अनीश्वरवाद: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Adding category Category:दर्शन कोश (को हटा दिया गया हैं।))
m (Text replacement - " जगत " to " जगत् ")
Line 1: Line 1:
'''योगदर्शनकार''' [[पंतजलि]] ने [[आत्मा]] और जगत के सम्बन्ध में [[सांख्यदर्शन]] के सिद्धान्तों का ही प्रतिपादन एवं समर्थन किया है। उन्होंने भी वे ही पच्चीस तत्त्व माने हैं, जो सांख्यकार ने माने हैं। इसीलिए [[योगाचार दर्शन|योग]] एवं [[सांख्य दर्शन]] दोनों मोटे तौर पर एक ही समझे जाते हैं, किन्तु योगदर्शन ने [[कपिल]] की अपेक्षा एक और छब्बीसवाँ तत्त्व '''पुरुष विशेष''' अथवा ईश्वर भी माना है। इस प्रकार ये सांख्य के अनीश्वरवाद से बच गए हैं।
'''योगदर्शनकार''' [[पंतजलि]] ने [[आत्मा]] और जगत् के सम्बन्ध में [[सांख्यदर्शन]] के सिद्धान्तों का ही प्रतिपादन एवं समर्थन किया है। उन्होंने भी वे ही पच्चीस तत्त्व माने हैं, जो सांख्यकार ने माने हैं। इसीलिए [[योगाचार दर्शन|योग]] एवं [[सांख्य दर्शन]] दोनों मोटे तौर पर एक ही समझे जाते हैं, किन्तु योगदर्शन ने [[कपिल]] की अपेक्षा एक और छब्बीसवाँ तत्त्व '''पुरुष विशेष''' अथवा ईश्वर भी माना है। इस प्रकार ये सांख्य के अनीश्वरवाद से बच गए हैं।
====<u>सत्कार्यवाद सिद्धान्त</u>====
====<u>सत्कार्यवाद सिद्धान्त</u>====
सांख्यदर्शन सत्कार्यवाद सिद्धान्त को मानता है। तदनुसार ऐसी कोई भी वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती, जो पहले से अस्तित्व में न हो। कारण का अर्थ केवल फल को स्पष्ट रूप देना है अथवा अपने में स्थित कुछ गुणों के रूप को व्यक्त करना है। परिणाम की उत्पत्ति केवल कारण के भीतरी परिवर्तन से, उसके [[परमाणु|परमाणुओं]] की नयी व्यवस्था के कारण होती है। केवल परिणाम एवं कारण के मध्य की एक साधारण बाधा दूर करने मात्र से मनोवांछित फल प्राप्त होता है। कार्य सत् है, वह कारण मैं पहले से उपस्थित है, परिणाम लाने की चेष्टा के पूर्व भी परिणाम कारण में उपस्थित रहता है, यथा अलसी में तेल, पत्थर में मूर्ति, [[दूध]] में [[दही]] एवं दही में [[मक्खन]]। ‘कारण व्यापार’ केवल फल को आविर्भूत करता है, जो पहले तिरोहित था।  
सांख्यदर्शन सत्कार्यवाद सिद्धान्त को मानता है। तदनुसार ऐसी कोई भी वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती, जो पहले से अस्तित्व में न हो। कारण का अर्थ केवल फल को स्पष्ट रूप देना है अथवा अपने में स्थित कुछ गुणों के रूप को व्यक्त करना है। परिणाम की उत्पत्ति केवल कारण के भीतरी परिवर्तन से, उसके [[परमाणु|परमाणुओं]] की नयी व्यवस्था के कारण होती है। केवल परिणाम एवं कारण के मध्य की एक साधारण बाधा दूर करने मात्र से मनोवांछित फल प्राप्त होता है। कार्य सत् है, वह कारण मैं पहले से उपस्थित है, परिणाम लाने की चेष्टा के पूर्व भी परिणाम कारण में उपस्थित रहता है, यथा अलसी में तेल, पत्थर में मूर्ति, [[दूध]] में [[दही]] एवं दही में [[मक्खन]]। ‘कारण व्यापार’ केवल फल को आविर्भूत करता है, जो पहले तिरोहित था।  
====<u>प्रकृति का सर्वज्ञ</u>====
====<u>प्रकृति का सर्वज्ञ</u>====
क्षमतानुसार सभी प्रवृत्तियाँ स्वार्थ (अपने वास्ते) होती हैं, या परार्थ (दूसरे के वास्ते)। प्रकृति तो जड़ है। इसको अपने प्रयोजन और दूसरे के प्रयोजन का कुछ ज्ञान नहीं है। तब इसकी प्रवृत्ति किस तरह होगी। यदि कहें कि चेतन जीवात्मा अधिष्ठाता होकर प्रवृत्ति करा देगा तो यह भी नहीं बनता, क्योंकि जीवात्मा प्रकृति के सम्पूर्ण रूप को जानता नहीं, फिर उसका अधिष्ठाता किस प्रकार हो सकता है? इसीलिए प्रकृति की प्रकृति के लिए सर्वज्ञ अधिष्ठाता ईश्वर को मानना चाहिए। किन्तु इस तर्क से ईश्वर की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि पूर्णकाम ईश्वर का अपना कुछ प्रयोजन नहीं है, फिर भी वह अपने वास्ते, या दूसरे के लिए जगत को क्यों रचेगा?
क्षमतानुसार सभी प्रवृत्तियाँ स्वार्थ (अपने वास्ते) होती हैं, या परार्थ (दूसरे के वास्ते)। प्रकृति तो जड़ है। इसको अपने प्रयोजन और दूसरे के प्रयोजन का कुछ ज्ञान नहीं है। तब इसकी प्रवृत्ति किस तरह होगी। यदि कहें कि चेतन जीवात्मा अधिष्ठाता होकर प्रवृत्ति करा देगा तो यह भी नहीं बनता, क्योंकि जीवात्मा प्रकृति के सम्पूर्ण रूप को जानता नहीं, फिर उसका अधिष्ठाता किस प्रकार हो सकता है? इसीलिए प्रकृति की प्रकृति के लिए सर्वज्ञ अधिष्ठाता ईश्वर को मानना चाहिए। किन्तु इस तर्क से ईश्वर की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि पूर्णकाम ईश्वर का अपना कुछ प्रयोजन नहीं है, फिर भी वह अपने वास्ते, या दूसरे के लिए जगत् को क्यों रचेगा?


