पण्डित मुखराम शर्मा: Difference between revisions
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पंडित मुखराम शर्मा की [[मुम्बई]] में फ़िल्म 'औलाद' थी। जब वर्ष [[1954]] में यह फ़िल्म परदे पर आई तो इसकी सफलता के बाद मुखरामजी ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। [[1955]] में अपनी कहानी के लिए पहला 'फ़िल्म फेयर पुरस्कार' लेने के बाद उन्होंने निम्नलिखित सफल फ़िल्में लिखीं- | पंडित मुखराम शर्मा की [[मुम्बई]] में फ़िल्म 'औलाद' थी। जब वर्ष [[1954]] में यह फ़िल्म परदे पर आई तो इसकी सफलता के बाद मुखरामजी ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। [[1955]] में अपनी कहानी के लिए पहला 'फ़िल्म फेयर पुरस्कार' लेने के बाद उन्होंने निम्नलिखित सफल फ़िल्में लिखीं- | ||
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मुखराम शर्मा जी ने वर्ष [[1958]] में एक निर्माता के तौर पर 'तलाक़' और 'संतान' सहित आधा दर्जन फ़िल्में बनाई थीं। सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डालने और अपनी कहानियों के द्वारा उनका हल ढूँढने में उनकी रूचि ने उनके लेखन के पीछे की असली ताकत के रूप में काम किया। उनकी लगभग सभी फ़िल्में अपनी सामाजिक टिप्पणी और सुधार की दिशा में दिए गए सुझावों के कारण पसंद की जाती थीं। फ़िल्म 'एक ही रास्ता' विधवाओं की समस्याओं पर आधारित थी। 'वचन' एक अविवाहित बेटी की कहानी थी, जो अपने परिवार का लालन-पालन करती है। फ़िल्म 'स्वप्न सुहाने' भाइयों और उनके पारस्परिक संबंधों की कहानी थी, जबकि 'पतंगा' में मालिक और नौकर के बीच के संवेदनशील रिश्ते को प्रमुखता के साथ प्रस्तुत किया गया था।<ref name="ab"/> | मुखराम शर्मा जी ने वर्ष [[1958]] में एक निर्माता के तौर पर 'तलाक़' और 'संतान' सहित आधा दर्जन फ़िल्में बनाई थीं। सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डालने और अपनी कहानियों के द्वारा उनका हल ढूँढने में उनकी रूचि ने उनके लेखन के पीछे की असली ताकत के रूप में काम किया। उनकी लगभग सभी फ़िल्में अपनी सामाजिक टिप्पणी और सुधार की दिशा में दिए गए सुझावों के कारण पसंद की जाती थीं। फ़िल्म 'एक ही रास्ता' विधवाओं की समस्याओं पर आधारित थी। 'वचन' एक अविवाहित बेटी की कहानी थी, जो अपने परिवार का लालन-पालन करती है। फ़िल्म 'स्वप्न सुहाने' भाइयों और उनके पारस्परिक संबंधों की कहानी थी, जबकि 'पतंगा' में मालिक और नौकर के बीच के संवेदनशील रिश्ते को प्रमुखता के साथ प्रस्तुत किया गया था।<ref name="ab"/> | ||
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मुखरामजी की सबसे मशहूर फ़िल्मों में से एक 'साधना' गहरी अंतर्दृष्टि के साथ एक वेश्या के जीवन पर प्रकाश डालती है। यह वकालत करती है कि वेश्यावृत्ति एक ऐसी सामाजिक प्रथा है, जहाँ पुरुष भी समान रूप से ज़िम्मेदार है और कोई भी वेश्या सबसे पहले एक स्त्री है फिर कुछ और। अपनी इस फ़िल्म के माध्यम से मुखरामजी जी ने समाज के समक्ष यह बात रखी कि एक वेश्या को समाज द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए। उन्होंने फ़िल्म के माध्यम से दर्शकों को विश्वास दिलाया कि यह न सिर्फ़ संभव है बल्कि सही भी है। बॉक्स-ऑफिस पर 'साधना' फ़िल्म की सफलता ने यह साबित कर दिखाया कि मुखरामजी समय के साथ थे और उन्हें अपने दर्शकों की नब्ज़ की पूरी तरह समझ थी। | |||
