कुमारलात: Difference between revisions
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Revision as of 08:33, 25 March 2010
कुमारलात आचार्य / Kumarlat Acharya
- बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद चौथे-पाँचवें शतक में प्राय: सभी निकाय विभिन्न स्थानों में वृद्धिंगत एवं पुष्ट होते हुए बुद्ध शासन का प्रचार-प्रसार करते दृष्टिगोचर होते हैं। दक्षिण भारत में प्राय: स्थविरों का बाहुल्य और प्राबल्य था। मथुरा से लेकर मगध पर्यन्त मध्यप्रदेश में सर्वास्तिवादियों का अधिक प्रचार था। भारत के पश्चिमी भाग में जालन्धर से लेकर कश्मीर और गन्धार पर्यन्त सर्वास्तिवादी और सौत्रान्तिकों का विशेष प्रभाव था। इसी समय आचार्य कुमारलात का जन्म हुआ।
- विविध ग्रन्थों में कुमारलात के नाम में कुछ-कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं, यथा- कुमारलात, कुमारलाभ, कुमारलब्ध, कुमाररत आदि। भोटदेशीय परम्परा कुमारलात का जन्मस्थान पश्चिम भारत निर्दिष्ट करती है।
- चीनी यात्री फाहियान और ह्रेनसांग दोनों का कहना है कि आचार्य का जन्मस्थान तक्षशिला था। ह्नेनसांग कुमारलात के बारे में निम्न विवरण प्रस्तुत करते हैं :
'तक्षशिला से लगभग 12-13 'ली' की दूरी पर महाराज अशोक ने एक स्तूप का निर्माण कराया था। यह वही स्थान है, जहाँ पर बोधिसत्त्व चन्द्रप्रभ ने अपने शरीर का दान किया था। स्तूप के समीप एक संघाराम है, जो भग्नावस्था में दिखाई देता है, उसी संघाराम में कुछ भिक्षु निवास करते हैं। इसी स्थान पर बैठकर (निवास करते हुए) सौत्रान्तिक दर्शन सम्प्रदाय के अनुयायी कुमारलब्ध शास्त्री ने प्राचीन काल में कुछ ग्रन्थों की रचना की थी। अन्य इतिहासज्ञ भी तक्षशिला को आचार्य का जन्मस्थान कहते हैं'।
- ह्रेनसांग पुन: कहते हैं :
'कुमारलात ने तक्षशिला में निवास किया। बचपन से ही वे विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न थे। कम उम्र में ही वे विरक्त होकर प्रव्रजित हो गये थे। उनका सारा समय पवित्र ग्रन्थों के अवलोकन में तथा अध्यात्म चिन्तन में व्यतीत होता था। वे प्रतिदिन 32000 शब्दों का स्वाध्याय और उतने ही का लेखन करते थे। अपने साथियों और सहाध्यायियों में उनकी विलक्षण योग्यता की प्राय: चर्चा होती थी। उनकी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त हो गई थी। सद्धर्म के सिद्धान्तों को उन्होंने लोक में निर्दोष निरूपित किया और अनेक विधर्मी तैर्थिकों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। शास्त्रार्थ कला में उनके विलक्षण चातुर्य की लोक में चर्चा होती थी। शास्त्र सम्बन्धी ऐसी कोई कठिनाई नहीं थी, जिसका उचित समाधान करने में वे सक्षम न हों। सारे भारत के विभिन्न भागों से जिज्ञासु लोग उनके दर्शनार्थ आते रहते थे और उनका सम्मान करते थे। उन्होंने लगभग 20 ग्रन्थों की रचना की। ये ही सौत्रान्तिक दर्शन प्रस्थान के प्रतिष्ठापक थे'।
- इन विवरणों से ज्ञात होता है कि आचार्य कुमारलात पश्चिम भारत में तक्षशिला महाविहार में पण्डित पद पर प्रतिष्ठत थे। उनके अध्ययन-अध्यापन की कीर्ति विस्तृत रूप से फैली हुई थी। *भोटदेशीय परम्परा भी इस मत की समर्थक है।
- चीनी यात्री ह्नेनसांग के मत का अनुसरण करते हुए प्राय: इतिहास-विशेषज्ञ स्थविर कुमारलात को ही सौत्रान्तिक दर्शन का प्रवर्तक निरूपित करते हैं।
कुमारलात का समय
- आचार्य कुमारलात के काल के बारे में प्राय: सभी ऐतिहासिक स्त्रोत, सामग्री एवं विद्वान एक मत है कि उनका समय ईसा की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्द्ध है।
- ह्नेनसांग का कहना है:
'पूर्व दिशा में अश्वघोष, दक्षिण में आर्यदेव, पश्चिम में नागार्जुन तथा उत्तर में कुमारलात समकालीन थे। ये चारों महापण्डित संसार-मण्डल को प्रकाशित करने वाले चार सूर्यों के समान थे कश्य-अन्टो (?) देश के राजा ने उनके गुणों और पण्डित्य से आकृष्ट होकर उनका (कुमारलात का) अपहरण कर लिया था और उनके लिए वहाँ एक संघाराम का निर्माण किया था'।
- इस विवरण से यह स्पष्ट है कि कुमारलात नागार्जुन के समकालिक थे। नागार्जुन के काल के बारे में भी विद्वानों में बहुत विवाद है। इस विषय की चर्चा यहाँ प्रासंगिक नहीं है, फिर भी उनका काल ईसा की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्द्ध समीचीन प्रतीत होता है। यही कुमारलात का भी काल है और आर्यदेव का भी, क्योंकि आर्यदेव नागार्जुन के साक्षात शिष्य थे।
- यद्यपि कुमारलात का नाम अभिधर्मकोश से सम्बद्ध भाष्य और टीकाओं मे प्रचुर रूप से उपलब्ध होता है, महाविभाषा, जो अभिधर्मपिटक की प्राचीनतम व्याख्या है, उसमें उनके नाम की चर्चा नहीं है। उसमें स्थविर भदन्त और उनके दार्ष्टान्तिक सिद्धान्तों की चर्चा है। यदि कुमारलात महाविभाषा की रचना के पूर्व विद्यमान होते तो यह सम्भव नहीं था कि इतने महान और लोकविश्रुत महापण्डित के नाम का उल्लेख उसमें न होता। इसलिए यह निश्चय होता है कि कुमारलात महाविभाषा शास्त्र की रचना से परवर्ती हैं।
- कुमारलात सौत्रान्तिक दर्शन के प्रथम प्रवर्तक आचार्य नहीं थे, अपितु आचार्य परम्परा के क्रम में उनका स्थान तृतीय है। शास्त्र नैपुण्य और गम्भीर ज्ञान की दृष्टि से उनका स्थान प्रथम हो सकता है, किन्तु काल की दृष्टि से वे प्रथम थे- विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर ऐसा नहीं माना जा सकता हैं।
कृतियाँ
- आचार्य कुमारलात ने 20 ग्रन्थों की रचना की थी, किन्तु उनमें से आज कोई भी उपलब्ध नहीं होते हैं।
- परवर्ती शास्त्रों में उनके ग्रन्थों में से कुछ संकेत अवश्य उपलब्ध होते हैं।
- चीनीस्त्रोत के आधार पर 'दृष्टान्तपंक्ति' नामक ग्रन्थ उनके द्वारा प्रणीत है, ऐसा उल्लेख मिलता है, किन्तु यह ग्रन्थ कुमारलात से पूर्व स्थिर भदन्त के समय विद्यमान था, इसकी भी सूचना प्राप्त होती है। 'कल्पनामण्डितिका' आचार्य की ही कृति है, इसका संकेत और स्त्रोत उपलब्ध है। भोटदेशीय विद्वान छिम-जम-पई-यंग महोदय ने आचार्य कुमारलात के मतों का निरूपण करते हुए उनके 'दु:खसप्तति' नामक एक ग्रन्थ से एक पद्य उद्धृत किया है। इससे ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ भी उनकी रचना है। इनके अलावा अन्य ग्रन्थों के साथ कुमारलात के सम्बन्ध की सूचना उपलब्ध नहीं है।