====<u>सांख्य-सिद्धान्त</u>====
====<u>सांख्य-सिद्धान्त</u>====
बुद्धिमान पुरुष की प्रवृत्ति निज प्रयोजनार्थ, अपने ही लिए सम्भव है, अन्य के लिए नहीं। यदि कहे कि दया से निष्प्रयोजन प्रवृत्ति भी हो जाती है, तो यह भी सम्भव नहीं है। क्योंकि सृष्टि से पहले कोई प्राणी नहीं था, फिर किसके दु:ख को देखकर करुणा हुई होगी? यदि ईश्वर ने करुणा के वश होकर सृष्टि की होती तो वह सबको सुखी ही बनाता, दु:खी नहीं। पर ऐसा देखने में नहीं आता, अपितु जगत की सृष्टि विचित्र देखी जाती है। यदि कहें की जीवों के कर्माधीन होकर ईश्वर विचित्र सृष्टि करता है, तो कर्म की प्रधानता हुई, फिर बकरी के गले के निष्प्रयोजन स्तन की तरह ईश्वर मानने की कोई आवश्यकता नहीं। इस प्रकार सांख्य का सिद्धान्त है कि ईश्वर की सत्ता में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, अत: उसकी सिद्धि नहीं हो सकती (ईश्वरासिद्धे:)।  
बुद्धिमान पुरुष की प्रवृत्ति निज प्रयोजनार्थ, अपने ही लिए सम्भव है, अन्य के लिए नहीं। यदि कहे कि दया से निष्प्रयोजन प्रवृत्ति भी हो जाती है, तो यह भी सम्भव नहीं है। क्योंकि सृष्टि से पहले कोई प्राणी नहीं था, फिर किसके दु:ख को देखकर करुणा हुई होगी? यदि ईश्वर ने करुणा के वश होकर सृष्टि की होती तो वह सबको सुखी ही बनाता, दु:खी नहीं। पर ऐसा देखने में नहीं आता, अपितु जगत् की सृष्टि विचित्र देखी जाती है। यदि कहें की जीवों के कर्माधीन होकर ईश्वर विचित्र सृष्टि करता है, तो कर्म की प्रधानता हुई, फिर बकरी के गले के निष्प्रयोजन स्तन की तरह ईश्वर मानने की कोई आवश्यकता नहीं। इस प्रकार सांख्य का सिद्धान्त है कि ईश्वर की सत्ता में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, अत: उसकी सिद्धि नहीं हो सकती (ईश्वरासिद्धे:)।  


