एक परिवार की कहानी -अवतार एनगिल: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
('{| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |चित्र=Dinesh-Raghuvanshi...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
Line 3: Line 3:
|
|
{{सूचना बक्सा कविता
{{सूचना बक्सा कविता
|चित्र=Dinesh-Raghuvanshi.JPG
|चित्र=Blank-1.gif
|चित्र का नाम=अवतार एनगिल
|चित्र का नाम=अवतार एनगिल
|कवि =[[अवतार एनगिल]]  
|कवि =[[अवतार एनगिल]]  

Revision as of 07:18, 26 August 2011

एक परिवार की कहानी -अवतार एनगिल
कवि अवतार एनगिल
जन्म 14 अप्रैल, 1940
जन्म स्थान पेशावर शहर (वर्तमान पाकिस्तान)
मुख्य रचनाएँ (इक सी परी (पंजाबी संग्रह,1981), सूर्य से सूर्य तक(कविता संग्रह,1983),मनख़ान आयेगा(कविता संग्रह,1985), अंधे कहार (कविता संग्रह,1991), तीन डग कविता (कविता संग्रह,1995), अफसरशाही बेनकाब (अनुवाद,1996)।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
अवतार एनगिल की रचनाएँ




पिता :
क्या कहा,
आप मुझे नहीं जानते?
अरे,मैं पिता हूं !
वर्षों पहले लगाये थे मैंने
इस पनीरी में
तीन नन्हें पौधे
ये तीनों पौधे मेरे तीन बेटे हैं
पहले हर पेड़ एक बेटा था
अब हर बेटा एक पेड़ है
बड़-सा, जड़ ।

मुझ-सा सुखी कौन है
तीनों मेरे नाम का दम भरते हैं
मेरी बहुओं की देख-भाल करते हैं।

बहुएं प्रायः कहती हैं :
'बाबू जी तो नदी किनारे के पेड़ हैं
कौन जाने कब...........'

और इधर
बूढ़े माली की आँखों में मोतिया उतर आया है
दिन भर खोजता है____किधर छाया है
कानों पर हाथ रख
प्रायः प्रतीक्षा करता है
शायद अभी काल-बैल होगी
कोई तो आएगा
कैसी विडम्बना है
एक पिता ने तीन पुत्र पाले थे
तीन पुत्र एक पिता को नहीं पाल सकते ?

मां :

अरे कपूतों
इस कोख-जलीको दकियानूसी कहते हो
जोरुओ के ग़ुलामों !
बाप दादा का घर छोड़
किराए के क्वार्टरों में रहते हो ।

तुम तीनों मेरे तीन दुःख थे
मेरी कंचन काया पर पड़े तीन कोड़े थे
या घिनौने फोड़े थे
तुम्हारे घावों ने
मेरी संतुलित देह को
झुर्रियों ने भर दिया
मेरे सावन के झूलों को
पतझर-सा कर दिया।


तिस पर
इन लिपी-पुती चुड़ेलों ने
बहका दिए
मेरे भोले बेटे !

पुराने घर के द्वारों में जड़ी
मैं अकेली
'इनके' दमे, गंठिये, और अंधेपन से लड़ी ।

आधी सदी बीती
एक बार घर आकर
मैंने नृत्य मुद्रा में दर्पण देखा था
अब तो जीवन ही दर्पण है
'ये' है
मैं हूँ
और दर्पण में दूर कहीं तुम तीनों हो।

बड़ा बेटा श्रवण कुमार :

बाबू जी अम्मां ने
केवल काम जिया
शरीर की आग में
सब सवाहा किया
ये दोनों पत्नि और पति थे
या काम और रति थे

मां के स्वभाव की कड़वाहट को
रेखा ने दस साल सहा
कभी एक शब्द नहीं कहा
कर्ता के कंधों झूलते
छोटे भाई कर्म को भूलते
कोल्हू का बैल
यदि आंख मूंद चलता
सभी उस पर निर्भर करते
बेल बन कर जीते
तो कभी पेड़ न बन पाते ।

पुराने घर की परछत्तियों पर
चमगादड़ों से उल्टे लटके
और दिन को रात महसूस करवाते
उस त्रिशंकु-युग को जीने की निसबत
टूटना कहीं बेहतर था ।

पुरखों का घर छोड़ते समय सोचा

'मेरा नाम श्रवण कुमार है
पर मुझे श्रवण कुमार नहीं बनना'

मंझला:
नाम में क्या रखा है
आप भी मुझे मंझला पुकार सकते हैं
तीन भाइयों में एक
अनजाना
अनचाहा मंझला
आदर के लिए बड़ा
स्नेह के लिए छोटा
मंझला बेटा पैसा खोटा ।

बिना फीस और बिना बस्ते के
घर से स्कूल
स्कूल से घर
स्कूल से पिटता
घर में घिसटता
अभाव के पाटों पिसता
गालियां सुनता
उधेड़ता-बुनता
सर धुनता
आखिरकार---शहर के बड़े व्यापारी का
छोटा सेल्ज़मैन बन गया
शादी हुई,थोड़ी देर लगा
सर पर आसमान तन गया,

पर पलक झपकते ही
डेढ़ कमरे का घर
और पुराने दरवाज़े
पत्नी और दो बच्चों से भर गये
चालीस तक पहुंचते
सर के बल झर गये
बीस वर्ष बीते
जब मैं बीस का था
शायद वह एक युग पहले की बात है
अब तो रात है
सुबह है
और फिर रात है।


छोटा विनोद :
देखिए,
मेरी जीकरनुमा शक्ल देखकर
हंसियेगा नहीं
मैं विनोद हूं : बप्पा का नालायक छोटा बेटा।

किसी तरह घिसटकर कालेज पहुंचा
तो एक दिन
एक सहपाठिन को
चिट्ठी लिख बैठा
लड़की मुस्कुराई
पर अगले दिन आया
हाकी उठाए उसका भाई
हुई धुनाई

पहुंचा घर
तो श्रवण भैया के सामने पेश किया गया
एक थी धुनाई
एक थी पिटाई
रात जब आई
मैं भाग खड़ा हुआ
छोड़ा ऊना
पहुँचा पूना
छोटा-मोटा व्यापार किया
कुछ कमाया
कुछ खाया
कुछ बचाया
एक पारसी लड़की से की शादी
हुआ एक नन्हा बच्चा।

धीरे-धीरे
कपड़ों, कर्ज़ों, फीसों का चक्रव्यूह तोड़ा
थोड़ा बहुत पैसा जोड़ा
और आज
पंद्रह दिन के लिए
बिना चिट्ठी दिए
घर जा रहा हूँ
आप मित्र हैं इसलिए बता रहा हूँ

ऊना पहुँचकर
मां को सरप्राईज़ दूंगा
अचानक कॉल बैल बजाऊँगा
और मां के सामने
उसकी छोटी बहु को पेश कर कहूंगा,
'जी भर कर गालियां दे लो मां।

परिवार :
मां कहती है :
'आधी सदी बीती
जब एक बार घर आकर
मैंने नृत्य-मुद्रा में दर्पण देखा था
अब तो जीवन का दर्पण है
'ये है,मैं हूं,
और दर्पण में दूर कहीं तुम तीनों हो'।
बड़ा बेटा कहता है :
'मेरा नाम श्रवण कुमार है
पर मुझे श्रवण नहीं बनना।

अनाम मंझला कहता है :
'आदर के लिए बड़ा
स्नेह के लिए छोटा
मंझला बेटा पैसा खोटा ।

पिता बोलते हैं :
'सूने घर की दीवारों से
शायद अभी कॉल बैल टकराएगी।

छोटा विनोद चहकता है :
'ऊना पहुँचकर मां को सरप्राईज़ दूंगा
अचानक कॉल बैल बजाऊँगा
और मां के सामने
उसकी छोटी बहू को पेश कर कहूंगा :
'जी भर कर गालियां दे लो माँ ।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख