हितहरिवंश: Difference between revisions

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'''हितहरिवंश / Hitharivansh'''<br />
[[राधावल्लभ सम्प्रदाय]] के संस्थापक श्री हरिवंश थे। उनके पिता श्री व्यास सहारनपुर ज़िले के देववन के गौड़ ब्राह्मण थे, जो बहुत दिनों तक नि:सन्तान रहे। वे सम्राट की सेवा में थे। एक अवसर पर वे [[आगरा]] से सम्राट के पास आ रहे थे कि सं0 1559 वि0 में [[मथुरा]] के समीप बाद गाँव में उनकी पत्नी तारा ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया। जिन प्रभु की आराधना और याचना स्वरूप उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी, उनके आभार स्वरूप उन दोनों ने बालक का नाम हरिवंश (हरि सन्तान) रख दिया। बड़े होने पर उनको रुक्मिणी नाम की पत्नी मिलीं। उससे उन्हें तीन सन्तानें हुई, दो पुत्र और एक पुत्री। पुत्रों में से मोहनचन्द नि:सन्तान स्वर्गीय हो गये। छोटे पुत्र गोपीनाथ के वंशधर अब भी देवबन में हैं।  पुत्री का विवाह करके उन्होंने संसार त्याग कर सन्यासी होने का निश्चय किया। इस दृढ़ निश्चय के साथ वे अकेले [[वृन्दावन]] की दिशा में चल पड़े और [[होडल]] के समीपस्थ चरथावल पहुँचे। वहाँ उन्हें एक ब्राह्मण मिला, जिसने उनकी सेवा में दो पुत्रियाँ भेंट करके प्रार्थना की कि वे उनको अपनी पत्नी बनायें। ऐसा उस (ब्राह्माण) ने एक स्वप्न में प्राप्त दैवी आज्ञा शक्ति के अधीन किया। ब्राह्मण ने उन्हें राधावल्लभ नामक एक [[कृष्ण]] विग्रह भी दिया। जब वे वृन्दावन पहुँच गये तो श्री हरिवंश ने उसे [[यमुना नदी|यमुना]] किनारे जुगल और कोलिया घाट के मध्य संस्थापित मन्दिर में प्रतिष्ठित कर दिया। मूलत: वे माधवाचार्य सम्प्रदायी थे। [[निम्बार्क संप्रदाय‎|निम्बार्क सम्प्रदायी]] भी उन पर अपना दावा करते हैं। इन दोनों से ही उन्होंने अपने सिद्धान्त और शास्त्र विधि प्रतिज्ञापूर्वक ग्रहण किये। उस रहस्यमयी घटना के फलस्वरूप, जिससे वे सन्यस्त जीवन जीने की इच्छा को भूलकर दोनों पत्नियों में रमे अथवा अपनी अदम्य स्वाभाविक विषय वासनाओं के फलस्वरूप जिन पर वे विजय न पा सके, अत: कल्पना का बहाना बनाया। उनकी भक्ति स्वयं कृष्ण के प्रति न होकर (गौण रूप को छोड़कर) उनकी कल्पित अर्द्धांगनी [[राधा]] के प्रति समर्पित हो गई, जिसे उन्होंने श्रृंगार की देवी के रूप में प्रतिष्ठित किया। तनिक भी आश्चर्य नहीं कि आरम्भ में इस व्यवस्था को स्तुत्य नहीं समझा गया, जैसा कि भक्तमाल की निम्नोक्त भाषा से स्पष्ट होता है  
[[राधावल्लभ सम्प्रदाय]] के संस्थापक श्री हरिवंश थे। उनके पिता श्री व्यास सहारनपुर ज़िले के देववन के गौड़ ब्राह्मण थे, जो बहुत दिनों तक नि:सन्तान रहे। वे सम्राट की सेवा में थे। एक अवसर पर वे [[आगरा]] से सम्राट के पास आ रहे थे कि सं0 1559 वि0 में [[मथुरा]] के समीप बाद गाँव में उनकी पत्नी तारा ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया। जिन प्रभु की आराधना और याचना स्वरूप उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी, उनके आभार स्वरूप उन दोनों ने बालक का नाम हरिवंश (हरि सन्तान) रख दिया। बड़े होने पर उनको रुक्मिणी नाम की पत्नी मिलीं। उससे उन्हें तीन सन्तानें हुई, दो पुत्र और एक पुत्री। पुत्रों में से मोहनचन्द नि:सन्तान स्वर्गीय हो गये। छोटे पुत्र गोपीनाथ के वंशधर अब भी देवबन में हैं।  पुत्री का विवाह करके उन्होंने संसार त्याग कर सन्यासी होने का निश्चय किया। इस दृढ़ निश्चय के साथ वे अकेले [[वृन्दावन]] की दिशा में चल पड़े और [[होडल]] के समीपस्थ चरथावल पहुँचे। वहाँ उन्हें एक ब्राह्मण मिला, जिसने उनकी सेवा में दो पुत्रियाँ भेंट करके प्रार्थना की कि वे उनको अपनी पत्नी बनायें। ऐसा उस (ब्राह्माण) ने एक स्वप्न में प्राप्त दैवी आज्ञा शक्ति के अधीन किया। ब्राह्मण ने उन्हें राधावल्लभ नामक एक [[कृष्ण]] विग्रह भी दिया। जब वे वृन्दावन पहुँच गये तो श्री हरिवंश ने उसे [[यमुना नदी|यमुना]] किनारे जुगल और कोलिया घाट के मध्य संस्थापित मन्दिर में प्रतिष्ठित कर दिया। मूलत: वे माधवाचार्य सम्प्रदायी थे। [[निम्बार्क संप्रदाय‎|निम्बार्क सम्प्रदायी]] भी उन पर अपना दावा करते हैं। इन दोनों से ही उन्होंने अपने सिद्धान्त और शास्त्र विधि प्रतिज्ञापूर्वक ग्रहण किये। उस रहस्यमयी घटना के फलस्वरूप, जिससे वे सन्यस्त जीवन जीने की इच्छा को भूलकर दोनों पत्नियों में रमे अथवा अपनी अदम्य स्वाभाविक विषय वासनाओं के फलस्वरूप जिन पर वे विजय न पा सके, अत: कल्पना का बहाना बनाया। उनकी भक्ति स्वयं कृष्ण के प्रति न होकर (गौण रूप को छोड़कर) उनकी कल्पित अर्द्धांगनी [[राधा]] के प्रति समर्पित हो गई, जिसे उन्होंने श्रृंगार की देवी के रूप में प्रतिष्ठित किया। तनिक भी आश्चर्य नहीं कि आरम्भ में इस व्यवस्था को स्तुत्य नहीं समझा गया, जैसा कि भक्तमाल की निम्नोक्त भाषा से स्पष्ट होता है  


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Revision as of 05:10, 22 May 2010

राधावल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक श्री हरिवंश थे। उनके पिता श्री व्यास सहारनपुर ज़िले के देववन के गौड़ ब्राह्मण थे, जो बहुत दिनों तक नि:सन्तान रहे। वे सम्राट की सेवा में थे। एक अवसर पर वे आगरा से सम्राट के पास आ रहे थे कि सं0 1559 वि0 में मथुरा के समीप बाद गाँव में उनकी पत्नी तारा ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया। जिन प्रभु की आराधना और याचना स्वरूप उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी, उनके आभार स्वरूप उन दोनों ने बालक का नाम हरिवंश (हरि सन्तान) रख दिया। बड़े होने पर उनको रुक्मिणी नाम की पत्नी मिलीं। उससे उन्हें तीन सन्तानें हुई, दो पुत्र और एक पुत्री। पुत्रों में से मोहनचन्द नि:सन्तान स्वर्गीय हो गये। छोटे पुत्र गोपीनाथ के वंशधर अब भी देवबन में हैं। पुत्री का विवाह करके उन्होंने संसार त्याग कर सन्यासी होने का निश्चय किया। इस दृढ़ निश्चय के साथ वे अकेले वृन्दावन की दिशा में चल पड़े और होडल के समीपस्थ चरथावल पहुँचे। वहाँ उन्हें एक ब्राह्मण मिला, जिसने उनकी सेवा में दो पुत्रियाँ भेंट करके प्रार्थना की कि वे उनको अपनी पत्नी बनायें। ऐसा उस (ब्राह्माण) ने एक स्वप्न में प्राप्त दैवी आज्ञा शक्ति के अधीन किया। ब्राह्मण ने उन्हें राधावल्लभ नामक एक कृष्ण विग्रह भी दिया। जब वे वृन्दावन पहुँच गये तो श्री हरिवंश ने उसे यमुना किनारे जुगल और कोलिया घाट के मध्य संस्थापित मन्दिर में प्रतिष्ठित कर दिया। मूलत: वे माधवाचार्य सम्प्रदायी थे। निम्बार्क सम्प्रदायी भी उन पर अपना दावा करते हैं। इन दोनों से ही उन्होंने अपने सिद्धान्त और शास्त्र विधि प्रतिज्ञापूर्वक ग्रहण किये। उस रहस्यमयी घटना के फलस्वरूप, जिससे वे सन्यस्त जीवन जीने की इच्छा को भूलकर दोनों पत्नियों में रमे अथवा अपनी अदम्य स्वाभाविक विषय वासनाओं के फलस्वरूप जिन पर वे विजय न पा सके, अत: कल्पना का बहाना बनाया। उनकी भक्ति स्वयं कृष्ण के प्रति न होकर (गौण रूप को छोड़कर) उनकी कल्पित अर्द्धांगनी राधा के प्रति समर्पित हो गई, जिसे उन्होंने श्रृंगार की देवी के रूप में प्रतिष्ठित किया। तनिक भी आश्चर्य नहीं कि आरम्भ में इस व्यवस्था को स्तुत्य नहीं समझा गया, जैसा कि भक्तमाल की निम्नोक्त भाषा से स्पष्ट होता है