{{प्रचार}}
{{प्रचार}}

Revision as of 13:57, 30 June 2017

योगदर्शनकार पंतजलि ने आत्मा और जगत् के सम्बन्ध में सांख्यदर्शन के सिद्धान्तों का ही प्रतिपादन एवं समर्थन किया है। उन्होंने भी वे ही पच्चीस तत्त्व माने हैं, जो सांख्यकार ने माने हैं। इसीलिए योग एवं सांख्य दर्शन दोनों मोटे तौर पर एक ही समझे जाते हैं, किन्तु योगदर्शन ने कपिल की अपेक्षा एक और छब्बीसवाँ तत्त्व पुरुष विशेष अथवा ईश्वर भी माना है। इस प्रकार ये सांख्य के अनीश्वरवाद से बच गए हैं।

सत्कार्यवाद सिद्धान्त

सांख्यदर्शन सत्कार्यवाद सिद्धान्त को मानता है। तदनुसार ऐसी कोई भी वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती, जो पहले से अस्तित्व में न हो। कारण का अर्थ केवल फल को स्पष्ट रूप देना है अथवा अपने में स्थित कुछ गुणों के रूप को व्यक्त करना है। परिणाम की उत्पत्ति केवल कारण के भीतरी परिवर्तन से, उसके परमाणुओं की नयी व्यवस्था के कारण होती है। केवल परिणाम एवं कारण के मध्य की एक साधारण बाधा दूर करने मात्र से मनोवांछित फल प्राप्त होता है। कार्य सत् है, वह कारण मैं पहले से उपस्थित है, परिणाम लाने की चेष्टा के पूर्व भी परिणाम कारण में उपस्थित रहता है, यथा अलसी में तेल, पत्थर में मूर्ति, दूध में दही एवं दही में मक्खन। ‘कारण व्यापार’ केवल फल को आविर्भूत करता है, जो पहले तिरोहित था।

प्रकृति का सर्वज्ञ

क्षमतानुसार सभी प्रवृत्तियाँ स्वार्थ (अपने वास्ते) होती हैं, या परार्थ (दूसरे के वास्ते)। प्रकृति तो जड़ है। इसको अपने प्रयोजन और दूसरे के प्रयोजन का कुछ ज्ञान नहीं है। तब इसकी प्रवृत्ति किस तरह होगी। यदि कहें कि चेतन जीवात्मा अधिष्ठाता होकर प्रवृत्ति करा देगा तो यह भी नहीं बनता, क्योंकि जीवात्मा प्रकृति के सम्पूर्ण रूप को जानता नहीं, फिर उसका अधिष्ठाता किस प्रकार हो सकता है? इसीलिए प्रकृति की प्रकृति के लिए सर्वज्ञ अधिष्ठाता ईश्वर को मानना चाहिए। किन्तु इस तर्क से ईश्वर की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि पूर्णकाम ईश्वर का अपना कुछ प्रयोजन नहीं है, फिर भी वह अपने वास्ते, या दूसरे के लिए जगत् को क्यों रचेगा?

सांख्य-सिद्धान्त

बुद्धिमान पुरुष की प्रवृत्ति निज प्रयोजनार्थ, अपने ही लिए सम्भव है, अन्य के लिए नहीं। यदि कहे कि दया से निष्प्रयोजन प्रवृत्ति भी हो जाती है, तो यह भी सम्भव नहीं है। क्योंकि सृष्टि से पहले कोई प्राणी नहीं था, फिर किसके दु:ख को देखकर करुणा हुई होगी? यदि ईश्वर ने करुणा के वश होकर सृष्टि की होती तो वह सबको सुखी ही बनाता, दु:खी नहीं। पर ऐसा देखने में नहीं आता, अपितु जगत् की सृष्टि विचित्र देखी जाती है। यदि कहें की जीवों के कर्माधीन होकर ईश्वर विचित्र सृष्टि करता है, तो कर्म की प्रधानता हुई, फिर बकरी के गले के निष्प्रयोजन स्तन की तरह ईश्वर मानने की कोई आवश्यकता नहीं। इस प्रकार सांख्य का सिद्धान्त है कि ईश्वर की सत्ता में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, अत: उसकी सिद्धि नहीं हो सकती (ईश्वरासिद्धे:)।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

(पुस्तक ‘हिन्दू धर्मकोश’) पृष्ठ संख्या-30