बनारस की ताम्रकला: Difference between revisions

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प्रारंभ में यहां केवल धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयुक्त होने वाले पात्रों का निर्माण होता रहा। इन पात्रों में प्रमुख नाम इस प्रकार है:
प्रारंभ में यहां केवल धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयुक्त होने वाले पात्रों का निर्माण होता रहा। इन पात्रों में प्रमुख नाम इस प्रकार है:
# पंचपात्र
{| class="bharattable-purple"
# अर्ध्य
|-
# आचमन
! क्रमांक
# दीप
! पात्र
# फूलों की डालिया (फूलडाली)
! चित्र
# घंटी
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# घंटा
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# मंगल कलश
| पंचपात्र
# त्रिशुल
| [[चित्र:Panchpatra.jpg|70px|center]]
# लोटा
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# कमण्डल
| 2
# मूर्ति
| अर्ध्य
# झालर
| [[चित्र:Ardhya.jpg|70px|center]]
# घुंघरू आदि।
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| आचमन
| [[चित्र:Achaman.jpg|70px|center]]
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| 4
| दीप
| [[चित्र:Dipak.jpg|70px|center]]
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| 5
| फूलों की डलिया (फूलडाली)
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| 6
| घंटी
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| 7
| घंटा
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| 8
| मंगल कलश
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| 9
| त्रिशूल
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लोटा
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| 11
| कमण्डल
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| 12
| मूर्ति
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| 13
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| घुंघरू
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==ताम्रकला उद्योग का सार्वभौमिक स्वरुप==
==ताम्रकला उद्योग का सार्वभौमिक स्वरुप==
[[मुसलमान|मुसलमानों]] के [[भारत]] आगमन के बाद ताम्र उद्योग (कला) पर भी [[इस्लाम]] का प्रभाव पड़ा। परन्तु इस कला ने भी इस्लाम की कला को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। धीरे-धीरे यहां के ताम्र-कलाकारों ने मुसलमानों के शादी-विवाह या अन्य उत्सवों में प्रयुक्त होने वाले नक्काशीयुक्त बर्तन (पात्र), थाल, तरवाना इत्यादि बनाना प्रारंभ किया। पात्रों की कलात्मक में अत्यधिक आकर्षण था। इस कलात्मकता आकर्षण से [[हिन्दू]] भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। धीरे-धीरे हिन्दुओं ने भी इन पात्रों का उपयोग अपने यहां के उत्सवों तथा शादी-विवाह आदि के आयोजनों में करना प्रारम्भ कर दिया।
[[मुसलमान|मुसलमानों]] के [[भारत]] आगमन के बाद ताम्र उद्योग (कला) पर भी [[इस्लाम]] का प्रभाव पड़ा। परन्तु इस कला ने भी इस्लाम की कला को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। धीरे-धीरे यहां के ताम्र-कलाकारों ने मुसलमानों के शादी-विवाह या अन्य उत्सवों में प्रयुक्त होने वाले नक्काशीयुक्त बर्तन (पात्र), थाल, तरवाना इत्यादि बनाना प्रारंभ किया। पात्रों की कलात्मक में अत्यधिक आकर्षण था। इस कलात्मकता आकर्षण से [[हिन्दू]] भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। धीरे-धीरे हिन्दुओं ने भी इन पात्रों का उपयोग अपने यहां के उत्सवों तथा शादी-विवाह आदि के आयोजनों में करना प्रारम्भ कर दिया।

