अलखनन्दन: Difference between revisions
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'''अलखनन्दन''' (जन्म- [[1948]], भोजपुर, [[बिहार]]; मृत्यु- [[फ़रवरी]], 2012, [[भोपाल]], [[मध्य प्रदेश]]) [[भारत]] के प्रसिद्ध रंगकर्मी, निर्देशक और [[कवि]] थे। लभगग 40 वर्ष के अपने रंग जीवन में उन्होंने कई प्रसिद्ध नाटकों का निर्देशन किया था। वे लम्बे समय तक 'भारत भवन' के रंगमंडल के सहायक निदेशक भी रहे। अलखनन्दन ने स्माइल मर्चेन्ट व अन्य निर्देशकों के साथ फ़िल्म के क्षेत्र में भी अपना योगदान दिया था। उनके प्रसिद्ध नाटकों में 'चंदा', 'बैढनी', 'महानिर्वाण', 'वेटिंग फ़ॉर गोडो' आदि शामिल हैं। वर्ष 2012 में उन्होंने महाकवि [[रवींद्रनाथ टैगोर]] की कविताओं का मंचन भी किया था, जिसे देश भर में अत्यंत सराहा गया। | |||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
अलखनन्दन जी का जन्म सन 1948 में भोजपुर, बिहार में हुआ था। बिहार से विस्थापित होकर वे [[छत्तीसगढ़]], [[सरगुजा ज़िला|सरगुजा]] और [[बुंदेलखण्ड]] के इलाकों में बार-बार जाते रहे थे। इन इलाकों से उनका गहरा लगाव और प्रेम था। उनकी समूची बुनावट में जो मिश्रण था, वह इसी घुमन्तू आचरण का परिणाम था। वे [[भोजपुरी भाषा|भोजपुरी]] बोलना कभी नहीं भूले, जबकि उनका अंतिम परिदृश्य बुंदेलखण्ड ही बना। [[जबलपुर]] आकर वे स्थिर हुए और प्राण प्रण से काम करना शुरू किया। उनकी काया में जो [[भाषा]] तैर रही थी, वह संघर्षशील [[हिन्दी]] पट्टियों में ही तैयार हुई थी। अलखनन्दन कुंभकार के चाक की तरह अविराम अपने जीवन को चलाते रहे। उन्होंने नाटक किये भी और कई नाटकों की रचना भी की। | अलखनन्दन जी का जन्म सन 1948 में भोजपुर, बिहार में हुआ था। बिहार से विस्थापित होकर वे [[छत्तीसगढ़]], [[सरगुजा ज़िला|सरगुजा]] और [[बुंदेलखण्ड]] के इलाकों में बार-बार जाते रहे थे। इन इलाकों से उनका गहरा लगाव और प्रेम था। उनकी समूची बुनावट में जो मिश्रण था, वह इसी घुमन्तू आचरण का परिणाम था। वे [[भोजपुरी भाषा|भोजपुरी]] बोलना कभी नहीं भूले, जबकि उनका अंतिम परिदृश्य बुंदेलखण्ड ही बना। [[जबलपुर]] आकर वे स्थिर हुए और प्राण प्रण से काम करना शुरू किया। उनकी काया में जो [[भाषा]] तैर रही थी, वह संघर्षशील [[हिन्दी]] पट्टियों में ही तैयार हुई थी। अलखनन्दन कुंभकार के चाक की तरह अविराम अपने जीवन को चलाते रहे। उन्होंने नाटक किये भी और कई नाटकों की रचना भी की। | ||
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अलखनन्दन की जबलपुरिया शुरुआत एक नुक्कड़ नाटक 'जैसे हम लोग' से हुई। इसे [[हिन्दी]] के कथाकार शशांक ने लिखा था। शशांक तब मनोविज्ञान के छात्र थे। एक स्थानीय रंग-संस्था 'कचनार' के लिये अलखनन्दन ने मशहूर नाटकों- 'रंग गंधर्व' और 'तीन अपाहिज' का निर्देशन किया। विवेचना के साथ उन्होंने 'दुलारी बाई', 'बकरी', 'इकतारे की आँख', 'बहुत बड़ा सवाल', और 'वेटिंग फ़ॉर द गोडो' जैसे बड़े नाटक किये और इन नाटकों ने खूब धूम मचाई। इसी दौरान अलखनन्दन ने धमतरी, रायपुर, बिलासपुर और बाद में अम्बिकापुर, रायगढ में ऐसी कार्यशालाएँ कीं, जिनसे स्थानीय रंगकर्मी उभर कर आ सकें। | अलखनन्दन की जबलपुरिया शुरुआत एक नुक्कड़ नाटक 'जैसे हम लोग' से हुई। इसे [[हिन्दी]] के कथाकार शशांक ने लिखा था। शशांक तब मनोविज्ञान के छात्र थे। एक स्थानीय रंग-संस्था 'कचनार' के लिये अलखनन्दन ने मशहूर नाटकों- 'रंग गंधर्व' और 'तीन अपाहिज' का निर्देशन किया। विवेचना के साथ उन्होंने 'दुलारी बाई', 'बकरी', 'इकतारे की आँख', 'बहुत बड़ा सवाल', और 'वेटिंग फ़ॉर द गोडो' जैसे बड़े नाटक किये और इन नाटकों ने खूब धूम मचाई। इसी दौरान अलखनन्दन ने [[धमतरी]], [[रायपुर]], [[बिलासपुर छत्तीसगढ़|बिलासपुर]] और बाद में [[अम्बिकापुर]], रायगढ में ऐसी कार्यशालाएँ कीं, जिनसे स्थानीय रंगकर्मी उभर कर आ सकें। | ||
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अलखनन्दन के जीवन का दूसरा दौर उनकी राष्ट्रीय पहचान का था। उस समय 'भारत भवन' में रंगमंडल का ताना-बाना बुना जा रहा था और अलख जी उसके संस्थापकों, निर्माताओं में से एक प्रमुख व्यक्ति थे। उन्होंने लगभग आठ वर्ष तो देश के विख्यात और महान रंगशिल्पी कारंत के साथ ही काम किया। कुल 16 वर्ष तक अलखनन्दन 'भारत भवन' में रहे। उन्होंने 'आधे अधूरे', 'क्लर्क की मौत', 'आगरा बाज़ार', 'शस्त्र संतान', 'चंदा बेड़नी', 'ताम्र पत्र', 'जगर मगर अंधेर नगर' और 'चारपाई' जैसे सफल नाटकों की प्रस्तुति की। मोहन राकेश, रामेश्वर प्रेम, हबीब तनवीर, त्रिपुरारी शर्मा और मणि मधुकर के नाटकों के अलावा उन्होंने स्वयं के भी नाटक किये। उनका एक ख़ास काम यह था कि उन्होंने बच्चों के लिये 10 से अधिक नाटकों की परिकल्पना की और उनका मंचन किया। एशिया कविता समारोह में उन्होंने श्रीकांत वर्मा के 'मगध' की नाट्य प्रस्तुति की थी, जिसे खूब सराहना मिली। उन्होंने [[बेंगलुरु]] में उर्दू थियेटर की स्थापना की और बीस वर्ष तक देश के बड़े नाट्य समारोहों में यादगार प्रस्तुतियाँ दीं। | अलखनन्दन के जीवन का दूसरा दौर उनकी राष्ट्रीय पहचान का था। उस समय 'भारत भवन' में रंगमंडल का ताना-बाना बुना जा रहा था और अलख जी उसके संस्थापकों, निर्माताओं में से एक प्रमुख व्यक्ति थे। उन्होंने लगभग आठ वर्ष तो देश के विख्यात और महान रंगशिल्पी कारंत के साथ ही काम किया। कुल 16 वर्ष तक अलखनन्दन 'भारत भवन' में रहे। उन्होंने 'आधे अधूरे', 'क्लर्क की मौत', 'आगरा बाज़ार', 'शस्त्र संतान', 'चंदा बेड़नी', 'ताम्र पत्र', 'जगर मगर अंधेर नगर' और 'चारपाई' जैसे सफल नाटकों की प्रस्तुति की। मोहन राकेश, रामेश्वर प्रेम, हबीब तनवीर, त्रिपुरारी शर्मा और मणि मधुकर के नाटकों के अलावा उन्होंने स्वयं के भी नाटक किये। उनका एक ख़ास काम यह था कि उन्होंने बच्चों के लिये 10 से अधिक नाटकों की परिकल्पना की और उनका मंचन किया। एशिया कविता समारोह में उन्होंने श्रीकांत वर्मा के 'मगध' की नाट्य प्रस्तुति की थी, जिसे खूब सराहना मिली। उन्होंने [[बेंगलुरु]] में उर्दू थियेटर की स्थापना की और बीस वर्ष तक देश के बड़े नाट्य समारोहों में यादगार प्रस्तुतियाँ दीं। | ||
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Revision as of 11:44, 3 December 2012
अलखनन्दन
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पूरा नाम | अलखनन्दन |
जन्म | 1948 |
जन्म भूमि | भोजपुर, बिहार |
मृत्यु | फ़रवरी, 2012 |
मृत्यु स्थान | भोपाल, मध्य प्रदेश |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | रंगकर्मी, निर्देशक और कवि |
प्रसिद्धि | रंगकर्मी |
विशेष योगदान | अलखनन्दन जी ने स्माइल मर्चेन्ट व अन्य निर्देशकों के साथ फ़िल्म क्षेत्र में भी योगदान दिया था। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | आप भोपाल में होने वाले लगभग हर नाटक को देखते थे। 'भारत भवन' में उनके लिये एक कुर्सी सदैव खाली रखी जाती थी। |
अलखनन्दन (जन्म- 1948, भोजपुर, बिहार; मृत्यु- फ़रवरी, 2012, भोपाल, मध्य प्रदेश) भारत के प्रसिद्ध रंगकर्मी, निर्देशक और कवि थे। लभगग 40 वर्ष के अपने रंग जीवन में उन्होंने कई प्रसिद्ध नाटकों का निर्देशन किया था। वे लम्बे समय तक 'भारत भवन' के रंगमंडल के सहायक निदेशक भी रहे। अलखनन्दन ने स्माइल मर्चेन्ट व अन्य निर्देशकों के साथ फ़िल्म के क्षेत्र में भी अपना योगदान दिया था। उनके प्रसिद्ध नाटकों में 'चंदा', 'बैढनी', 'महानिर्वाण', 'वेटिंग फ़ॉर गोडो' आदि शामिल हैं। वर्ष 2012 में उन्होंने महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं का मंचन भी किया था, जिसे देश भर में अत्यंत सराहा गया।
जीवन परिचय
अलखनन्दन जी का जन्म सन 1948 में भोजपुर, बिहार में हुआ था। बिहार से विस्थापित होकर वे छत्तीसगढ़, सरगुजा और बुंदेलखण्ड के इलाकों में बार-बार जाते रहे थे। इन इलाकों से उनका गहरा लगाव और प्रेम था। उनकी समूची बुनावट में जो मिश्रण था, वह इसी घुमन्तू आचरण का परिणाम था। वे भोजपुरी बोलना कभी नहीं भूले, जबकि उनका अंतिम परिदृश्य बुंदेलखण्ड ही बना। जबलपुर आकर वे स्थिर हुए और प्राण प्रण से काम करना शुरू किया। उनकी काया में जो भाषा तैर रही थी, वह संघर्षशील हिन्दी पट्टियों में ही तैयार हुई थी। अलखनन्दन कुंभकार के चाक की तरह अविराम अपने जीवन को चलाते रहे। उन्होंने नाटक किये भी और कई नाटकों की रचना भी की।
नाटक निर्देशन
अलखनन्दन की जबलपुरिया शुरुआत एक नुक्कड़ नाटक 'जैसे हम लोग' से हुई। इसे हिन्दी के कथाकार शशांक ने लिखा था। शशांक तब मनोविज्ञान के छात्र थे। एक स्थानीय रंग-संस्था 'कचनार' के लिये अलखनन्दन ने मशहूर नाटकों- 'रंग गंधर्व' और 'तीन अपाहिज' का निर्देशन किया। विवेचना के साथ उन्होंने 'दुलारी बाई', 'बकरी', 'इकतारे की आँख', 'बहुत बड़ा सवाल', और 'वेटिंग फ़ॉर द गोडो' जैसे बड़े नाटक किये और इन नाटकों ने खूब धूम मचाई। इसी दौरान अलखनन्दन ने धमतरी, रायपुर, बिलासपुर और बाद में अम्बिकापुर, रायगढ में ऐसी कार्यशालाएँ कीं, जिनसे स्थानीय रंगकर्मी उभर कर आ सकें।
राष्ट्रीय पहचान
अलखनन्दन के जीवन का दूसरा दौर उनकी राष्ट्रीय पहचान का था। उस समय 'भारत भवन' में रंगमंडल का ताना-बाना बुना जा रहा था और अलख जी उसके संस्थापकों, निर्माताओं में से एक प्रमुख व्यक्ति थे। उन्होंने लगभग आठ वर्ष तो देश के विख्यात और महान रंगशिल्पी कारंत के साथ ही काम किया। कुल 16 वर्ष तक अलखनन्दन 'भारत भवन' में रहे। उन्होंने 'आधे अधूरे', 'क्लर्क की मौत', 'आगरा बाज़ार', 'शस्त्र संतान', 'चंदा बेड़नी', 'ताम्र पत्र', 'जगर मगर अंधेर नगर' और 'चारपाई' जैसे सफल नाटकों की प्रस्तुति की। मोहन राकेश, रामेश्वर प्रेम, हबीब तनवीर, त्रिपुरारी शर्मा और मणि मधुकर के नाटकों के अलावा उन्होंने स्वयं के भी नाटक किये। उनका एक ख़ास काम यह था कि उन्होंने बच्चों के लिये 10 से अधिक नाटकों की परिकल्पना की और उनका मंचन किया। एशिया कविता समारोह में उन्होंने श्रीकांत वर्मा के 'मगध' की नाट्य प्रस्तुति की थी, जिसे खूब सराहना मिली। उन्होंने बेंगलुरु में उर्दू थियेटर की स्थापना की और बीस वर्ष तक देश के बड़े नाट्य समारोहों में यादगार प्रस्तुतियाँ दीं।
तुलना
अलखनन्दन की तुलना केवल अलखनन्दन जी से ही की जा सकती है। उन्होंने अपने शुरुआती रंगकर्मी जीवन से अविभाजित मध्य प्रदेश के ज़िलों और गाँवों तक एक सार्थक, सृजनात्मक रंगकर्म की अलख जगाई थी। उन्होंने अनेक रंगकर्मियों के साथ हिन्दी क्षेत्र का एक नया रंग मुहावरा गढ़ा और उसको सजाया संवारा। उन्हें रंगकर्म इतना प्रिय था कि इसके लिए उन्होंने अपनी केन्द्रीय सरकार की नौकरी भी त्याग दी थी। वे बगैर किसी सरकारी मदद के रंग आंदोलन को नई गति देते रहे। 'नट बुंदेले संस्था' में नया रंग भरना, नए कलाकारों को रंगकर्म की जुबान समझाने वाला जुझारू व्यक्तित्व, अनुशासनप्रिय, कवि, समय का पाबंद, जीवटता से भरपूर, प्रयोगधर्मिता उनके व्यक्तित्व की विशेषता थी। वे गंभीर बात को सहज रूप में व्यक्त करते थे।
बीमारी
मजबूत कद-काठी और सकारात्मक सोच अलखनन्दन जी के व्यक्तित्व की विशेषता थी। उनका शरीर पुख्ता और कसरती था। किशोर अवस्था से ही भारतीय भाषाओं के साहित्य और खासतौर पर लोक-नाट्य की पढ़ाई करने लगे थे। वे उदार वामपंथी थे और आत्महत्या के विरुद्ध थे। लेकिन आजीवन कठोर परिश्रम और रंगकर्म की लगातार रात-दिन जागती दिनचर्याओं और मुठभेड़ों में उन्हें पता ही नहीं चला कब वे बीमार हुए। उनके फेंफड़े तबाह हुए और चौबीस घंटों की आक्सीजन उन्हें लग गई। उन्हें 'फ़ाइब्रोसिस ऑफ़ लंग्स' की बीमारी थी।
पुरस्कार व सम्मान
रंगकर्म के लिए अलखनन्दन जी को मध्य प्रदेश सरकार द्वारा वर्ष 2006 के लिए प्रतिष्ठित 'शिखर सम्मान', संस्कृति विभाग भारत सरकार द्वारा समकालीन हिन्दी रंगमंच में बुंदेलखण्डी स्वांग के पुनराविष्कार के लिए 'सीनियर फ़ैलोशिप' (1992-1996), 'मास्टर फिदा हुसैन नरसी सम्मान', 'श्रेष्ठ कला आचार्य सम्मान' मधुबन भोपाल, 'लाइफ़टाइम अचीवमेंट सम्मान' रंग आधार भोपाल, 'हबीब तनवीर सम्मान' और हाल में ही उन्हें 'संगीत नाटक अकादमी' ने रंगकर्म में निर्देशन के लिए 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' के लिए चुना था।
अलखनन्दन जी का वास्तविक सम्मान रंगजनों के भीतर था। कहते हैं कि वह भोपाल शहर में होने वाला लगभग हर नाटक देखते थे। 'भारत भवन' में उनके लिये एक कुर्सी सदैव खाली रहती थी। वह नाटक देखते और चुपचाप लौट जाते थे। तत्काल किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं देते थे। जिस दिन वह कुर्सी खाली रह जाती थी, इसका मतलब होता था कि अलखनन्दन भोपाल में नहीं हैं।
निधन
रंगकर्म की दुनिया को नये आयाम प्रदान करने वाले अलखनन्दन जी का फ़रवरी, 2012 को निधन हुआ। उनकी अंतिम यात्रा में अभिनेता, राजनैतिक-सांस्कृतिक कार्यकर्त्ता, लेखक, दर्शक, स्तंभकार और हिन्दी-उर्दू की दुनिया के बहुत से लोग शामिल थे।
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