अथवा मानवता का निर्माण करने का प्रयत्न किया है, जो इस युग की सर्वोपरि आवश्यकता है? | ||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} |
Latest revision as of 08:29, 11 September 2013
चिदंबरा -सुमित्रानन्दन पंत
| |
कवि | सुमित्रानन्दन पंत |
मूल शीर्षक | 'चिदंबरा' |
प्रकाशक | राजकमल प्रकाशन |
ISBN | 81-267-0491-8 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 354 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | गीत और कविताएँ |
प्रकार | काव्य संकलन |
विशेष | 'चिदंबरा' सुमित्रानन्दन पंत की रचना है। इसके लिए पंतजी को वर्ष 1961 में 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था। |
चिदंबरा हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार स्तम्भों में से एक सुमित्रानन्दन पंत की रचना है। सुमित्रानन्दन पंत के श्रेष्ठ कविता संग्रहों में 'चिदंबरा' को गिना जाता है। 'चिदंबरा' के लिए पंतजी को वर्ष 1961 में 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था। 'चिदंबरा' का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन द्वारा किया गया था।
विषय
यह कविता संग्रह सुमित्रानन्दन पंत की काव्य-चेतना के द्वितीय उत्थान की परिचायिका है। इसमें 'युगवाणी' से लेकर 'अतिमा' तक की रचनाओं का संचयन है, जिसमें 'युगवाणी', 'ग्राम्या', 'स्वर्णकिरण', 'स्वर्णधूलि', 'युगपथ', 'युगांतर', 'उत्तरा', 'रजतशिखर', 'शिल्पी', 'सौवर्ण' और 'अतिमा' की चुनी हुई कृतियों के साथ 'वीणा' की अंतिम रचना 'आत्मिका' भी सम्मिलित है। 'पल्लविनी' में सन 18 से लेकर 36 तक, उनके उन्नीस वर्षों को संजोया गया है, और 'चिदंबरा' में सन 37 से 57 तक, प्रायः बीस वर्षों की विकास श्रेणी का विस्तार है।
सुमित्रानन्दन पंत की द्वितीय उत्थान की रचनाएँ, जिनमें युग की, भौतिक आध्यात्मिक दोनों चरणों की, प्रगति की चापें ध्वनित हैं, समय-समय पर विशेष रूप से, कटु आलोचनाओं एवं आक्षेपों की लक्ष्य रही हैं। ये आलोचनाएँ प्रकारांतर से उस युग के साहित्यिक मूल्यों तथा रूप-शिल्प संबंधी संघर्षों तथा द्वन्द्वों की निदर्शन हैं, और स्वयं अपने आप में एक मनोरंजक अध्ययन भी। आने वाली पीढ़ियाँ निश्चयपूर्वक देख सकेंगी कि उस युग का साहित्य, विशेषकर, आलोचना क्षेत्र, किस प्रकार संकीर्ण, एकांगी, पक्षधर तथा वादग्रस्त रहा है और उसमें तब की राजनीतिक दलबंदियों के प्रतिफल स्वरूप किस प्रकार मान्यताओं तथा कला-रुचि संबंधी साहित्यिक गुटबंदियाँ रही हैं। भविष्य निश्चय ही इस युग के कृतित्व पर अधिक निष्पक्ष निर्णय दे सकेगा, काल ही वह राज-मराल है जो नीर-क्षीर विवेक की क्षमता रखता है।[1]
लेखक का कथन
इस कविता संग्रह के विषय में सुमित्रानंदन पंत जी ने स्वयं लिखा है- "चिदंबरा की पृथु-आकृति में मेरी भौतिक, सामाजिक, मानसिक, आध्यात्मिक संचरणों से प्रेरित कृतियों को एक स्थान पर एकत्रित देखकर पाठकों को उनके भीतर व्याप्त एकता के सूत्रों को समझने में अधिक सहायता मिल सकेगी। इसमें मैंने अपनी सीमाओं के भीतर, अपने युग के बहिरंतर के जीवन तथा चैतन्य को, नवीन मानवता की कल्पना से मण्डित कर, वाणी देने का प्रयत्न किया है। मेरी दृष्टि में 'युगवाणी' से लेकर 'वीणा' तक मेरी काव्य-चेतना का एक ही संचरण है, जिसके भीतर भौतिक और आध्यात्मिक चरणों की सार्थकता, द्विपद मानव की प्रकृति के लिए सदैव ही अनिवार्य रूप से रहेगी। पाठक देखेंगे कि इन रचनाओं में मैंने भौतिक-आध्यात्मिक, दोनों दर्शनों से जीवनोपयोगी तत्वों को लेकर, जड़-चेतन सम्बन्धी एकांगी दृष्टिकोण का परित्याग कर, व्यापक सक्रिय सामंजस्य के धरातल पर, नवीन लोक जीवन के रूप में, भरे-पूरे मनुष्यत्व अथवा मानवता का निर्माण करने का प्रयत्न किया है, जो इस युग की सर्वोपरि आवश्यकता है?
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चिदंबरा, सुमित्रानन्दन पंत (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 सितम्बर, 2013।
संबंधित लेख