ध्रुव: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
|||
Line 1: | Line 1: | ||
[[Category:कथा साहित्य कोश]] | |||
'''ध्रुव / Dhruva'''<br /> | |||
[[चित्र:Dhruva-Temple-Madhuvan.jpg|ध्रुव जी मन्दिर, [[मधुवन]]<br />Dhruva Ji Temple, Madhuvan|thumb|250px]] | [[चित्र:Dhruva-Temple-Madhuvan.jpg|ध्रुव जी मन्दिर, [[मधुवन]]<br />Dhruva Ji Temple, Madhuvan|thumb|250px]] | ||
उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो भार्यायें थीं । राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुये । यद्यपि सुनीति बड़ी रानी थी किन्तु राजा उत्तानपाद का प्रेम सुरुचि के प्रति अधिक था । एक बार उत्तानपाद ध्रुव को गोद में लिये बैठे थे कि तभी छोटी रानी सुरुचि वहाँ आई । अपने सौत के पुत्र ध्रुव को राजा के गोद में बैठे देख कर वह ईर्ष्या से जल उठी । झपटकर उसने ध्रुव को राजा के गोद से खींच लिया और अपने पुत्र उत्तम को उनकी गोद में बैठाते हुये कहा- | उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो भार्यायें थीं । राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुये । यद्यपि सुनीति बड़ी रानी थी किन्तु राजा उत्तानपाद का प्रेम सुरुचि के प्रति अधिक था । एक बार उत्तानपाद ध्रुव को गोद में लिये बैठे थे कि तभी छोटी रानी सुरुचि वहाँ आई । अपने सौत के पुत्र ध्रुव को राजा के गोद में बैठे देख कर वह ईर्ष्या से जल उठी । झपटकर उसने ध्रुव को राजा के गोद से खींच लिया और अपने पुत्र उत्तम को उनकी गोद में बैठाते हुये कहा- |
Revision as of 14:08, 25 April 2010
ध्रुव / Dhruva
[[चित्र:Dhruva-Temple-Madhuvan.jpg|ध्रुव जी मन्दिर, मधुवन
Dhruva Ji Temple, Madhuvan|thumb|250px]]
उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो भार्यायें थीं । राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुये । यद्यपि सुनीति बड़ी रानी थी किन्तु राजा उत्तानपाद का प्रेम सुरुचि के प्रति अधिक था । एक बार उत्तानपाद ध्रुव को गोद में लिये बैठे थे कि तभी छोटी रानी सुरुचि वहाँ आई । अपने सौत के पुत्र ध्रुव को राजा के गोद में बैठे देख कर वह ईर्ष्या से जल उठी । झपटकर उसने ध्रुव को राजा के गोद से खींच लिया और अपने पुत्र उत्तम को उनकी गोद में बैठाते हुये कहा-
"रे मूर्ख! राजा की गोद में वह बालक बैठ सकता है जो मेरी कोख से उत्पन्न हुआ है । तू मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हुआ है इस कारण से तुझे इनकी गोद में तथा राजसिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं है । यदि तेरी इच्छा राज सिंहासन प्राप्त करने की है तो भगवान नारायण का भजन कर । उनकी कृपा से जब तू मेरे गर्भ से उत्पन्न होगा तभी राजपद को प्राप्त कर सकेगा ।"
पाँच वर्ष के बालक ध्रुव को अपनी सौतेली माता के इस व्यहार पर बहुत क्रोध आया पर वह कर ही क्या सकता था ? इसलिये वह अपनी माँ सुनीति के पास जाकर रोने लगा । सारी बातें जानने के पश्चात सुनीति ने कहा-
"बेटा ध्रुव! तेरी सौतेली माँ सुरुचि से अधिक प्रेम होने के कारण तेरे पिता हम लोगों से दूर हो गये हैं । अब हमें उनका सहारा नहीं रह गया है । तू भगवान को अपना सहारा बना ले । सम्पूर्ण लौकिक तथा अलौकिक सुखों को देने वाले भगवान नारायण के अतिरिक्त तुम्हारे दुःख को दूर करने वाला और कोई नहीं है । तू केवल उनकी भक्ति कर ।"
माता के इन वचनों को सुन कर ध्रुव को कुछ ज्ञान उत्पन्न हुआ और वह भगवान की भक्ति करने के लिये पिता के घर को छोड़ कर चल दिया । मार्ग में उसकी भेंट देवर्षि नारद से हुई । नारद मुनि ने उसे वापस जाने के लिये समझाया किन्तु वह नहीं माना । तब उसके दृढ़ संकल्प को देख कर नारद मुनि ने उसे 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र की दीक्षा देकर उसे सिद्ध करने की विधि समझा दी । बालक के पास से देवर्षि नारद राजा उत्तानपाद के पास आये ।
[[चित्र:Dhruva-Kund-Madhuvan.jpg|ध्रुव कुण्ड, मधुवन
Dhruva Kund, Madhuvan|thumb|250px|left]]
राजा उत्तानपाद को ध्रुव के चले जाने के बाद पछतावा हो रहा था । नारद मुनि का विधिवत् पूजन तथा आदर सत्कार करने बाद वे बोले-
" हे देवर्षि! मैं बड़ा नीच तथा निर्दयी हूँ । मैंने स्त्री के वश में होकर अपने पाँच वर्ष के छोटे से बालक को घर से निकाल दिया । अब अपने इस कृत्य पर मुझे अत्यंत पछतावा हो रहा है ।"
ऐसा कहते हुये उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे । नारद जी ने राजा से कहा-
" राजन्! आप उस बालक की तनिक भी चिन्ता मत कीजिये । जिसका रक्षक भगवान हैं उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता । वह बड़ा प्रभावशाली बालक है । भविष्य में वह अपने यश को सारी पृथ्वी पर फैलायेगा । उसके प्रभाव से तुम्हारी भी कीर्ति इस संसार में फैलेगी ।"
नारद जी के इन वचनों से राजा उत्तानपाद को कुछ सान्त्वना मिली । उधर बालक ध्रुव ने यमुना जी के तट पर मधुवन में जाकर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र के जाप के साथ भगवान नारायण की कठोर तपस्या की । अत्यन्त अल्पकाल में ही उसकी तपस्या से भगवान नारायण ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन देकर कहा-
" हे राजकुमार! मैं तेरे अन्तःकरण की बात को जानता हूँ । तेरी सभी इच्छायें पूर्ण होंगी । तेरी भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुझे वह लोक प्रदान करता हूँ जिसके चारों ओर ज्योतिश्चक्र घूमता रहता है तथा जिसके आधार पर यह सारे ग्रह नक्षत्र घूमते हैं । प्रलयकाल में भी जिसका नाश नहीं होता । सप्तर्षि भी नक्षत्रों के साथ जिसकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं । यक्षों के द्वारा मारा जावेगा और उसकी माता सुरुचि पुत्र विरह के कारण दावानल में भस्म हो जावेगी । समस्त प्रकार के सर्वोत्तम ऐश्वर्य भोग कर अन्त समय में तू मेरे लोक को प्राप्त करेगा ।"
बालक ध्रुव को ऐसा वरदान देकर भगवान नारायण अपने लोक को चले गये।