॥मूल॥

श्री हरिवंश गुसांई भजन की रीति सकृत कोऊ जानि है।

श्री राधाचरण प्रधान हृदै अति सहृद उपासी।

कुंज केलि दंपति तहाँकी करत खबासी॥

सर्व सुमहा प्रसाद प्रसिधिता के अधिकारी।

विधि निषेध नहिं दास अनन्य उत्कट व्रतधारी॥

श्री व्यास सुवन पथ अनुसरै सोई भलैं पहिचानि है।

श्री हरिवंश गुसांई भजन की रीति सकृत कोउ जानि है॥


श्री हरिवंश गुसांई अपनी भक्ति की रीति तत्काल जान सकते हैं जिनके अनुसार श्री राधा के चरण आराधना के सर्वोच्च आस्पद हैं। वे सुदृढ़ उपासक भक्त हैं। जो कुंज केलिक्रीड़ा में रत दम्पति की खवासी करते हैं। मन्दिर के भोग प्राप्त करने में जो गर्व और प्रसिद्धि के अधिकारी है। जो एकमेव ऐसे चाकर हैं, जो कदापि विधि निषेध नहीं करते, एक अप्रतिम उत्कंठित व्रतधारी हैं। जो कोई व्यास पुत्र के पथ का अनुसरण करेगा, वही भले पहचान सकता है। श्री हरिवंश गुसांई अपनी भक्ति की रीति तत्काल जान सकते हैं। सं0 1769 वि0 में लिखित प्रियादास की टीका में वही भाव विशदीकृत है और ब्राह्मण तथा उसको दो कन्याओं को कहानी की सन्दर्भित किया गया है। उनकी बाद वाली पत्नियों से ब्रजचन्द और कृष्णचन्द दो बेटे हुए, जिनमें से कृष्णचन्द ने राधामोहन जी का मन्दिर बनाया, जो अब भी उनके वंशधरों के अधिकार में है। सम्प्रदाय के मुख्य मन्दिर श्री राधावल्लभ के गुसांइयों के पूर्वज ब्रजचन्द थे। इसका निर्माण उनके शिष्य सुन्दरदास नामक कायस्थ द्वारा कराया गया था। जो दिल्ली का खजांची था। सामने के एक स्तम्भ पर निर्माण-तिथि सं0 1683 वि0 अंकित है। सं0 1641 वि0 का एक शिला लेख प्रोफेसर विलसन ने देखा था। यह बाहरी आंगन की ओर वाले द्वार पर प्रतीत होता है। जो अब गिर चुका है और हटा दिया गया। सड़क की विपरीत दिशा में संस्थापक का स्थापन है जिसकी मरम्मत कराने में गुसांइयों की सन्तति अत्यन्त कृपण रही थी। ये ब्रजचन्द के चार उत्तराधिकारी पुत्र थे—

  1. सुन्दरवर,
  2. राधाबल्लभदास,
  3. बृजभूषण और
  4. नागरवर।

चारों परिवारों के प्रमुख इन्हें चला रहे हैं वे थे-

  1. दयालाल,
  2. मनोहर,
  3. वल्लभ,
  4. सुन्दर लाल और
  5. कन्हैयालाल का दत्तक पुत्र ।

हरिवंश स्वयं दो काव्यों के रचयिता रहे हैं-

  1. "चौरासी पद" हिन्दी में और
  2. दूसरा संस्कृत में "राधा सुधा निधि" 170 श्लोकों का।
  • "राधा सुधानिधि" यद्यपि अधिक पढ़ा नहीं गया तथापि अधिक आदर पूर्वक सराहा गया है। हृदय को प्रभावित करने वाले इन प्रेम सम्बन्धी पद्यांशों पर, जो भक्ति और काव्य का संगम है, बंशीधर द्वारा हिन्दी में अच्छी टीका सम्वत् 1820 में लिखी गयी।
  • श्रीराधा रस सुधानिधि के कुछ श्लोक यहाँ दिये जा रहे हैं—

यस्या: कदापि वसनांचलखेलनोत्थधन्यातिधन्य पवनेन कृतार्थमानी।

योगीन्द्रदुर्गमगतिर्मधुसूदनोऽपि तस्या नमोऽस्तु वृषभानु भुवोदिशेऽपि ॥1॥

सत्प्रेमराशिसरसो बिकसत्सरोजं स्वानन्द सिन्धुरससिन्धुविवर्द्धनेन्दुम्।

तच्छ्रीमुखं कुटिलकुंतलभृंगजुष्ट श्रीराधिके तवकदानु विलोकयिष्ये ॥24॥

अद्भुतानन्द लोभश्चेन्नाम्ना रस सुधानिधि:।

स्तंवोऽवं कर्णकलशैर्गृहीत्वा पीयतां बुधा: ॥170॥

इति श्री वृन्दाबनेश्वरी चरण कृपामाचविजृ भित श्री हित हरिवंश गोस्वामिनी विरचिता श्रीराधा रस सुधानिधि: संपूर्णम्।