अन्नप्राशन संस्कार: Difference between revisions

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*<u>[[हिन्दू धर्म संस्कार|हिन्दू धर्म संस्कारों]] में अन्नप्राशन संस्कार सप्तम संस्कार है।</u>
[[चित्र:annaprasana-samskara.jpg|thumb|500|अन्नप्राशन संस्कार<br />Annaprasana Samskara]]
*इस संस्कार में बालक को अन्न ग्रहण कराया जाता है।  
*<u>[[हिन्दू धर्म संस्कार|हिन्दू धर्म संस्कारों]] में अन्नप्राशन संस्कार सप्तम संस्कार है।</u> इस संस्कार में बालक को अन्न ग्रहण कराया जाता है। अब तक तो शिशु माता का दुग्धपान करके ही वृद्धि को प्राप्त होता था, अब आगे स्वयं अन्न ग्रहण करके ही शरीर को पुष्ट करना होगा, क्योंकि प्राकृतिक नियम सबके लिये यही है। अब बालक को परावलम्बी न रहकर धीरे-धीरे स्वावलम्बी बनना पड़ेगा। केवल यही नहीं, आगे चलकर अपना तथा अपने परिवार के सदस्यों के भी भरण-पोषण का दायित्व संम्भालना होगा। यही इस संस्कार का तात्पर्य है।
*अब तक तो शिशु माता का दुग्धपान करके ही वृद्धि को प्राप्त होता था, अब आगे स्वयं अन्न ग्रहण करके ही शरीर को पुष्ट करना होगा, क्योंकि प्राकृतिक नियम सबके लिये यही है।
 
* अब बालक को परावलम्बी न रहकर धीरे-धीरे स्वावलम्बी बनना पड़ेगा। केवल यही नहीं, आगे चलकर अपना तथा अपने परिवार के सदस्यों के भी भरण-पोषण का दायित्व संम्भालना होगा। यही इस संस्कार का तात्पर्य है।
छ्ठे माह में बालक का अन्नप्राशन-संस्कार किया जाता है| शास्त्रों में अन्न को प्राणियों का प्राण कहा गया है| गीता में कहा गया है कि अन्न से ही प्राणी जीवित रहते हैं| अन्न से ही मन बनता है| इसलिए अन्न का जीवन में सर्वाधिक महत्तव है|
 
माता के गर्भ में मलिन भोजन के जो दोष शिशु में आ जाते हैं, उनके निवारण और शिशु को शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया को अन्नप्राशन-संस्कार कहा जाता है -
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
अन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति|
</poem></span></blockquote>
शिशु को जब 6-7 माह की अवस्था में पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त प्रथम बार यज्ञ आदि करके अन्न खिलाना प्रारंभ किया जाता है, तो यह कार्य अन्नप्रशन-संस्कार के नाम से जाना जाता है| इस संस्कार का उद्देश्य यह होता है शिशु सुसंस्कारी अन्न ग्रहण करे|
 
शुद्ध एवं सात्त्विक, पौष्टिक अन्न से ही शरीर व मन स्वस्थ रहते हैं तथा स्वस्थ मन ही ईश्वरानुभुति का एक मात्र साधन है| आहार शुद्ध होने पर ही अंतःकरण शुद्ध होता है|
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः|
</poem></span></blockquote>
अर्थात शुद्ध आहार से शरीर में सत्त्वगुण की वृद्धि होती है|
 
अन्न से केवल शरीर का पोषण ही नही होता, अपितु मन, बुद्धि, तेज व आत्मा का भी पोषण होता है| इसी कारण अन्नप्राशन को संस्कार रुप में स्वीकार करके शुद्ध, सात्त्विक व पौष्टिक अन्न को ही जीवन में लेने का व्रत करने हेतु अन्नप्राशन-संस्कार संपन्न किया जाता है| अन्नप्राशन का उद्देश्य बालक को तेजस्वी, बलशाली एवं मेधावी बनाना है, इसलिए बालक को धृतयुक्त भात या दही, शहद और धृत तीनों को मिलाकर अन्नप्राशन करने का का विधान है| छः माह बाद बालक हल्के अन्न को पचाने में समर्थ हो जाता है, अतः अन्नप्राशन-संस्कार छठें माह में ही करना चाहिए| इस समय ऐसा अन्न दिया जाता है, जो पचाने में आसान व बल प्रदान करने वाला हो|
 
6-7 माह के शिशु के दांत निकलने लगते हैं और पाचनक्रिया प्रबल होने लगती है| ऐसे में जैसा अन्न खाना वह प्रारंभ करता है, उसी के अनुरुप उसका तन-मन बनता है| मनुष्य के विचार, भावना, आकांक्षा एवं अंतरात्मा बहुत कुछ अन्न पर ही निर्भर रहती है| अन्न से ही जीवनतत्त्व मिलते है, जिससे रक्त, मांस आदि बनकर जीवन धारण किए रहने की क्षमता उत्पन्न होती है| अन्न ही मनुष्य का स्वाभाविक भोजन है, उसे भगवान् का कृपा-प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए|
 
शास्त्रों में देवों को खाद्य पदार्थ निवेदित करके अन्न खिलाने का विधान बताया गया है| इस संस्कार में शुभमुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता चांदी के चम्मच से खीर आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न शिशु को चटाते हैं और निम्नलिखित मंत्र बोलते हैं-
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ|
एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुंचतो अंहसः||
</poem></span></blockquote>
अर्थात हे बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएं यक्ष्मानाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं|
 
इस संदर्भ में महाभारत में एक रोचक कथा आती है-शरशय्या पर पडे भीष्म पितामह पांडवों को कोई उपदेश दे रहे थे कि अचानक द्रौपदी को हंसी आ गई| द्रौपदी के इस व्यवहार से पितामह को बडा‌ आश्चर्य हुआ| उन्होंने द्रौपदी से हंसने का कारण पूछा| द्रौपदी ने विनम्रता से कहा - आपके उपदेशों में धर्म का मर्म छिपा है पितामह! आप हमें कितनी अच्छी-अच्छी ज्ञान की बातें बता रहे हैं| यह सब सुनकर मुझे कौरवों की उस सभा की याद हो आई, जिसमें वे मेरे वस्त्र उतारने का प्रयास कर रहे थे| तब मैं चीख-चीखकर न्याय की भीखं मांग रही थी, लेकिन आप वहां पर होने के बाद भी मौन रहकर उन अधर्मियों का प्रतिवाद नहीं कर रहे थे| आप जैसे धर्मात्मा उस समय क्यों चुप रहें? दुर्योधन को क्यों नहीं समझाया, यहीं सोचकर मुझे हंसी आ गई|
 
इस पर भीष्म पितामह गंभीर होकर बोले - बेटी, उस समय मैं दुर्योधन का अन्न खाता था| उसी से मेरा रक्त बनता था| जैसा कुत्सित स्वभाव दुर्योधन का है, वही असर उसका दिया अन्न खाने से मेरे मन और बुद्धि पर पडा, कितुं अब अर्जुन के बाणों ने पाप के अन्न से बने रक्त को मेरे तन से बाहर निकाल दिया है और मेरी भावनाएं शुद्ध हो गई हैं| इसलिए अब मैं वहीं कह रहा हूं, जो धर्म के अनुकूल है|
 
ऐसा है अन्न खाने का प्रभाव| 
 
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Revision as of 22:19, 14 February 2011

thumb|500|अन्नप्राशन संस्कार
Annaprasana Samskara

  • हिन्दू धर्म संस्कारों में अन्नप्राशन संस्कार सप्तम संस्कार है। इस संस्कार में बालक को अन्न ग्रहण कराया जाता है। अब तक तो शिशु माता का दुग्धपान करके ही वृद्धि को प्राप्त होता था, अब आगे स्वयं अन्न ग्रहण करके ही शरीर को पुष्ट करना होगा, क्योंकि प्राकृतिक नियम सबके लिये यही है। अब बालक को परावलम्बी न रहकर धीरे-धीरे स्वावलम्बी बनना पड़ेगा। केवल यही नहीं, आगे चलकर अपना तथा अपने परिवार के सदस्यों के भी भरण-पोषण का दायित्व संम्भालना होगा। यही इस संस्कार का तात्पर्य है।

छ्ठे माह में बालक का अन्नप्राशन-संस्कार किया जाता है| शास्त्रों में अन्न को प्राणियों का प्राण कहा गया है| गीता में कहा गया है कि अन्न से ही प्राणी जीवित रहते हैं| अन्न से ही मन बनता है| इसलिए अन्न का जीवन में सर्वाधिक महत्तव है|

माता के गर्भ में मलिन भोजन के जो दोष शिशु में आ जाते हैं, उनके निवारण और शिशु को शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया को अन्नप्राशन-संस्कार कहा जाता है -

अन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति|

शिशु को जब 6-7 माह की अवस्था में पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त प्रथम बार यज्ञ आदि करके अन्न खिलाना प्रारंभ किया जाता है, तो यह कार्य अन्नप्रशन-संस्कार के नाम से जाना जाता है| इस संस्कार का उद्देश्य यह होता है शिशु सुसंस्कारी अन्न ग्रहण करे|