Revision as of 08:07, 20 November 2012

बनारस या वाराणसी में पीतल एवं ताम्बे से बने कलात्मक चीजों एवं पात्रों का प्रचलन अन्य उद्योग जैसे साड़ी तथा काष्ठकला के समान ही अति प्राचीन है। इसका मुख्य कारण काशी का पुण्यधाम होना है। जब तीर्थयात्री बनारस आते थे तो वे लोग यहां पर विभिन्न तरह के संस्कार तथा पूजा पाठ में उपयुक्त होने वाले पात्रों को खरीदते थे। कुछ पात्र खरीदकर घर भी ले जाते थे। इन्हीं कारणों से यह उद्योग विकसित तथा पुष्पित होता रहा। यहां के पात्रों की कलात्मकता इतनी अच्छी थी कि इनकी मांग धीरे-धीरे अन्य धार्मिक स्थानों एवं नगरों में भी होने लगी। एक समय ऐसा भी आया जब यहां के अनुष्ठानी पात्र तथा सिहांसन, त्रिशूल, घंटी, घंटा, घुंघरू आदि की मांग देवघर, वृन्दावन, उज्जैन और तो और नेपाल के काठमांडू शहर के पशुपतिनाथ मंदिर के परिसर तक होने लगी। इसी के साथ-साथ धीरे-धीरे यहां के ताम्र कलाकारों ने और भी बहुत से सजावट की वस्तु, घरेलू उद्योग के पात्र, मूर्ति एन्टीक पीस इत्यादि भी बनाना प्रारंभ कर दिया। इससे भी इसका विस्तार होने लगा, तथा जगह-जगह पर इनके द्वारा बनाए गए 'कला-कृतियों' की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ ती गयी।[1]

प्रारंभ में यहां केवल धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयुक्त होने वाले पात्रों का निर्माण होता रहा। इन पात्रों में प्रमुख नाम इस प्रकार है:

क्रमांक पात्र चित्र
1 पंचपात्र 70px|center
2 अर्ध्य 70px|center
3 आचमन 70px|center
4 दीप 70px|center
5 फूलों की डलिया (फूलडाली)
6 घंटी
7 घंटा
8 मंगल कलश
9 त्रिशूल
10 लोटा
11 कमण्डल
12 मूर्ति
13 झालर
14 घुंघरू

ताम्रकला उद्योग का सार्वभौमिक स्वरुप

मुसलमानों के भारत आगमन के बाद ताम्र उद्योग (कला) पर भी इस्लाम का प्रभाव पड़ा। परन्तु इस कला ने भी इस्लाम की कला को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। धीरे-धीरे यहां के ताम्र-कलाकारों ने मुसलमानों के शादी-विवाह या अन्य उत्सवों में प्रयुक्त होने वाले नक्काशीयुक्त बर्तन (पात्र), थाल, तरवाना इत्यादि बनाना प्रारंभ किया। पात्रों की कलात्मक में अत्यधिक आकर्षण था। इस कलात्मकता आकर्षण से हिन्दू भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। धीरे-धीरे हिन्दुओं ने भी इन पात्रों का उपयोग अपने यहां के उत्सवों तथा शादी-विवाह आदि के आयोजनों में करना प्रारम्भ कर दिया।

'बदना' का निर्माण

कालान्तर में मुसलमानों द्वारा व्यवहार में लाया जाने वाला 'बदना' का निर्माण भी पूर्णतः कलात्मक ढंग से काशी के कसेरों ने प्रारंभ किया। 'बदना' में इनके द्वारा निखारी गयी कलात्मकता ने सभ्रान्त मुसलमान, यहां तक कि मुगल बादशाहों, रईसों और लखनऊ के नवाबों का भी मन मोह लिया। इनकी कला-क्षमता तथा प्रयोगवादिता से प्रभावित होकर इन लोगों ने काशी के ताम्र कलाकारों को प्रोत्साहित करना शुरु किया। प्रोत्साहन आर्थिक मदत तथा समाजिक मर्यादा या सम्मान दोनों ही रुप में दिया जाता था। ताम्र कलाकार इससे और अधिक प्रोत्साहित होकर एक से एक कलात्मक तथा मनमोहक ताम्र-कलाकृतियों का निर्माण करते रहे। इनकी कलाकृति आश्चर्यजनक, आकर्षक, प्रयोगवादी तथा अपने आप में एक अनूठी चीज थी।

इसके अतिरिक्त बनारस के ताम्र-कलाकारों ने हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ रखा। इस तरह से यहां की ताम्र-कला तीव्रगति से आगे बढ़ते हुए फलती-फूलती तथा विकसित होती रही। कुछ अंश में स्थानीय लोग तथा बहुतायत में तीर्थयात्रियों द्वारा इन कला-कृतियों की खपत होती रही। रईसों ने भी इनसे अपना सम्पर्क बनाए रखा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मिश्र, डॉ. कैलाश कुमार। बनारस की ताम्रकला (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) ignca.nic.।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख