कठपुतली: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
Line 2: Line 2:
[[भारत]] में कठपुतली नचाने की परंपरा काफ़ी पुरानी रही है। धागे से, दस्ताने द्वारा व छाया वाली कठपुतलियाँ काफ़ी प्रसिद्ध हैं और परंपरागत कठपुतली नर्तक स्थान-स्थान जाकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। इनके विषय भी ऐतिहासिक प्रेम प्रसंगों व जनश्रुतियों के लिए जाते हैं। इन कठपुतलियों से उस स्थान की [[चित्रकला]], वस्तुकला, वेशभूषा और अलंकारी कलाओं का पता चलता है, जहाँ से वे आती हैं।
[[भारत]] में कठपुतली नचाने की परंपरा काफ़ी पुरानी रही है। धागे से, दस्ताने द्वारा व छाया वाली कठपुतलियाँ काफ़ी प्रसिद्ध हैं और परंपरागत कठपुतली नर्तक स्थान-स्थान जाकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। इनके विषय भी ऐतिहासिक प्रेम प्रसंगों व जनश्रुतियों के लिए जाते हैं। इन कठपुतलियों से उस स्थान की [[चित्रकला]], वस्तुकला, वेशभूषा और अलंकारी कलाओं का पता चलता है, जहाँ से वे आती हैं।


रीति-रिवाजों पर आधारित कठपुतली के प्रदर्शन में भी काफी बदलाव आ गया है। अब यह खेल सड़कों, गली-कूचों में न होकर फ्लड लाइट्स की चकाचौंध में बड़े-बड़े मंचों पर होने लगा है।
रीति-रिवाजों पर आधारित कठपुतली के प्रदर्शन में भी काफी बदलाव आ गया है। अब यह खेल सड़कों, गली-कूचों में न होकर फ्लड लाइट्स की चकाचौंध में बड़े-बड़े मंचों पर होने लगा है।<ref name="प्रवक्ता.कॉम">{{cite web |url=http://www.pravakta.com/story/9567 |title=लुप्त होती कठपुतली कला |accessmonthday=[[2 अप्रॅल]] |accessyear=[[2011]] |last=ख़ान |first=फ़िरदौस |authorlink= |format= |publisher=प्रवक्ता.कॉम |language=हिन्दी }}</ref>


[[राजस्थान]] की कठपुतली काफ़ी प्रसिद्ध है। यहाँ धागे से बांधकर कठपुतली नचाई जाती है। लकड़ी और कपड़े से बनीं और मध्यकालीन राजस्थानी पोशाक पहने इन कठपुतलियों द्वारा [[इतिहास]] के प्रेम प्रसंग दर्शाए जाते हैं। अमरसिंह राठौर का चरित्र काफ़ी लोकप्रिया है, क्योंकि इसमें युद्ध और नृत्य दिखाने की भरपूर संभावनाएँ हैं। इसके साथ एक सीटी-जिसे बोली कहते हैं- जिसे तेज धुन बजाई जाती है।
[[राजस्थान]] की कठपुतली काफ़ी प्रसिद्ध है। यहाँ धागे से बांधकर कठपुतली नचाई जाती है। लकड़ी और कपड़े से बनीं और मध्यकालीन राजस्थानी पोशाक पहने इन कठपुतलियों द्वारा [[इतिहास]] के प्रेम प्रसंग दर्शाए जाते हैं। अमरसिंह राठौर का चरित्र काफ़ी लोकप्रिया है, क्योंकि इसमें युद्ध और नृत्य दिखाने की भरपूर संभावनाएँ हैं। इसके साथ एक सीटी-जिसे बोली कहते हैं- जिसे तेज धुन बजाई जाती है।
Line 10: Line 10:
==इतिहास==
==इतिहास==
{{tocright}}
{{tocright}}
कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में [[पाणिनी]] की अष्टाध्यायी में नटसूत्र में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है। कुछ लोग कठपुतली के जन्म को लेकर पौराणिक आख्यान का ज़िक्र करते हैं कि [[शिव|शिवजी]] ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर [[पार्वती]] का मन बहलाकर इस कला की शुरुआत की थी। कहानी ‘सिंहासन बत्तीसी’ में भी विक्रमादित्य के सिंहासन की बत्तीस पुतलियों का उल्लेख है। सतवध्दर्धन काल में भारत से पूर्वी [[एशिया]] के देशों इंडोनेशिया, थाईलैंड, [[म्यांमार]], जावा, [[श्रीलंका]] आदि में इसका विस्तार हुआ। आज यह कला [[चीन]], रूस, रूमानिया, [[इंग्लैंड]], चेकोस्लोवाकिया, [[अमेरिका]] व [[जापान]] आदि अनेक देशों में पहुँच चुकी है। इन देशों में इस विधा का सम-सामयिक प्रयोग कर इसे बहुआयामी रूप प्रदान किया गया है। वहाँ कठपुतली मनोरंजन के अलावा शिक्षा, विज्ञापन आदि अनेक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा है।
कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में [[पाणिनी]] की अष्टाध्यायी में नटसूत्र में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है। कुछ लोग कठपुतली के जन्म को लेकर पौराणिक आख्यान का ज़िक्र करते हैं कि [[शिव|शिवजी]] ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर [[पार्वती]] का मन बहलाकर इस कला की शुरुआत की थी। कहानी ‘सिंहासन बत्तीसी’ में भी विक्रमादित्य के सिंहासन की बत्तीस पुतलियों का उल्लेख है। सतवध्दर्धन काल में भारत से पूर्वी [[एशिया]] के देशों इंडोनेशिया, थाईलैंड, [[म्यांमार]], जावा, [[श्रीलंका]] आदि में इसका विस्तार हुआ। आज यह कला [[चीन]], रूस, रूमानिया, [[इंग्लैंड]], चेकोस्लोवाकिया, [[अमेरिका]] व [[जापान]] आदि अनेक देशों में पहुँच चुकी है। इन देशों में इस विधा का सम-सामयिक प्रयोग कर इसे बहुआयामी रूप प्रदान किया गया है। वहाँ कठपुतली मनोरंजन के अलावा शिक्षा, विज्ञापन आदि अनेक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा है।<ref name="प्रवक्ता.कॉम" />
[[चित्र:Kathputli-Jaisalmer-1.jpg|thumb|250px|left|[[जैसलमेर]] के बाज़ार में कठपुतलियाँ]]
[[चित्र:Kathputli-Jaisalmer-1.jpg|thumb|250px|left|[[जैसलमेर]] के बाज़ार में कठपुतलियाँ]]
भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएँ और किवदंतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरी-फरहाद की कथाएँ ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं, लेकिन अब साम-सामयिक विषयों, महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य, ज्ञानवर्ध्दक व अन्य मनोरंजक कार्यक्रम दिखाए जाने लगे हैं।  
भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएँ और किवदंतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरी-फरहाद की कथाएँ ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं, लेकिन अब साम-सामयिक विषयों, महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य, ज्ञानवर्ध्दक व अन्य मनोरंजक कार्यक्रम दिखाए जाने लगे हैं।<ref name="प्रवक्ता.कॉम" />


कठपुतलियों का इस्तेमाल सम्प्रेषण के लिये काफ़ी पहले से हो रहा है। हमारे देश में तो यह कला लगभग दो हज़ार वर्ष पुरानी है। पहले नाटकों को प्रस्तुत करने का एक मात्र माध्यम कठपुतलियाँ ही थीं। आज तो हमारे पास आधुनिक तकनीक वाले कई माध्यम रेडियो, टी.वी, आधुनिक तकनीकी सुविधाओं वाली रंगशालायें, मंच सभी कुछ है। लेकिन पहले या तो लोक परंपराओं की नाट्य शैलियाँ थीं या फ़िर कठपुतलियाँ।
कठपुतलियों का इस्तेमाल सम्प्रेषण के लिये काफ़ी पहले से हो रहा है। हमारे देश में तो यह कला लगभग दो हज़ार वर्ष पुरानी है। पहले नाटकों को प्रस्तुत करने का एक मात्र माध्यम कठपुतलियाँ ही थीं। आज तो हमारे पास आधुनिक तकनीक वाले कई माध्यम रेडियो, टी.वी, आधुनिक तकनीकी सुविधाओं वाली रंगशालायें, मंच सभी कुछ है। लेकिन पहले या तो लोक परंपराओं की नाट्य शैलियाँ थीं या फ़िर कठपुतलियाँ।


==भारतीय संस्कृति==
==भारतीय संस्कृति==
भारतीय [[संस्कृति]] का प्रतिबिंब लोककलाओं में झलकता है। इन्हीं लोककलाओं में कठपुतली [[कला]] भी शामिल है। यह देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी है, लेकिन आधुनिक सभ्यता के चलते मनोरंजन के नित नए साधन आने से सदियों पुरानी यह कला अब लुप्त होने के कगार पर है।
भारतीय [[संस्कृति]] का प्रतिबिंब लोककलाओं में झलकता है। इन्हीं लोककलाओं में कठपुतली [[कला]] भी शामिल है। यह देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी है, लेकिन आधुनिक सभ्यता के चलते मनोरंजन के नित नए साधन आने से सदियों पुरानी यह कला अब लुप्त होने के कगार पर है।<ref name="प्रवक्ता.कॉम" />


कठपुतली नाच की हर क़िस्म में पार्श्व से उस इलके का [[संगीत]] बजता है, जहाँ का वह नाच होता है। कठपुतली नचाने वाला गीत गाता है और संवाद बोलता है। जाहिर है, इन्हें न केवल हस्तकौशल दिखाना पड़ता है, बल्कि अच्छा गायक व संवाद अदाकार भी बनना पड़ता है।
कठपुतली नाच की हर क़िस्म में पार्श्व से उस इलके का [[संगीत]] बजता है, जहाँ का वह नाच होता है। कठपुतली नचाने वाला गीत गाता है और संवाद बोलता है। जाहिर है, इन्हें न केवल हस्तकौशल दिखाना पड़ता है, बल्कि अच्छा गायक व संवाद अदाकार भी बनना पड़ता है।

Revision as of 11:31, 2 April 2011

thumb|250px|कठपुतलियाँ नाटक
Kathputli Show
भारत में कठपुतली नचाने की परंपरा काफ़ी पुरानी रही है। धागे से, दस्ताने द्वारा व छाया वाली कठपुतलियाँ काफ़ी प्रसिद्ध हैं और परंपरागत कठपुतली नर्तक स्थान-स्थान जाकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। इनके विषय भी ऐतिहासिक प्रेम प्रसंगों व जनश्रुतियों के लिए जाते हैं। इन कठपुतलियों से उस स्थान की चित्रकला, वस्तुकला, वेशभूषा और अलंकारी कलाओं का पता चलता है, जहाँ से वे आती हैं।

रीति-रिवाजों पर आधारित कठपुतली के प्रदर्शन में भी काफी बदलाव आ गया है। अब यह खेल सड़कों, गली-कूचों में न होकर फ्लड लाइट्स की चकाचौंध में बड़े-बड़े मंचों पर होने लगा है।[1]

राजस्थान की कठपुतली काफ़ी प्रसिद्ध है। यहाँ धागे से बांधकर कठपुतली नचाई जाती है। लकड़ी और कपड़े से बनीं और मध्यकालीन राजस्थानी पोशाक पहने इन कठपुतलियों द्वारा इतिहास के प्रेम प्रसंग दर्शाए जाते हैं। अमरसिंह राठौर का चरित्र काफ़ी लोकप्रिया है, क्योंकि इसमें युद्ध और नृत्य दिखाने की भरपूर संभावनाएँ हैं। इसके साथ एक सीटी-जिसे बोली कहते हैं- जिसे तेज धुन बजाई जाती है।

कठपुतली की सबसे खास बात यह है कि इसमें कई कलाओं का सम्मिश्रण है। इसमें लेखन कला, नाट्य कला, चित्रकला, मूर्तिकला, काष्ठकला, वस्त्र निर्माण कला, रूप सज्जा, संगीत, नृत्य जैसी कई कलाओं का इस्तेमाल होता है। इसी लिये सम्भवतः बेजान होने के बाद भी ये कठपुतलियाँ जिस समय अपनी पूरी साज सज्जा के साथ मंच पर उपस्थित होती हैं तो दर्शक पूरी तरह उनके साथ बंध जाता है।

इतिहास

कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी की अष्टाध्यायी में नटसूत्र में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है। कुछ लोग कठपुतली के जन्म को लेकर पौराणिक आख्यान का ज़िक्र करते हैं कि शिवजी ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर पार्वती का मन बहलाकर इस कला की शुरुआत की थी। कहानी ‘सिंहासन बत्तीसी’ में भी विक्रमादित्य के सिंहासन की बत्तीस पुतलियों का उल्लेख है। सतवध्दर्धन काल में भारत से पूर्वी एशिया के देशों इंडोनेशिया, थाईलैंड, म्यांमार, जावा, श्रीलंका आदि में इसका विस्तार हुआ। आज यह कला चीन, रूस, रूमानिया, इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, अमेरिकाजापान आदि अनेक देशों में पहुँच चुकी है। इन देशों में इस विधा का सम-सामयिक प्रयोग कर इसे बहुआयामी रूप प्रदान किया गया है। वहाँ कठपुतली मनोरंजन के अलावा शिक्षा, विज्ञापन आदि अनेक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा है।[1] [[चित्र:Kathputli-Jaisalmer-1.jpg|thumb|250px|left|जैसलमेर के बाज़ार में कठपुतलियाँ]] भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएँ और किवदंतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरी-फरहाद की कथाएँ ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं, लेकिन अब साम-सामयिक विषयों, महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य, ज्ञानवर्ध्दक व अन्य मनोरंजक कार्यक्रम दिखाए जाने लगे हैं।[1]

कठपुतलियों का इस्तेमाल सम्प्रेषण के लिये काफ़ी पहले से हो रहा है। हमारे देश में तो यह कला लगभग दो हज़ार वर्ष पुरानी है। पहले नाटकों को प्रस्तुत करने का एक मात्र माध्यम कठपुतलियाँ ही थीं। आज तो हमारे पास आधुनिक तकनीक वाले कई माध्यम रेडियो, टी.वी, आधुनिक तकनीकी सुविधाओं वाली रंगशालायें, मंच सभी कुछ है। लेकिन पहले या तो लोक परंपराओं की नाट्य शैलियाँ थीं या फ़िर कठपुतलियाँ।

भारतीय संस्कृति

भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब लोककलाओं में झलकता है। इन्हीं लोककलाओं में कठपुतली कला भी शामिल है। यह देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी है, लेकिन आधुनिक सभ्यता के चलते मनोरंजन के नित नए साधन आने से सदियों पुरानी यह कला अब लुप्त होने के कगार पर है।[1]

कठपुतली नाच की हर क़िस्म में पार्श्व से उस इलके का संगीत बजता है, जहाँ का वह नाच होता है। कठपुतली नचाने वाला गीत गाता है और संवाद बोलता है। जाहिर है, इन्हें न केवल हस्तकौशल दिखाना पड़ता है, बल्कि अच्छा गायक व संवाद अदाकार भी बनना पड़ता है।

कठपुतलियों के रूप

thumb|250px|कठपुतलियाँ
Kathputli
उत्तर प्रदेश में तो सबसे पहले कठपुतलियों के माध्यम का इस्तेमाल शुरू हुआ था। शुरू में इनका इस्तेमाल प्राचीन काल के राजा महाराजाओं की कथाओं, धार्मिक, पौराणिक आख्यानों और राजनैतिक व्यंग्यों को प्रस्तुत करने के लिये किया जाता था। उत्तर प्रदेश से धीरे धीरे इस कला का प्रसार दक्षिण भारत के साथ ही देश के अन्य भागों में भी हुआ।

उड़ीसा का साखी कुंदेई, आसाम का पुतला नाच, महाराष्ट्र का मालासूत्री बहुली और कर्नाटक की गोम्बेयेट्टा धागे से नचाई जाने वाली कठपुतलियों के रूप हैं। तमिलनाडु की बोम्मलट्टम काफ़ी कौशल वाली कला है, जिसमें बड़ी-बड़ी कठपुतलियाँ धागों और डंडों की सहायता से नचाई जाती हैं। यही कला आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी पाई जाती है।

जानवरों की खाल से बनी, ख़ूबसूरती से रंगी गई और सजावटी तौर पर छिद्रित छाया कठपुतलियाँ आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उड़ीसा और केरल में काफ़ी लोकप्रिय हैं। उनमें कई जोड़ होते हैं, जिनकी सहायता से उन्हें नचाया जाता है। केरल के तोलपवकूथु और आंध्र प्रदेश के थोलु बोमलता में मुख्यतः पौरणिक कथाएँ ही दर्शाई जाती हैं, जबकि कर्नाटक के तोगलु गोम्बे अट्टा में धर्मेतर विषय एवं चरित्र भी शमिल किए जाते हैं।

दस्ताने वाली कठपुतलियाँ नचाने वाला दर्शकों के सामने बैठकर ही उन्हें नचाता है। इस क़िस्म की कठपुतली का नृत्य केरल का पावकथकलि है। उड़ीसा का कुंधेइनाच भी ऐसा ही है।

पश्चिम बंगाल का पतुल नाच डंडे की सहायता से नचाई जाने वाली कठपुतली का नाच है। एक बड़ी-सी कठपुतली नचाने वाले की कमर से बंधे खंभे से बांधी जाती है और वह पर्दे के पीछे रहकर डंडों की सहायता से उसे नचाता है। उड़ीसा के कथिकुंधेई नाच में कठपुतलियाँ छोटी होती हैं और नचाने वाला धागे और डंडे की सहायता से उन्हें नचाता है।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 ख़ान, फ़िरदौस। लुप्त होती कठपुतली कला (हिन्दी) प्रवक्ता.कॉम। अभिगमन तिथि: 2 अप्रॅल, 2011