शुद्ध एवं सात्त्विक, पौष्टिक अन्न से ही शरीर व मन स्वस्थ रहते हैं तथा स्वस्थ मन ही ईश्वरानुभुति का एक मात्र साधन है| आहार शुद्ध होने पर ही अंतःकरण शुद्ध होता है|

आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः|

अर्थात शुद्ध आहार से शरीर में सत्त्वगुण की वृद्धि होती है|

अन्न से केवल शरीर का पोषण ही नही होता, अपितु मन, बुद्धि, तेज व आत्मा का भी पोषण होता है| इसी कारण अन्नप्राशन को संस्कार रुप में स्वीकार करके शुद्ध, सात्त्विक व पौष्टिक अन्न को ही जीवन में लेने का व्रत करने हेतु अन्नप्राशन-संस्कार संपन्न किया जाता है| अन्नप्राशन का उद्देश्य बालक को तेजस्वी, बलशाली एवं मेधावी बनाना है, इसलिए बालक को धृतयुक्त भात या दही, शहद और धृत तीनों को मिलाकर अन्नप्राशन करने का का विधान है| छः माह बाद बालक हल्के अन्न को पचाने में समर्थ हो जाता है, अतः अन्नप्राशन-संस्कार छठें माह में ही करना चाहिए| इस समय ऐसा अन्न दिया जाता है, जो पचाने में आसान व बल प्रदान करने वाला हो|

6-7 माह के शिशु के दांत निकलने लगते हैं और पाचनक्रिया प्रबल होने लगती है| ऐसे में जैसा अन्न खाना वह प्रारंभ करता है, उसी के अनुरुप उसका तन-मन बनता है| मनुष्य के विचार, भावना, आकांक्षा एवं अंतरात्मा बहुत कुछ अन्न पर ही निर्भर रहती है| अन्न से ही जीवनतत्त्व मिलते है, जिससे रक्त, मांस आदि बनकर जीवन धारण किए रहने की क्षमता उत्पन्न होती है| अन्न ही मनुष्य का स्वाभाविक भोजन है, उसे भगवान् का कृपा-प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए|

शास्त्रों में देवों को खाद्य पदार्थ निवेदित करके अन्न खिलाने का विधान बताया गया है| इस संस्कार में शुभमुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता चांदी के चम्मच से खीर आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न शिशु को चटाते हैं और निम्नलिखित मंत्र बोलते हैं-

शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ|
एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुंचतो अंहसः||

अर्थात हे बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएं यक्ष्मानाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं|

इस संदर्भ में महाभारत में एक रोचक कथा आती है-शरशय्या पर पडे भीष्म पितामह पांडवों को कोई उपदेश दे रहे थे कि अचानक द्रौपदी को हंसी आ गई| द्रौपदी के इस व्यवहार से पितामह को बडा‌ आश्चर्य हुआ| उन्होंने द्रौपदी से हंसने का कारण पूछा| द्रौपदी ने विनम्रता से कहा - आपके उपदेशों में धर्म का मर्म छिपा है पितामह! आप हमें कितनी अच्छी-अच्छी ज्ञान की बातें बता रहे हैं| यह सब सुनकर मुझे कौरवों की उस सभा की याद हो आई, जिसमें वे मेरे वस्त्र उतारने का प्रयास कर रहे थे| तब मैं चीख-चीखकर न्याय की भीखं मांग रही थी, लेकिन आप वहां पर होने के बाद भी मौन रहकर उन अधर्मियों का प्रतिवाद नहीं कर रहे थे| आप जैसे धर्मात्मा उस समय क्यों चुप रहें? दुर्योधन को क्यों नहीं समझाया, यहीं सोचकर मुझे हंसी आ गई|

इस पर भीष्म पितामह गंभीर होकर बोले - बेटी, उस समय मैं दुर्योधन का अन्न खाता था| उसी से मेरा रक्त बनता था| जैसा कुत्सित स्वभाव दुर्योधन का है, वही असर उसका दिया अन्न खाने से मेरे मन और बुद्धि पर पडा, कितुं अब अर्जुन के बाणों ने पाप के अन्न से बने रक्त को मेरे तन से बाहर निकाल दिया है और मेरी भावनाएं शुद्ध हो गई हैं| इसलिए अब मैं वहीं कह रहा हूं, जो धर्म के अनुकूल है|

ऐसा है अन्न खाने का प्रभाव|


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