====रोचक प्रसंग==== | |||
फ़िल्म 'साधना' के निर्माण के बारे में एक दिलचस्प किस्सा भी है। इस फ़िल्म की कहानी को पूरा करने के बाद मुखरामजी [[बिमल रॉय]] के पास गये और उनसे इसका निर्देशन करने के लिए आग्रह किया। बिमल रॉय ने 'मोहन स्टूडियो' में मिलने का सुझाव दिया और कार यात्रा के दौरान मुखरामजी से 'साधना' की कहानी सुनाने को कहा। कहानी सुनते ही बिमल रॉय इसके बोल्ड विषय से प्रभावित होकर तुरंत इसे बनाने पर सहमत हो गये। लेकिन वे एक उलझन में थे कि इस कहानी को दर्शकों द्वारा स्वीकार किया जाएगा या नहीं। उन्होंने फ़िल्म का अंत बदलने के लिए एक सुझाव दिया। उनका दावा था कि 'रजिनी' (उर्फ़ चम्पाबाई, अभिनेत्री [[वैजयंती माला]] द्वारा निभाया गया चरित्र) चूँकि एक बदनाम औरत है, लोग उसे बहू के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए कहानी को उसकी मौत के साथ समाप्त करना बेहतर होगा। मुखरामजी ने बिमल दा को सुना और ड्राइवर से गाड़ी रोकने को कहा। वे कार से बाहर आ गये, बिमल दा को लगा कि मुखरामजी शंका निवारण अथवा किसी और आवश्यक कार्य हेतु उतरे हैं, परन्तु उनके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा, जब मुखरामजी वहाँ से चल दिए। उन्होंने एक टैक्सी ली और सीधे [[बी. आर. चोपड़ा]] के पास पहुँचे, जो कहानी को जस का तस फ़िल्माने के लिए राज़ी थे। | |||
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Revision as of 07:37, 3 March 2013
पण्डित मुखराम शर्मा (जन्म- 30 मई, 1909, मेरठ, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 25 अप्रैल, 2000) 'भारतीय सिनेमा' में अपने समय के ख्यातिप्राप्त पटकथा लेखक थे। वे मेरठ से साधारण शख्स के तौर पर मायानगरी मुंबई पहुँचे थे और फ़िल्मी दुनिया में कथा, पटकथा और संवाद लेखक के तौर पर एक महान हस्ति का दर्जा पाया था। पूरे भारत से फ़िल्म वितरक मुखराम शर्मा को फ़ोन करके पूछा करते थे कि उनकी अगली फ़िल्म कौन-सी है और किसके साथ है। उस समय मुखरामजी का जवाब किसी फ़िल्म के सभी अधिकार रातों-रात बिकवाने की गारंटी हुआ करता था। वे जो लिख रहे होते थे, उसका ट्रैक रखने के लिए वितरक और निर्माता उनके घर के नियमित चक्कर लगाते रहते थे। उनके पास अपनी पसंद के निर्माता और निर्देशकों को अपनी कहानियाँ को बेचने का विशेष अधिकार प्राप्त था।
जीवन परिचय
पंडित मुखराम शर्मा का जन्म 30 मई, 1909 में मेरठ के क़िला परीक्षितगढ़ क्षेत्र के एक गाँव पूठी में हुआ था। उन्होंने अपने व्यावसायिक जीवन की शुरुआत हिन्दी और संस्कृत के शिक्षक के रूप में की थी। मुखरामजी मेरठ में ही शिक्षक के पद पर नियुक्त हुए थे, लेकिन शिक्षण कार्य से प्यार करने के बावजूद भी वे अपने भीतर एक कमी महसूस करते थे। उन्होंने महसूस किया कि शिक्षण उनका असली व्यवसाय नहीं था।[1]
मुम्बई आगमन
फ़िल्में देखना मुखराम शर्मा जी बहुत पसंद करते थे और "प्रभात फ़िल्म कंपनी" और "न्यू थियेटर" द्वारा बनाई गई फ़िल्मों के बड़े शौकीन तथा प्रशंसक थे। पत्रिकाओं के लिए लघु कहानियाँ और कविताएँ लिखने वाले मुखराम शर्मा ने निश्चय किया कि अब वे फ़िल्मों के लिए भी लिखना शुरू करेंगे। वह मेरठ में अपने एक मित्र के पास गए, जो हिन्दी फ़िल्म उद्योग के साथ जुड़ा हुआ था और मुम्बई आता-जाता रहता था। उन्होंने उसे अपनी एक कहानी सुनाई। दोस्त उनसे इतना प्रभावित हुआ कि उसने मुखरामजी से अपने साथ मुम्बई आने को कहा। इस प्रकार वर्ष 1939 में मुखराम शर्मा सपनों के शहर मुम्बई आ गये।
प्रारंभिक निराशा
शुरुआत में मुखराम शर्मा जी को सफलता प्राप्त नहीं हुई। फ़िल्म निर्माताओं ने इस प्रतिभाशाली लेखक का स्वागत नहीं किया और मुखराम बहुत ही हताशा और निराशा में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ, जो उनके साथ ही मुंबई रहने आ गये थे, पुणे चले गए। वे 'प्रभात फ़िल्म्स', जिसे वी. शांताराम चला रहे थे, पहुँचे और वहाँ चालीस रुपया प्रति माह पर कलाकारो को मराठी सिखाने की जिम्मेदारी स्वीकार कर ली।
सफलता की प्राप्ति
वर्ष 1942 में उन्हें राजा नेने द्वारा निर्देशित फ़िल्म "दस बजे" के गीत लिखने का मौका मिला, जिसमें उर्मिला और परेश बनर्जी अदाकारी कर रहे थे। फ़िल्म 'दस बजे' एक सुपर हिट साबित हुई। इस प्रारंभिक सफलता के चलते मुखराम शर्मा को राजा हरिश्चंद्र और तारामती की प्रेम कहानी पर आधारित शोभना समर्थ अभिनीत राजा नेने की अगली फ़िल्म "तारामती" लिखने का अवसर मिला। यह फ़िल्म न सिर्फ़ एक बड़ी हिट सबित हुई बल्कि मुखरामजी द्वारा इसके तुरंत बाद लिखी गईं अगली दो फ़िल्मों 'विष्णु भगवान' और 'नल दमयंती' को भी सफ़लता मिली। किंतु अब मुखराम शर्मा एक बदलाव चाहते थे और उनकी कामना सामाजिक समस्याओं के विषयों पर भी कहानी लिखने की थी।[1]
यह अवसर भी मुखराम शर्मा को जल्द ही मिल गया। उन्हें यह मौका तब मिला, जब राजा नेने ने अज्ञात मराठी अभिनेताओ के साथ उनकी एक शुरूआती कहानी पर फ़िल्म बनायी। लेकिन यह फ़िल्म असफल रही। इसके बाद उनकी अगली मराठी फ़िल्म "स्त्री जन्मा तुझी कहानी" को भारी सफ़लता मिली। यह फ़िल्म निर्देशक दत्ता धर्माधिकारी के साथ थी, जिन्होंने मुखरामजी की एक लघु कथा को मराठी में बना डाला था। इस फ़िल्म की सफलता यादगार रही और बाद में इसे "औरत तेरी यही कहानी" फ़िल्म के रूप में हिन्दी में पुनर्निर्मित भी किया गया। इसके बाद हालाँकि उनके पुणे स्थित घर में निर्माताओं का तांता बंध गया था, किंतु मुखरामजी उसकी अनदेखी करके मुंबई लौट आए। अब सफलता उनके क़दम चूम रही थी।
प्रमुख फ़िल्में
पंडित मुखराम शर्मा की मुम्बई में फ़िल्म 'औलाद' थी। जब वर्ष 1954 में यह फ़िल्म परदे पर आई तो इसकी सफलता के बाद मुखरामजी ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1955 में अपनी कहानी के लिए पहला 'फ़िल्म फेयर पुरस्कार' लेने के बाद उन्होंने निम्नलिखित सफल फ़िल्में लिखीं-
- वचन
- एक ही रास्ता
- दुश्मन
- साधना
- संतान
- बहनें
- तलाक़
- धूल का फूल
- समाधि
- हमजोली
- वचन
- स्वप्न सुहाने
- पतंगा
मुखराम शर्मा जी ने वर्ष 1958 में एक निर्माता के तौर पर 'तलाक़' और 'संतान' सहित आधा दर्जन फ़िल्में बनाई थीं। सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डालने और अपनी कहानियों के द्वारा उनका हल ढूँढने में उनकी रूचि ने उनके लेखन के पीछे की असली ताकत के रूप में काम किया। उनकी लगभग सभी फ़िल्में अपनी सामाजिक टिप्पणी और सुधार की दिशा में दिए गए सुझावों के कारण पसंद की जाती थीं। फ़िल्म 'एक ही रास्ता' विधवाओं की समस्याओं पर आधारित थी। 'वचन' एक अविवाहित बेटी की कहानी थी, जो अपने परिवार का लालन-पालन करती है। फ़िल्म 'स्वप्न सुहाने' भाइयों और उनके पारस्परिक संबंधों की कहानी थी, जबकि 'पतंगा' में मालिक और नौकर के बीच के संवेदनशील रिश्ते को प्रमुखता के साथ प्रस्तुत किया गया था।[1]
'साधना' फ़िल्म
मुखरामजी की सबसे मशहूर फ़िल्मों में से एक 'साधना' गहरी अंतर्दृष्टि के साथ एक वेश्या के जीवन पर प्रकाश डालती है। यह वकालत करती है कि वेश्यावृत्ति एक ऐसी सामाजिक प्रथा है, जहाँ पुरुष भी समान रूप से ज़िम्मेदार है और कोई भी वेश्या सबसे पहले एक स्त्री है फिर कुछ और। अपनी इस फ़िल्म के माध्यम से मुखरामजी जी ने समाज के समक्ष यह बात रखी कि एक वेश्या को समाज द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए। उन्होंने फ़िल्म के माध्यम से दर्शकों को विश्वास दिलाया कि यह न सिर्फ़ संभव है बल्कि सही भी है। बॉक्स-ऑफिस पर 'साधना' फ़िल्म की सफलता ने यह साबित कर दिखाया कि मुखरामजी समय के साथ थे और उन्हें अपने दर्शकों की नब्ज़ की पूरी तरह समझ थी।
रोचक प्रसंग
फ़िल्म 'साधना' के निर्माण के बारे में एक दिलचस्प किस्सा भी है। इस फ़िल्म की कहानी को पूरा करने के बाद मुखरामजी बिमल रॉय के पास गये और उनसे इसका निर्देशन करने के लिए आग्रह किया। बिमल रॉय ने 'मोहन स्टूडियो' में मिलने का सुझाव दिया और कार यात्रा के दौरान मुखरामजी से 'साधना' की कहानी सुनाने को कहा। कहानी सुनते ही बिमल रॉय इसके बोल्ड विषय से प्रभावित होकर तुरंत इसे बनाने पर सहमत हो गये। लेकिन वे एक उलझन में थे कि इस कहानी को दर्शकों द्वारा स्वीकार किया जाएगा या नहीं। उन्होंने फ़िल्म का अंत बदलने के लिए एक सुझाव दिया। उनका दावा था कि 'रजिनी' (उर्फ़ चम्पाबाई, अभिनेत्री वैजयंती माला द्वारा निभाया गया चरित्र) चूँकि एक बदनाम औरत है, लोग उसे बहू के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए कहानी को उसकी मौत के साथ समाप्त करना बेहतर होगा। मुखरामजी ने बिमल दा को सुना और ड्राइवर से गाड़ी रोकने को कहा। वे कार से बाहर आ गये, बिमल दा को लगा कि मुखरामजी शंका निवारण अथवा किसी और आवश्यक कार्य हेतु उतरे हैं, परन्तु उनके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा, जब मुखरामजी वहाँ से चल दिए। उन्होंने एक टैक्सी ली और सीधे बी. आर. चोपड़ा के पास पहुँचे, जो कहानी को जस का तस फ़िल्माने के लिए राज़ी थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 अतीत का झरोखा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 2 मार्च, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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