कण्व: Difference between revisions
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*देवी [[शकुन्तला]] के धर्मपिता के रूप में महर्षि कण्व की अत्यन्त प्रसिद्धि है। | *देवी [[शकुन्तला]] के धर्मपिता के रूप में महर्षि कण्व की अत्यन्त प्रसिद्धि है। | ||
*महाकवि [[कालिदास]] ने अपने 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' में महर्षि के तपोवन, उनके आश्रम-प्रदेश तथा उनका जो धर्माचारपरायण उज्ज्वल एवं उदात्त चरित प्रस्तुत किया है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। उनके मुख से एक भारतीय कथा के लिये विवाह के समय जो शिक्षा निकली है, वह उत्तम गृहिणी का आदर्श बन गयी। <ref>महर्षि कण्व शकुन्तला की विदाई के समय कहते हैं— शुश्रूषस्व गुरुन् कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीज ने पत्युर्विप्रकृताऽपि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गम:। | *महाकवि [[कालिदास]] ने अपने 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' में महर्षि के तपोवन, उनके आश्रम-प्रदेश तथा उनका जो धर्माचारपरायण उज्ज्वल एवं उदात्त चरित प्रस्तुत किया है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। उनके मुख से एक भारतीय कथा के लिये विवाह के समय जो शिक्षा निकली है, वह उत्तम गृहिणी का आदर्श बन गयी। <ref>महर्षि कण्व शकुन्तला की विदाई के समय कहते हैं— शुश्रूषस्व गुरुन् कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीज ने पत्युर्विप्रकृताऽपि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गम:। |
Revision as of 12:59, 22 April 2010
महर्षि कण्व / Kanva
- देवी शकुन्तला के धर्मपिता के रूप में महर्षि कण्व की अत्यन्त प्रसिद्धि है।
- महाकवि कालिदास ने अपने 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' में महर्षि के तपोवन, उनके आश्रम-प्रदेश तथा उनका जो धर्माचारपरायण उज्ज्वल एवं उदात्त चरित प्रस्तुत किया है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। उनके मुख से एक भारतीय कथा के लिये विवाह के समय जो शिक्षा निकली है, वह उत्तम गृहिणी का आदर्श बन गयी। [1] वेद में ये बातें तो वर्णित नहीं हैं, पर इनके उत्तम ज्ञान, तपस्या, मन्त्रज्ञान, अध्यात्मशक्ति आदि का आभास प्राप्त होता है।
- 103 सूक्तवाले ॠग्वेद के आठवें मण्डल के अधिकांश मन्त्र महर्षि कण्व तथा उनके वंशजों तथा गोत्रजों द्वारा दृष्ट हैं। कुछ सूक्तों के अन्य भी द्रष्ट ऋषि हैं, किंतु 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' के अनुसार महर्षि कण्व अष्टम मण्डल के द्रष्टा ऋषि कहे गये हैं।
- ऋग्वेद के साथ ही शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन तथा काण्व-इन दो शाखाओं में से द्वितीय 'काण्वसंहिता' के वक्ता भी महर्षि कण्व ही हैं। उन्हीं के नाम से इस संहिता का नाम 'काण्वसंहिता' हो गया। ऋग्वेद [2]में इन्हें अतिथि-प्रिय कहा गया है। इनके ऊपर अश्विद्वय की कृपा की बात अनेक जगह आयी है और यह भी बताया गया है कि कण्व-पुत्र तथा इनके वंशधर प्रसिद्ध याज्ञिक थे [3]तथा वे इन्द्र के भक्त थे।
- ऋग्वेद के 8वें मण्डल के चौथे सूक्त में कण्व-गोत्रज देवातिथि ऋषि हैं; जिन्होंने सौभाग्यशाली कुरुंग नामक राजा से 60 हजार गायें दान में प्राप्त की थीं।[4] जो राजा 60-60 हजार गायें एक साथ दान कर सकता है, उसके पास कितनी गायें होंगी?
इस प्रकार ऋग्वेद का अष्टम मण्डल कण्ववंशीय ऋषियों की देवस्तुति में उपनिबद्ध है। महर्षि कण्व ने एक स्मृति की भी रचना की है, जो 'कण्वस्मृति' के नाम से विख्यात है।
- अष्टम मण्डल में 11 सूक्त ऐसे हैं, जो 'बालखिल्य सूक्त' के नाम से विख्यात हैं। देवस्तुतियों के साथ ही इस मण्डल में ऋषि द्वारा दृष्टमन्त्रों में लौकिक ज्ञान-विज्ञान तथा अनिष्ट-निवारण सम्बन्धी उपयोगी मन्त्र भी प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिये 'यत् इन्द्र मपामहे0'[5]- इस मन्त्र का दु:स्वप्र-निवारण तथा कपोलशक्ति के लिये पाठ किया जाता है। सूक्त की महिमा के अनेक मन्त्र इसमें आये हैं। [6] गौ की सुन्दर स्तुति है, जो अत्यन्त प्रसिद्ध है। ऋषि गो-प्रार्थना में उसकी महिमा के विषय में कहते हैं- गौ रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, अदितिपुत्रों की बहिन और घृतरूप अमृत का ख़ज़ाना है, प्रत्येक विचारशील पुरुष को मैंने यही समझाकर कहा है कि निरपराध एवं अवध्य गौ का वध न करो। [7]
टीका-टिप्पणी
- ↑ महर्षि कण्व शकुन्तला की विदाई के समय कहते हैं— शुश्रूषस्व गुरुन् कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीज ने पत्युर्विप्रकृताऽपि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गम:। भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामा: कुलस्याधय:॥ (अभिज्ञानशाकुन्तलम् 4।18)
- ↑ ऋग्वेद(1।36।10-11)
- ↑ (ऋक्0 8।1।8)
- ↑ धीभि: सातानि काण्वस्य वाजिन: प्रियमेधैरभिद्युभि:। षष्टिं सहस्त्रानु निर्मजाम जे निर्यूथानि गवामृषि:॥ (ऋक्0 8।4।20)
- ↑ बालखिल्य सूक्त(8।61।13)
- ↑ बालखिल्य सूक्त(8।97।5)
- ↑ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि:। प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट॥ (ऋक्0 8।101।15)