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तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः।</poem><blockquote | तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः।</poem></blockquote> | ||
अर्थात- "हे कुंतीपुत्र [[अर्जुन]] ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है।" | अर्थात- "हे कुंतीपुत्र [[अर्जुन]] ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है।" | ||
'''अध्यात्म''' ([[विशेषण]]) [आत्मनि देहे मनसि वा इति विभव् त्यर्थे, अव्य. स.] | |||
*[[आत्मा]] या व्यक्ति से संबंध रखने वाला,-'''त्वम्''' (अव्य.) आत्मा से संबद्ध-त्मम् परब्रह्म (व्यक्ति के रूप में प्रकट) या आत्मा और परमात्मा का संबंध। | |||
सम.-'''ज्ञानम्''',-'''विद्या''' आत्मा या परमात्मा संबंधी ज्ञान अर्थात् ब्रह्म एवं आत्म-विषयक जानकारी ([[उपनिषद|उपनिषदों]] द्वारा बताए गए सिद्धांत)-'''रति''' ([[विशेषण]]) जो परमात्मचिन्तन में सुख का अनुभव करे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश|लेखक=वामन शिवराम आप्टे|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002|संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=33|url=|ISBN=}}</ref> | |||
Latest revision as of 06:32, 5 September 2023
अध्यात्म का अर्थ है- "अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना, मनना और दर्शन करना" अर्थात् अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना। 'गीता' के आठवें अध्याय में अपने स्वरूप अर्थात् जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है-
- "परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।"
आत्मा परमात्मा का अंश है, यह तो सर्विविदित है। जब इस सम्बन्ध में शंका या संशय, अविश्वास की स्थिति अधिक क्रियमान होती है, तभी हमारी दूरी बढ़ती जाती है और हम विभिन्न रूपों से अपने को सफल बनाने का निरर्थक प्रयास करते रहते हैं, जिसका परिणाम नाकारात्मक ही होता है। ये तो असंभव सा जान पड़ता है कि मिट्टी के बर्तन मिट्टी से अलग पहचान बनाने की कोशिश करें तो कोई क्या कहे ? यह विषय विचारणीय है।[1]
अध्यात्म की अनुभूति सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है। स्वयं की खोज तो सभी कर रहे हैं, परोक्ष व अपरोक्ष रूप से। परमात्मा के असीम प्रेम की एक बूँद मानव में पायी जाती है, जिसके कारण हम उनसे संयुक्त होते हैं; किन्तु कुछ समय बाद इसका लोप हो जाता है और हम निराश हो जाते हैं। सांसारिक बन्धनों में आनंद ढूंढते ही रह जाते हैं, परन्तु क्षणिक ही ख़ुशी पाते हैं। जब हम क्षणिक संबंधों, क्षणिक वस्तुओं को अपना जान कर उससे आनंद मनाते हैं, जब की हर पल साथ रहने वाला शरीर भी हमें अपना ही गुलाम बना देता है। हमारी इन्द्रियां अपने आप से अलग कर देती हैं। यह इतनी सूक्ष्मता से करती हैं कि हमें महसूस भी नहीं होता की हमने यह काम किया है?
जब हमें सत्य की समझ आती है तो जीवन का अंतिम पड़ाव आ जाता है व पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं लग पाता। ऐसी स्थिति का हमें पहले ही ज्ञान हो जाए तो शायद हम अपने जीवन में पूर्ण आनंद की अनुभूति के अधिकारी बन सकते हैं। हमारा इहलोक तथा परलोक भी सुधर सकता है। अब प्रश्न उठता है की यह ज्ञान क्या हम अभी प्राप्त कर सकते हैं? हाँ ! हम अभी जान सकते हैं कि अंत समय में किसकी स्मृति होगी, हमारा भाव क्या होगा ? हम फिर अपने भाव में अपेक्षित सुधार कर सकेंगे। 'गीता' के आठवें अध्याय श्लोक संख्या आठ में भी बताया गया है कि-
यंयंवापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः।
अर्थात- "हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है।"
अध्यात्म (विशेषण) [आत्मनि देहे मनसि वा इति विभव् त्यर्थे, अव्य. स.]
- आत्मा या व्यक्ति से संबंध रखने वाला,-त्वम् (अव्य.) आत्मा से संबद्ध-त्मम् परब्रह्म (व्यक्ति के रूप में प्रकट) या आत्मा और परमात्मा का संबंध।
सम.-ज्ञानम्,-विद्या आत्मा या परमात्मा संबंधी ज्ञान अर्थात् ब्रह्म एवं आत्म-विषयक जानकारी (उपनिषदों द्वारा बताए गए सिद्धांत)-रति (विशेषण) जो परमात्मचिन्तन में सुख का अनुभव करे।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्यात्म क्या है (हिन्दी) hindi.speakingtree.in। अभिगमन तिथि: 9 मार्च, 2016।
- ↑ संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश |लेखक: वामन शिवराम आप्टे |प्रकाशक: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 |पृष्ठ संख्या: 33 |