परिव्राज्य या सन्न्यास संस्कार: Difference between revisions

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*केवल यही नहीं, पुत्रैषणा, वित्तैषणा एवं लोकैषणा आदि समस्त एषणाओं का परित्याग भी कर देना होता है। इससे मोक्षमार्ग प्रशस्त बन जाता है।  
*केवल यही नहीं, पुत्रैषणा, वित्तैषणा एवं लोकैषणा आदि समस्त एषणाओं का परित्याग भी कर देना होता है। इससे मोक्षमार्ग प्रशस्त बन जाता है।  
*जो संन्यासी आश्रम-मठों से बाहर विचरण करते हों, उनके लिए भिक्षावृत्ति से जीवन-निर्वाह करने का विधान किया गया है।
*जो संन्यासी आश्रम-मठों से बाहर विचरण करते हों, उनके लिए भिक्षावृत्ति से जीवन-निर्वाह करने का विधान किया गया है।
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Revision as of 12:44, 10 January 2011

हिन्दू धर्म संस्कारोंमें परिव्राज्य या संन्यास संस्कार पंचदश संस्कार है।

  • संन्यास का अभिप्राय है सम्यक् प्रकार से त्याग।
  • संन्यास—आश्रम में प्रवेश करने के लिए भी संस्कार करना पड़ता है। इसलिये श्रुति में कहा गया है कि ब्रह्मचर्याश्रम समाप्त करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे, गृहस्थाश्रम के पश्चात वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करे और उसके बाद अन्तिम—चौथे संन्यास आश्रम में प्रवेश करे, यही वैदिक मान्यता है।[1]
  • संन्यास-आश्रम में प्रवेश करके ब्रह्मविद्या का अभ्यास करना पड़ता है और ब्रह्माभ्यास के द्वारा कैवल्य-मोक्ष की प्राप्ति का उपाय करना होता है।
  • केवल यही नहीं, पुत्रैषणा, वित्तैषणा एवं लोकैषणा आदि समस्त एषणाओं का परित्याग भी कर देना होता है। इससे मोक्षमार्ग प्रशस्त बन जाता है।
  • जो संन्यासी आश्रम-मठों से बाहर विचरण करते हों, उनके लिए भिक्षावृत्ति से जीवन-निर्वाह करने का विधान किया गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'ब्रह्मचर्यं समाप्य गृही भवेत्। गृहाद् वनी भूत्वा प्रव्रजेत्।'

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